जिस ओर करो संकेत मात्र
जिस ओर करो संकेत मात्र, उड़ चले विहग मेरे मन का,
जिस ओर बहाओ तुम स्वामी,बह चले श्रोत इस जीवन का!
तुम बने शरद के पूर्ण चांद, मैं बनी सिन्धु की लहर चपल,
मैं उठी गिरी पद चुम्बन को, आकुल व्याकुल असफल प्रतिपल,
जब-जब सोचा भर लूं तुमको अपने प्यासे भुज बन्धन में,
तुम दूर क्रूर तारक बन कर, मुस्काए निज नभ आंगन में,
आहें औ’ फैली बाहें ही इतिहास बन गईं जीवन का!
जिस ओर करो संकेत मात्र!
तुम काया, मैं कुरूप छाया, हैं पास-पास पर दूर सदा,
छाया काया होंगी न एक, है ऎसा कुछ ये भाग्य बदा,
तुम पास बुलाओ दूर करो, तुम दूर करो लो बुला पास,
बस इसी तरह निस्सीम शून्य में डूब रही हैं शेष श्वास,
हे अदभुद, समझा दो रहस्य, आकर्षण और विकर्षण का!
जिस ओर करो संकेत मात्र!
1945 में रचित
उस दिन
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी !
जिस दिन तुमने सरल स्नेह भर
मेरी ओर निहारा;
विहंस बहा दी तपते मरुथल में
चंचल रस धारा!
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी!
जिस दिन अरुण अधरों से
तुमने हरी व्यथाएं;
कर दीं प्रीत-गीत में परिणित
मेरी करुण कथाएं!
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी!
जिस दिन तुमने बाहों में भर
तन का ताप मिटाया;
प्राण कर दिए पुण्य–
सफल कर दी मिट्टी की काया!
उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की
साध हो चुकी पूरी!
1945 में रचित
निंदिया
पास देख अनजान अतिथि को–
दबे पाँव दरवाज़े तक आ,
लौट गई निंदिया शर्मीली!
दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है?
कब आएँ बचपन के बिछुड़े संगी-साथी,
बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती
शून्य रात की घड़ियाँ आधी
और झाँक खिड़की से जब तब
लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली!
रजनी घूम चुकी है, सूने जग का
थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का
कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता
आजा निंदिया, अब तो आजा!
किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली!
1945 में रचित
यदि मैं कहूं
यदि मैं कहूं कि तुम बिन मानिनि
व्यर्थ ज़िन्दगी होगी मेरी,
नहीं हंसेगा चांद हमेशा
बनी रहेगी घनी अंधेरी–
बोलो, तुम विश्वास करोगी ?
यदि मैं कहूं कि हे मायाविनि
तुमने तन में प्राण भरा है,
और तुम्हीं ने क्रूर मरण के
कुटिल करों से मुझे हरा है–
बोलो, तुम विश्वास करोगी ?
यदि मैं कहूं कि तुम बिन स्वामिनि,
टूटेगा मन का इकतारा,
बिखर जाएंगे स्वप्न
सूख जाएगी मधु-गीतों की धारा–
बोलो, तुम विश्वास करोगी ?
1946 में रचित
क्यों प्यार किया
जिसने छूकर मन का सितार,
कर झंकृत अनुपम प्रीत-गीत,
ख़ुद तोड़ दिया हर एक तार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?
बरसा जीवन में ज्योतिधार,
जिसने बिखेर कर विविध रंग,
फिर ढाल दिया घन अंधकार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?
मन को देकर निधियां हज़ार,
फिर छीन लिया जिसने सब कुछ,
कर दिया हीन चिर निराधार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?
जिसने पहनाकर प्रेमहार,
बैठा मन के सिंहासन पर,
फिर स्वयं दिया सहसा उतार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?
1946 में रचित
नादान प्रेमिका से
तुमको अपनी नादानी पर
जीवन भर पछताना होगा!
मैं तो मन को समझा लूंगा
यह सोच कि पूजा था पत्थर–
पर तुम अपने रूठे मन को
बोलो तो, क्या उत्तर दोगी ?
नत शिर चुप रह जाना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!
मुझको जीवन के शत संघर्षों में
रत रह कर लड़ना है ;
तुमको भविष्य की क्या चिन्ता,
केवल अतीत ही पढ़ना है!
बीता दुख दोहराना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!
आज
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता
राह कहती,देख तेरे पांव में कांटा न चुभ जाए
कहीं ठोकर न लग जाए;
चाह कहती, हाय अंतर की कली सुकुमार
बिन विकसे न कुम्हलाए;
मोह कहता, देख ये घरबार संगी और साथी
प्रियजनों का प्यार सब पीछे न छुट जाए!
किन्तु फिर कर्तव्य कहता ज़ोर से झकझोर
तन को और मन को,
चल, बढ़ा चल,
मोह कुछ, औ’ ज़िन्दगी का प्यार है कुछ और!
इन रुपहली साजिशों में कर्मठों का मन नहीं ठगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
आह, कितने लोग मुर्दा चांदनी के
अधखुले दृग देख लुट जाते;
रात आंखों में गुज़रती,
और ये गुमराह प्रेमी वीर
ढलती रात के पहले न सो पाते!
जागता जब तरुण अरुण प्रभात
ये मुर्दे न उठ पाते!
शुभ्र दिन की धूप में चालाक शोषक गिद्ध
तन-मन नोच खा जाते!
समय कहता–
और ही कुछ और ये संसार होता
जागरण के गीत के संग लोक यदि जगता!
आज मुझको मौत से भी डर नहीं लगता!
1947 में रचित
भूत
जीवन के शत संघर्षों में रत रह कर भी,
कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी!
ज़हर बुझे तीरों से घायल हुए हरिन सा
सहसा तड़प छटपटाता मन, आंखों से यह चलता पानी!
कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी !
मरे हुए प्यारे सपनों के प्रेत नाचते अट्टहास कर,
ख़ूब थिरकते ये हड्डी के ढांचे चट-चरमर-चरमर कर,
ढंक सफ़ेद चादर से अपनी ठठरी, खोल ज़्ररा सा घूंघट–
संकेतों से पास बुलाती वह पिशाचनी,
असमय जो घुटमरी जवानी की नादानी!
कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी!
तब क्षण भर को लगता जैसे, भय से खुली-खुली ये आंखें
खुली-खुली ही रह जाएंगी,
ज़रा पुतलियां फिर जाएंगी;
तेज़ी से आती जाती ये सांसे होंगी ख़त्म
मौत की क्रूर अंधेरी घिर आएगी–
भरम भरी, जितनी परिचित उतनी अनजानी!
कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी!
किन्तु, दूसरे क्षण सुन पड़ती–
कोटि-कोटि कण्ठों की व्याकुल विकल पुकारें,
अंबर की छाती बिदारने वाली नवयुग की ललकारें,
ख़ून-पसीने से लथपथ पीड़ित शोषित मानवता की दुर्दम हुंकारें!
और दीखता, दूर भागते दुश्मन के संग,
भाग रहे हैं भूत-प्रेत सारे अतीत के
व्यर्थ भीति के, उस झूठी अशरीर प्रीत के!
सम्मुख आती स्नेहाकुल बाहें फैलाए
नई सुबह रंगीन सुखों की, स्वर्ण-सुहानी!
कमज़ोरी है, जीवन के शत संघर्षों में रत रह कर भी
कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी !
1947 में रचित
इतिहास
खेतों में, खलिहानों में,
मिल और कारखानों में,
चल-सागर की लहरों में
इस उपजाऊ धरती के
उत्तप्त गर्भ के अन्दर,
कीड़ों से रेंगा करते–
वे ख़ून पसीना करते !
वे अन्न अनाज उगाते,
वे ऊंचे महल उठाते,
कोयले लोहे सोने से
धरती पर स्वर्ग बसाते,
वे पेट सभी का भरते
पर ख़ुद भूखों मरते हैं !
वे ऊंचे महल उठाते
पर ख़ुद गन्दी गलियों में–
क्षत-विक्षत झोपड़ियों में–
आकाशी छत के नीचे
गर्मी सर्दी बरसातें,
काटते दिवस औ’ रातें !
वे जैसे बनता जीते,
वे उकड़ू बैठा करते,
वे पैर न फैला पाते,
सिकुड़े-सिकुड़े सो जाते !
अनभिज्ञ बाँह के बल से,
अनजान संगठन बल से,
ये मूक, मूढ़, नत निर्धन,
दुनिया के बाज़ारों में,
कौड़ी कौड़ी को बिकते
पैरों से रौंदे जाते,
ये चींटी से पिस जाते !
ये रोग लिए आते हैं
बीवी को दे जाते हैं,
ये रोग लिए आते हैं
रोगी ही मर जाते हैं !
- * * * * * *
फिर वे हैं जो महलों में
तारों से कुछ ही नीचे
सुख से निज आँखें मीचें
निज सपने सच्चे करते
मखमली बिस्तरों पर से,
टेलीफूनों के ऊपर
पैतृक पूँजी के बल से,
बिन मेहनत के पैसे से–
दुनिया को दोलित करते !
निज बहुत बड़ी पूँजी से,
छोटी पूँजियाँ हड़प कर
धीरे – धीरे समाज के
अगुआ ये ही बन जाते,
नेता ये ही बन जाते,
शासक ये ही बन जाते!
शासन की भूख न मिटती,
शोषण की भूख न मिटती,
ये भिन्न – भिन्न देशों में
छल के व्यापार सजाते
पूँजी के जाल बिछाते,
ये और और बढ़ जाते!
तब इन जैसा ही कोई
यदि टक्कर का मिल जाता,
औ’ ताल ठोंक भिड़ जाता
तो महायुद्ध छिड़ जाता!
तब नाम धर्म का लेकर,
कर्तव्य कर्म का लेकर,
संस्कृति के मिट जने का,
मानवता के संकट का,
भोले जन को भय देकर
सबको युद्धातुर करते !
तो, बड़ी – बड़ी फ़ौजों में
नरजन हो जाते भरती
निर्धन हो जाते भरती
लाखों बेकार बिचारे
वर्दियाँ फ़ौज की धारे,
जल में, थल में, अम्बर में,
कुछ चाँदी के टुकड़ों पर
ये बिना मौत ख़ुद मरते!
मरते ये ही न अकेले
नभ से फेंके गोलों से,
टैंकों से औ’ तोपों से !
विज्ञान विनिमित अनगिन
अनजाने हथियारों से–
भोले जन मारे जाते!
बूढ़े भी मारे जाते,
नारी भी मारी जाती,
दुधमुँहे गोद के शिशु भी
नि:शंक संहारे जाते !
होती न जहाँ बमबारी,
बचते न वहाँ के जन भी,
व्यापार मन्द पड़ जाता,
आवश्यक अन्न न मिलता,
धनवानों की बन आती
वे गेहूँ औ’ चावल का
मन चाहा मूल्य चढ़ाते,
मौक़ा पाते ही लाला
थैलियाँ ख़ूब सरकाते !
तो महाकाल आ जाता,
भीषण अकाल पड़ जाता,
बेबस भूखे नंगों को
चुटकी में चट कर जाता !
जो बचते उन के तन में,
घुन सी लगती बीमारी,
गुपचुप जर्जर प्राणों को
खा जाती यह हत्यारी !
यों स्वार्थ – सिद्धी युद्धों में,
अनगिन अबोध पिस जाते,
पूँजीपतियों की बढ़ती
लालच की ज्वालाओं में
अपने तन-मन की, धन की,
अपने अमूल्य जीवन की,
ये आहुतियाँ दे जाते !
युद्धोपरान्त बदले में
ये बेचारे क्या पाते ?
फिर से दर – दर की ठोकर,
फिर से अकाल बीमारी,
फिर दुखदायी बेकारी !
पूँजीवादी सिस्टम को
क्षत – विक्षत मैशीनरी का
जंग लगे घिसे हिस्सों का
उपचार न कुछ हो पाता !
झुँझलाते असफलता पर,
अफ़सर निकृष्ट सरकारी !
चक्कर खाती धरती के
संग यह इतिहास पुराना
फिर – फिर चक्कर खाता है
फिर – फिर दुहराया जाता!
निर्धन के लाल लहू से
लिखा कठोर घटना-क्रम
यों ही आए जाएगा
जब तक पीड़ित धरती से
पूँजीवादी शासन का
नत निर्बल के शोषण का
यह दाग न धुल जाएगा,
तब तक ऎसा घटना-क्रम
यों ही आए – जाएगा
यों ही आए – जाएगा !
1947 में रचित
दीवाली के बाद
राह देखते ‘श्री लक्ष्मी’ के शुभागमन की,
बरबस आंख मुंदी निर्धन की!
तेल हो गया ख़त्म, बुझ गे दीपक सारे,
लेकिन जलती रही दीवाली मुक्त गगन की!
चूहे आए कूदे-फांदे, और खा गए–
सात देवताओं को अर्पित खील-बताशा;
मिट्टी के लक्ष्मी-गनेश गिर चूर हो गए
दीवारें चुपचाप देखती रहीं तमाशा !
चलती रही रात भर उछल-कूद चूहों की
किन्तु न टूटी नींद थके निर्धन की;
सपने में देखा उअसने आई है लक्ष्मी
पावों में बेड़ियां, हाथ हथकड़ियां पहने !
फूट-फूट रोई वह और लगी यों कहने :
“पगले, मैं बंदिनी बनी हूं धनवालों की
नेताओं को न्यौता
लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का,
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का;
एक बार इन गन्दी गलियों में भी आओ,
घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहाँ भी जाओ!
जिस दिन आओ चिट्ठी भर लिख देना हमको
हम सब लेंगे घेर रेल के इस्टेशन को;
‘इन्क़लाब’ के नारों से, जय-जयकारों से–
ख़ूब करेंगे स्वागत फूलों से, हारों से !
दर्शन के हित होगी भीड़, न घबरा जाना,
अपने अनुगामी लोगों पर मत झुंझलाना;
हाँ, इस बार उतर गाड़ी से बैठ कार पर
चले न जाना छोड़ हमें बिरला जी के घर !
चलना साथ हमारे वरली की चालों में,
या धारवि के उन गंदे सड़ते नालों में–
जहाँ हमारी उन मज़दूरों की बस्ती है,
जिनके बल पर तुम नेता हो, यह हस्ती है !
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया में,
यह बम्बई, आज है जो जन-जन को प्यारी,
देसी – परदेसी के मन की राजदुलारी !
हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
नवयुवती बम्बई पली है जिस दुनिया में,
किन्तु, न इस दुनिया को तुम ससुराल समझना,
बन दामाद न अधिकारों के लिए उलझना ।
हमसे जैसा बने, सब सत्कार करेंगे–
ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,
हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना।
जैसे ही हम तुमको ले पहुँचेंगे घर में,
हलचल सी मच जाएगी उस बस्ती भर में,
कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए–
गांधी टोपी वाले वीर विजेता आए ।
खद्दर धारी, आज़ादी पर मरने वाले
गोरों की फ़ौज़ों से सदा न डरने वाले
वे नेता जो सदा जेल में ही सड़ते थे
लेकिन जुल्मों के ख़िलाफ़ फिर भी लड़ते थे ।
वे नेता, बस जिनके एक इशारे भर से–
कट कर गिर सकते थे शीश अलग हो धड़ से,
जिनकी एक पुकार ख़ून से रंगती धरती,
लाशों-ही-लाशों से पट जाती यह धरती ।
शासन की अब बागडोर जिनके हाथों में,
है जनता का भाग्य आज जिनके हाथों में ।
कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए–
गांधी टोपी वाले शासक नेता आए ।
घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
पंजों पर हो खड़े, उठा बदन, उझक कर,
लोग देखने आवेंगे धक्का-मुक्की कर ।
टुकुर-मुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे,
शंकर, लीला, मधुकर, धोंडू, राम पगारे,
जुम्मन का नाती करीम, नज्मा बुद्धन की,
अस्सी बरसी गुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की ।
वे सब बच्चे पहन चीथड़े, मिट्टी साने,
वे बूढ़े-बुढ़िया, जिनके लद चुके ज़माने,
और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है,
रह-रह उफ़ न उबल पड़ता है, नया ख़ून है ।
घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
हेच काय रे कानाफूसी यह फैल जाएगी,
हर्ष क्षोभ की लहर मुखों पर दौड़ जाएगी ।
हाँ, देखो आ गया ध्यान बन आए न संकट,
बस्ती के अधिकांश लोग हैं बिलकुल मुँहफट,
ऊँच-नीच का जैसे उनको ज्ञान नहीं है,
नेताओं के प्रति अब वह सम्मान नहीं है ।
उनका कहना है, यह कैसी आज़ादी है,
वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है,
तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ,
और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ ।
तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो,
तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छाँटो ।
हमें न छल पाएगी यह कोरी आज़ादी,
उठ री, उठ, मज़दूर-किसानों की आबादी ।
हो सकता है, कड़वी-खरी कहें वे तुमसे,
उन्हें ज़रा मतभेद हो गया है अब तुमसे,
लेकिन तुम सहसा उन पर गुस्सा मत होना,
लाएँगे वे जनता का ही रोना-धोना ।
वे सब हैं जोशीले, किन्तु अशिष्ट नहीं हैं,
करें तुमसे बैर, उन्हें यह इष्ट नहीं है,
वे तो दुनिया बदल डालने को निकले हैं,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी, सभी मिले हैं ।
फिर, जब दावत दी है तो सत्कार करेंगे,
ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे,
हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना ।
भगतसिंह से
भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे–
बम्ब सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
काँग्रेस का हुक्म; ज़रूरत क्या वारंट तलाशी की !
मत समझो, पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से,
रुत ऐसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से,
कामनवैल्थ कुटुम्ब देश को खींच रहा है मंतर से–
प्रेम विभोर हुए नेतागण, नीरा बरसी अंबर से,
भोगी हुए वियोगी, दुनिया बदल गई बनवासी की !
गढ़वाली जिसने अँग्रेज़ी शासन से विद्रोह किया,
महाक्रान्ति के दूत जिन्होंने नहीं जान का मोह किया,
अब भी जेलों में सड़ते हैं, न्यू-माडल आज़ादी है,
बैठ गए हैं काले, पर गोरे ज़ुल्मों की गादी है,
वही रीति है, वही नीति है, गोरे सत्यानाशी की !
सत्य अहिंसा का शासन है, राम-राज्य फिर आया है,
भेड़-भेड़िए एक घाट हैं, सब ईश्वर की माया है !
दुश्मन ही जब अपना, टीपू जैसों का क्या करना है ?
शान्ति सुरक्षा की ख़ातिर हर हिम्मतवर से डरना है !
पहनेगी हथकड़ी भवानी रानी लक्ष्मी झाँसी की !
1948 में रचित
हैदराबाद और यू.एन. ओ
पेरिस ! रात सोलह सितंबर की,
संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा सम्मिति
हैदराबाद का सवाल लेकर बैठी !
नवाब मुइन नवाज़ जंग ने अपील की–
दुहाई है रक्षा करो, घड़ी नहीं ढील की !
उठे रमास्वामी मुदलियार
ब्रिटिश सरकार के पुराने पेशकार
अब कांग्रेस के, प्रतिनिधि देश के !
बोले : राष्ट्र्संघ में हक नहीं हैदराबाद का
अवसर मत दो फ़रियाद का !
चक्र घटनाओं का ऎसा चला
मजबूरन करना पड़ा हमला
मिल-बाँटकर खाते तो क्या था
निज़ाम ग़ैर नहीं, अपना था !
फिर भी, निज़ाम के दोस्तों के दिल थे दहले से
कैडोगन तैयार थे पहले से !
चाचा से
न दो अब एटम बम की धमकी चाचा,
और कोई हथियार निकालो,
कि इसकी धार है खुट्टल ट्रूमन चाचा,
और कोई तलवार निकालो !
चीन में क्या, दुनिया में उगा है लाल सितारा,
लिए डालर की गड्डी, च्याँग परलोक सिधारा,
कि चिट्ठी लिखो, सोच कर लिख दो चाचा,
ढूँढ के बर्ख़ुरदार निकालो,
एक नया गद्दार निकालो !
जंग की बात न छेड़ो, लोग बेहद बिगड़ेंगे,
समय के सौ-सौ तूफ़ाँ, न जाने क्या कर देंगे !
सोवियत मज़दूरों का, लोग उनसे न लड़ेंगे,
ये बिजनेस खोटा, इसमें टोटा लाला,
और कोई व्यापार निकालो,
दूजा कारोबार निकालो !
1949 में रचित
जन्म-भूमि
मेरी जन्म-भूमि,
मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
नीलम का आसमान है, सोने की धरा है,
चाँदी की हैं नदियाँ, पवन भी गीत भरा है,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
ऊँचा है, सबसे ऊँचा जिसका भाल हिमाला,
पहले-पहल उतरा जहाँ अंबर से उजाला,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
हर तरफ़ नवीन मौज, हर तरफ़ नवीन,
चरण चूमते हैं रूप मुग्ध सिन्धु तीन,
मेरी जन्म-भूमि, मेरी प्यारी जन्म-भूमि !
इज्ज़्त प तेरी माता,
यह जान भी निसार !
सौ बार भी मरेंगे हम,
जन्में जहाँ इकबार !
1947 में रचित
मुझको भी इंग्लैंड ले चलो
मुझको भी इंग्लैंड ले चलो, पण्डित जी महराज,
देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज !
बुरी घड़ी में मैं जन्मा जब राजे और नवाब,
तारे गिन-गिन बीन रहे थे अपने टूटे ख़्वाब,
कभी न देखा हरम, चपल छ्प्पन छुरियों का नाच,
कलजुग की औलाद, मिली है किस्मत बड़ी ख़राब,
दादी मर गई, कर गई रूप कथा से भी मुहताज !
तुम जिनके जाते हो उनका बहुत सुना है नाम,
सुनता हूँ, उस एक छत्र में कभी न होती शाम,
काले, पीले, गोरे, भूरे, उनके अनगिन दास,
साथ किसी के साझेदारी औ’ कोई बेदाम,
ख़ुश होकर वे लोगों को दे देती हैं सौराज !
उनका कामनवैल्थ कि जैसे दोधारी तलवार,
एक वार से हमें जिलावें , करें एक से ठार,
घटे पौण्ड की पूँछ पकड़ कर रुपया माँगे भीख,
आग उगलती तोप कहीं पर, कहीं शुद्ध व्यापार,
कहीं मलाया और कहीं सर्वोदय सुखी समाज !
रूमानी कविता लिखता था सो अब लिखी न जाए,
चारों ओर अकाल, जिऊँ मैं कागद-पत्तर खाय?
मुझे साथ ले चलो कि शायद मिले नई स्फूर्ति,
बलिहारी वह दॄश्य, कल्पना अधर-अधर लहराए–
साम्राज्य के मंगल तिलक लगाएगा सौराज !
1953 में रचित
पूछ रहे हो क्या अभाव है
पूछ रहे हो क्या अभाव है
तन है केवल प्राण कहाँ है ?
डूबा-डूबा सा अन्तर है
यह बिखरी-सी भाव लहर है ,
अस्फुट मेरे स्वर हैं लेकिन
मेरे जीवन के गान कहाँ हैं ?
मेरी अभिलाषाएँ अनगिन
पूरी होंगी ? यही है कठिन
जो ख़ुद ही पूरी हो जाएँ
ऐसे ये अरमान कहाँ हैं ?
लाख परायों से परिचित है
मेल-मोहब्बत का अभिनय है,
जिनके बिन जग सूना सूना
मन के वे मेहमान कहाँ हैं ?
कल हमारा है
ग़म की बदली में चमकता एक सितारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
धमकी ग़ैरों की नहीं अपना सहारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
ग़र्दिशों से से हारकर ओ बैठने वाले
तुझको ख़बर क्या अपने पैरों में भी छाले हैं
पर नहीं रुकते कि मंज़िल ने पुकारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
ये क़दम ऐसे जो सागर पाट देते हैं
ये वो धाराएँ हैं जो पर्वत काट देते हैं
स्वर्ग उन हाथों ने धरती पर उतारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
सच है डूबा-सा है दिल जब तक अन्धेरा है
इस रात के उस पार लेकिन फिर सवेरा है
हर समन्दर का कहीं पर तो किनारा है
आज अपना हो न हो पर कल हमारा है
आओ साथ हमारे
आओ साथ हमारे, आओ, आओ साथ हमारे
हैं ये गीत तुम्हारे, आओ, गाओ साथ हमारे
आओ, आओ साथ हमारे
ऐ अन्धी गलियों में बसने वालो
हर पल जीवन की चक्की में पिसने वालो
आओ, आओ साथ हमारे
डर किसका अब गोली अपना रुख बदलेगी
दुश्मन को पहचान चुकी है बदला लेगी
राह ने देखो, टूट पड़ो, तूफ़ान बन जाओ
आओ, आओ साथ हमारे
तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!
सुबह औ’ शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,
तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर,
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर!
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…. तू ज़िन्दा है
ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…. तू ज़िन्दा है
हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है,
यह आंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है,
जिधर पड़ेंगे ये क़दम बनेगी एक नई डगर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…. तू ज़िन्दा है
हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…. तू ज़िन्दा है
ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…. तू ज़िन्दा है
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!…. तू ज़िन्दा है
समूहगान
क्रान्ति के लिए जली मशाल
क्रान्ति के लिए उठे क़दम !
भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए
हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !
छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ
किन्तु सेठ भर रहे हैं कोठियाँ
लूट का यह राज हो ख़तम !
तय है जय मजूर की, किसान की
देश की, जहान की, अवाम की
ख़ून से रंगे हुए निशान की
लिख गई है मार्क्स की क़लम !
बेटी बेटे
आज कल में ढल गया
दिन हुआ तमाम
तू भी सो जा सो गई
रंग भरी शाम
साँस साँस का हिसाब ले रही है ज़िन्दगी
और बस दिलासे ही दे रही है ज़िन्दगी
रोटियों के ख़्वाब से चल रहा है काम
तू भी सोजा ….
रोटियों-सा गोल-गोल चांद मुस्कुरा रहा
दूर अपने देश से मुझे-तुझे बुला रहा
नींद कह रही है चल, मेरी बाहें थाम
तू भी सोजा…
गर कठिन-कठिन है रात ये भी ढल ही जाएगी
आस का संदेशा लेके फिर सुबह तो आएगी
हाथ पैर ढूंढ लेंगे , फिर से कोई काम
तू भी सोजा…
तुम्हारी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब
महामानव
मेरे देश की धरती पर
तुम लम्बे और मज़बूत डग भरते हुए आए
और अचानक चले भी गए !
लगभग एक सदी पलक मारते गुज़र गई
जिधर से भी तुम गुज़रे
अपनी मुस्कुराहट के असंख्य गुलाब खिला गए,
जिनकी भीनी सुगन्ध
हमेशा के लिए वातावरण में बिखर गई है !
तुम्हारी मुस्कान के ये अनगिनत फूल
कभी नहीं मुरझाएँगे !
कभी नहीं सूखेंगे !
जिधर से भी तुम गुज़रे
अपने दोनों हाथों से लुटाते चले गए
वह प्यार,
जो प्यार से अधिक पवित्र है !
वह ममता,
जो माँ की ममता से अधिक आर्द्र है !
वह सहानुभूति,
जो तमाम समुद्रों की गहराइयों से अधिक गहरी है !
वह समझ,
जिसने बुद्धि को अन्तरिक्ष पार करने वाली
नई सीमाएँ दी हैं !
अच्छाई और बुराई से बहुत ऊपर
तुम्हारे हृदय ने पात्र-कुपात्र नहीं देखा
पर इतना कुछ दिया है इस दुनिया को
कि सदियाँ बीत जाएँगी
इसका हिसाब लगाने में !
इसका लेखा-जोखा करने में !
तुमने अपने आपको साधारण इनसान से
ऊपर या अधिक कभी नहीं माना ।
पर यह किसे नहीं मालूम
कि तुम्हारे सामने
देवताओं की महानता भी शरमाती है !
और अत्यन्त आदर से सर झुकाती है !
आनेवाली पीढ़ियाँ
जब गर्व से दोहराएँगी कि हम इनसान हैं
तो उन्हें उँगलियों पर गिने जाने वाले
वे थोड़े से नाम याद आएँगे
जिनमें तुम्हारा नाम बोलते हुए अक्षरों में
लिखा हुआ है !
पूज्य पिता,
सहृदय भाई,
विश्वस्त साथी, प्यारे जवाहर,
तुम उनमें से हो
जिनकी बदौलत
इनसानियत अब तक साँस ले रही है !
1964
हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है !
तुमने माँगे ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा
छीनी हमसे सस्ती चीज़ें, तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है
इन बनियों चोर-लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है
बगलें मत झाँको, दो जवाब क्या यही स्वराज्य तुम्हारा है ?
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !
मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें
जब काले-गोरे बनियों में चलती थीं सौदों की बातें
रह गई ग़ुलामी बरकरार हम समझे अब छुटकारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर हड़ताल हमारा नारा है !
क्या धमकी देते हो साहब, दमदांटी में क्या रक्खा है
वह वार तुम्हारे अग्रज अँग्रज़ों ने भी तो चक्खा है
दहला था सारा साम्राज्य जो तुमको इतना प्यारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !
समझौता ? कैसा समझौता ? हमला तो तुमने बोला है
महंगी ने हमें निगलने को दानव जैसा मुँह खोला है
हम मौत के जबड़े तोड़ेंगे, एका हथियार हमारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर हड़ताल हमारा नारा है !
अब संभले समझौता-परस्त घुटना-टेकू ढुलमुल-यकीन
हम सब समझौतेबाज़ों को अब अलग करेंगे बीन-बीन
जो रोकेगा वह जाएगा, यह वह तूफ़ानी धारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !
(1949 में रचित )
रुला के गया, सपना मेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
वही हैं गम-ए-दिल, वही हैं चन्दा तारे
वही हम बेसहारे
आधी रात वही हैं, और हर बात वही हैं
फिर भी ना आया लुटेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
कैसी ये जिन्दगी, के साँसों से हम ऊबे
के दिल डूबा, हम डूबे
एक दुखिया बेचारी, इस जीवन से हारी
उस पर ये गम का अन्धेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
रुला के गया, सपना मेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
वही हैं गम-ए-दिल, वही हैं चन्दा तारे
वही हम बेसहारे
आधी रात वही हैं, और हर बात वही हैं
फिर भी ना आया लुटेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
कैसी ये जिन्दगी, के साँसों से हम ऊबे
के दिल डूबा, हम डूबे
एक दुखिया बेचारी, इस जीवन से हारी
उस पर ये गम का अन्धेरा
रुला के गया, सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की
घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की
घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की..
तू मेरे मन का मोती हैं, इन नैनन की ज्योती हैं
याद हैं मेरे बचपन की, घर आया मेरा परदेसी..
अब दिल तोड़ के मत जाना, रोती छोड़ के मत जाना
कसम तुझे मेरे असुअन की, घर आया मेरा परदेसी
तुम हमें प्यार करो या ना करो
तुम हमें प्यार करो या ना करो, हम तुम्हें प्यार किये जायेगें
चाहे किस्मत में ख़ुशी हो के ना हो, गम उठाकर ही जिए जायेगें
तुम हमें प्यार करो या ना करो…
हम नहीं वो जो गमे-इश्क से घबरा जाएं
हो के मायूस जुबां पर कोई शिकवा लाये
चाहे कितना ही बढ़े दर्दे जिगर, अपने होंठो को सिये जायेंगे
तुम हमें प्यार करो या ना करो…..
तुम सलामत हो तो हम चैन भी पा ही लेंगे
किसी सूरत से दिल की लगी लगा ही लेंगें
प्यार का जाम मिले या ना मिले, हम तो आंसू भी पिए जायेंगें
तुम हमें प्यार करो या ना करो…
तोड़ दी आस तो फिर इतना ही एहसान करो
दिल में रहना जो ना चाहो तो नज़र ही में रहो
ठेस लगती जो है दिल पर तो लगे, गम उठाकर ही जिए जायेगें
तुम हमें प्यार करो या ना करो
ओ रे माझी ओ रे माझी ओ ओ मेरे माझी
ओ रे माझी ! ओ रे माझी ! ओ ओ मेरे माझी !
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार…
हो मन की किताब से तू, मेरा नाम ही मिटा देना
गुन तो न था कोई भी, अवगुन मेरे भुला देना
मुझको तेरी बिदा का…
मुझको तेरी बिदा का मर के भी रहता इन्तज़ार
मेरे साजन…
मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मत खेल…
मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की चिर संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल…
मेरा खींचती है आँचल मन मीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन हैं उस पार
ओ रे माझी ओ रे माझी ओ ओ मेरे माझी
मेरे साजन हैं उस पार…
ओ बसंती पवन पागल
ओ बसंती पवन पागल, ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती …
बन के पत्थर हम पड़े थे, सूनी सूनी राह में
जी उठे हम जब से तेरी, बाँह आई बाँह में
बह उठे नैनों के काजल, ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती …
याद कर तूने कहा था, प्यार से संसार है
हम जो हारे दिल की बाज़ी, ये तेरी ही हार है
सुन ये क्या कहती है पायल, ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती …
दुआ कर ग़म-ए-दिल, ख़ुदा से दुआ कर
दुआ कर ग़म-ए-दिल, ख़ुदा से दुआ कर
वफ़ाओं का मजबूर दामन बिछा कर
दुआ कर ग़म-ए-दिल, ख़ुदा से दुआ कर
जो बिजली चमकती है उनके महल पर
वो कर ले तसल्ली, मेरा घर जला कर
दुआ कर ग़म-ए-दिल…
सलामत रहे तू, मेरी जान जाए
मुझे इस बहाने से ही मौत आए
करूँगी मैं क्या चन्द साँसें बचा कर
दुआ कर ग़म-ए-दिल…
मैं क्या दूँ तुझे मेरा सब लुट चुका है
दुआ के सिवा मेरे पास और क्या है
ग़रीबों का एक आसरा-ए-ख़ुदा है
मगर मेरी तुझसे यही इल्तजा है
न दिल तोड़ना दिल की दुनिया बसा कर
दुआ कर ग़म-ए-दिल…
कल की दौलत, आज की ख़ुशियाँ
कल की दौलत, आज की ख़ुशियाँ
उनकी महफ़िल, अपनी गलियाँ
असली क्या है, नकली क्या है
पूछो दिल से मेरे
तोड़ के झूठे नाते रिश्ते, आया मैं दिलवालों में
सच कहता हूँ चोर थे ज़्यादा, दौलत के रखवालों में
कल की दौलत, आज की ख़ुशियाँ…
उस दुनिया ने बात ना पूछी, इस दुनिया ने प्यार दिया
बैठा मन के राजमहल में, सपनों का संसार दिया
कल की दौलत, आज की ख़ुशियाँ…
आसमान पर रहने वालों, धरती को तो पहचानो
फूल इसी मिट्टी में महके, तुम मानो या न मानो
कल की दौलत, आज की ख़ुशियाँ…
हैं सबसे मधुर वो गीत
हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें
हम दर्द के सुर में गाते हैं
जब हद से गुज़र जाती है ख़ुशी
आँसू भी छलकते आते हैं
हैं सबसे मधुर…
काँटों में खिले हैं फूल हमारे
रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से
दामन को बचाए जाते हैं
हैं सबसे मधुर…
जब ग़म का अन्धेरा घिर आए
समझो के सवेरा दूर नहीं
हर रात का है पैगाम यही
तारे भी यही दोहराते हैं
हैं सबसे मधुर…
पहलू में पराए दर्द बसा के
(तू) हँसना हँसाना सीख ज़रा
तूफ़ान से कह दे घिर के उठे
हम प्यार के दीप जलाते हैं
हैं सबसे मधुर…
आ जा अब तो आ जा
आ जा अब तो आ जा
मेरी क़िस्मत के ख़रीदार
अब तो आ जा..
नीलाम हो रही है
मेरी चाहत सर-ए-बाज़ार
अब तो आ जा..
सब ने लगाई बोली, ललचाई हर नज़र
मैं तेरी हो चुकी हूँ दुनिया है बेख़बर
ज़ालिम बड़े भोले हैं, मेरे ये तलबगार
अब तो आ जा…
हसरत भरी जवानी, ये हुस्न ये शबाब
रँगीन दिल की महफ़िल मेरे हसीन ख़्वाब
गोया कि मेरी दुनिया लुटने को है तैयार
अब तो आ जा…
हाय रे वो दिन क्यों ना आए
हाये रे वो दिन क्यों ना आए
जा-जा के ऋतु लौट आए
झिलमिल वो तारे, कहाँ गए सारे
मन बाती जले, बुझ जाए
हाये रे वो दिन…
सुनी मेरी बीना, संगीत बिना
सपनों की माला मुरझाए
हाये रे वो दिन…
जाने कैसे सपनों में खो गई अखियाँ
जाने कैसे सपनों में खो गई अँखियाँ ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियां ।
अजब दीवानी भई मो से अनजानी भई,
पल में पराई देखो हो गई अँखियाँ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ।
बरसी ये कैसी धारा काँपे तन-मन सारा,
रंग से अंग भिगो गई अँखियाँ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ।
मन उजियारा छाया जग उजियारा छाया,
जगमग दीप संजो गई अँखियाँ।
मैं तो हूँ जागी मोरी सो गई अँखियाँ।
सब कुछ सीखा हमने
सबकुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी
सच है दुनियावालों के हम हैं अनाड़ी
दुनिया ने कितना समझाया
कौन है अपना कौन पराया
फिर भी दिल की चोट छुपाकर
हमने आपका दिल बहलाया
ख़ुद ही मर मिटने की ये ज़िद है हमारी
दिल का चमन उजडते देखा
प्यार का रँग उतरते देखा
हमने हर जीनेवाले को
धन-दौलत पे मरते देखा
दिल पे मरनेवाले मरेंगे भिखारी
असली नक़ली चेहरे देखे
दिल पे सौ-सौ पहरे देखे
मेरे दुखते दिल से पूछो
क्या-क्या ख़्वाब सुनहरे देखे
टूटा जिस तारे पे नज़र थी हमारी