दर्पण-सी हँसी
एक हँसी दर्पण-सी अपने होठों पर रख ली थी उसने
जिसमें देवताओं ने देखे अपने दुख
जिसमें कितने ही तारे उतरे देखने अपने अंधेरे
एक फूल जिसमें अपना दर्द उड़ेल गया
एक औरत छोड़ गई जिसमें अपनी नग्नता
उस हँसी पर बाद में देर तक चांदनी बरसी
हवा घंटों उसे पोंछती रही
बारिश ने उसे धोने की अनेक कोशिशें कीं
लेकिन वह सभी कुछ जो उसमें संग्रहित हुआ
ज्यों का त्यों संचित रहा
देवता अपनी कुरूपता पर फिर कभी
दुखी नहीं हुए
तारे नहीं हुए विचलित अपने सत्य के बाद में कभी
फूल मुरझाया नहीं अपनी पीड़ा से उसके बाद
एक औरत लज्जित नहीं हुई अपनी देह से फिर
अक्षर
आख़िर मैं लौट गई
उस क़िताब में
जिसका मैं पन्ना थी
अंत तक प्रतीक्षा की
अंत तक पेड़ कहते रहे
तुम आ रहे हो
अंत तक जंगल तुम्हें पुकारता रहा।
एक चिड़िया अंत तक कहती रही
अभी लौट जाओ
एक दिन तुम्हें पढ़ने कोई अवश्य आएगा
अभी तुम अक्षरों बिम्बों धवनियों में रहो
अभी तुम्हारा अर्थ खुल नहीं पाएगा
तुम्हें समझने वालों में अभी
सबसे कम नुकसानदेह क़िताब ही है
लौट जाओ उसी में चुपचाप
बेआवाज़ जाकर लग जाओ अपनी जगह।
अंत-अंत तक
यह मानने की इच्छा नहीं थी
लौटने की निष्ठुर विवशता थी मगर
और अक्षर तो मैं थी ही
पीले किसी पन्ने पर कब से टिकी
चली जाती हूँ
चली जाती हूँ
आंधी सी उस हवा में ऐसे
जैसे जानती हूँ उसकी भीतरी अहिंसा
जानती हूँ वह आकर थमेगी मुझ में ही
भर देगी जाने कैसी-कैसी अतृप्तियों से फिर
अधीर होने पर सुला देगी
मेरे ही सपनों की बाँहों में आख़िर
चली जाती हूँ दुर्धर्ष उन घाटियों में भटकने
जहाँ कतई उम्मीद नहीं है उससे मिलने की
मेरी कल्पना ने जिसे चुना है
जाती हूँ लौटने हर बार नए सिरे से
उन्हीं अक्षरों के बीच
जिसने मिलती-जुलती हूँ
मिलती-जुलती हैं जो कितनी उन बिम्बों से फिर
जिनके अर्थ छिपे रहते हैं
उजागर होकर भी
तभी तो समा जाती हूँ निःस्वर
समय के आईने में हर रात
जहाँ संचित है वह आलिंगन
या कि बिम्ब उसका
जिस में है वह
और उसकी उत्तप्त बाँहें?
मेरी तरह एक तारा
मैंने अलग कर लिया था खुद को
तभी जब समझ गई थी
करने पड़ेंगे कई पाप
पुण्य की तरह ही उसे पाने के लिए
जो मेरा इंतज़ार करता है
मेरे ही भीतर बैठ कर
चली गई थी उन विधवाओं के पास
जिन्हें सम्भोग वर्जित है
जिनके रेशमी स्तनों पर
नहीं पड़ता बाहर का कोई प्रकाश
मैं लौट सकने की हालत में नहीं थी वर्षों
मैंने काट लिए थे अपने हाथ
जिनसे स्पर्श कर सकती उस हृदय को
जिसमें मेरे लिए उद्दाम वासना थी
मेरी आँखों पर पड़े रहे
जाने कब तक
वे अजीब फूल
जो आँखों की ही तरह थे
उनसे रक्त टपकता था प्रेम का
जो फूल की तरह ही था
मैं अब भी चाहती हूँ उस तारे को
जो मेरी तरह है
किसी और हृदय में
मैं गई तो थी उस रोज़
तुम्हारे भीतर
तुम टहल रहे थे
और तुमसे लिपटती हुई थी हवा
मैं खड़ी देखती रही
तुम्हारी सिहरती निर्वस्त्रा देह
मैं प्रतीक्षा करती रही
तुम्हारे संभलने और लौटने की
एक और सुख की तरफ़
तुम पीले पड़ गए थे
और बस गिरने ही वाले थे
मैं तब भी खड़ी रही
थामने के लिए तुम्हें
लेकिन मैंने देखा
तभी आया तुम्हारा क्रीतदास
तुमसे भी अधिक पीला
और समा गया तुम में
तुम्हारा पौरुष कितना संभला हुआ था
मैंने जाना
ख़ुद को फिर संभालती हुई
किसी तरह आई बाहर
यहाँ भी वैसा ही दृश्य था पसरा हुआ
जिससे निकल कर जा रही थीं
दूसरी स्त्रियाँ मेरी तरह ही
किसी और दृश्य में
उस तारे-सी
लाना मेरे लिए ख़ुद को
जैसे चिड़िया लाती है तिनका संभाल कर
एक तारा लाना
अनजाने हर रात जो तुम्हारे बिस्तर में आता है
तुम्हारी नींद में शामिल होने
तुम्हारे जागते ही मगर
गायब हो जाता है जो
कि खलल न पड़े
तुम्हारे दूसरे प्रेम में
यह दुनिया भरी पड़ी है कितने ही सौन्दर्य से
उतनी ही कुरूपताओं से
सोचती हूँ कौन-सी सुंदर चीज़ें हैं
तुम्हारी पसंद की
चाहती हूँ उनमें ही रहना
उस तारे-सी
जो अपनी अनुपस्थिति में
शामिल रहता है तुम्हारी चर्या में सदा
गति
हूँ ऐसी गति में
उद्धिग्न इतनी कि
तोड़ती हर उस डोर को जिससे हूँ बँधी
जगी कई रातों से
थकी
शताब्दियों से कई
जगी वैसे भी हूँ नींद में ही चलती फिर भी
रात की मुँडेर पर बैठी बड़ी चिड़िया को पकड़ने की चेष्टा करती
गिरने से बचने के यत्न में लगी
पग-पग पर समेटती रात के विस्तार को
गति में हूँ बढ़ती
उद्धग्नि इतनी कि समझती भी नहीं इसके ख़तरे
मैं तारों का एक घर
न जाने कितने तारे
मेरी आँखों में आ-आ कर धवस्त होते रहे हैं
उनकी तेज़ रोशनी
गहन ऊष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही हैं
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गयी हूँ
जिसमें मनुष्यों की भांति ये मरने आते हैं
आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतरना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही ऊष्मा चली जाती है कहीं
मछलियों की आँखें
यह क्या है जो मन को किसी परछाईं-सा हिलाता है
यह तो हवा नहीं चिरपरिचित सुबह वाली
चिड़ियाँ जिसमें आ सुना जाती थीं प्रकृति का हाल
धूप जाड़े वाली भी नहीं
ले आती थी जो मधुमक्खियों के गुँजार
यह कोई और हक़ीक़त है
कोई आशँका ख़ुद को एतबार की तरह गढ़ती
कि कुछ होगा इस समय में ऐसा
जिससे बदल जाएगा हवा धूप वाला यह संसार
मधुमक्खियाँ जिससे निकल चली जाएँगी बाहर
अपने अमृत छत्ते छोड़
हो सकता है हमें यह जगह ही छोड़नी पड़े
ख़ाली करनी पड़े अपनी देह
वासनाओं के व्यक्तिगत इतिहास से
जाना पड़े समुद्र तल में
खोजने मछलियों की वे आँखें
जो ग़ुम हुईं हमीं में कहीं
ऐ शाम ! ऐ मृत्यु ! / सविता सिंह
आज तक जिसका असर है
पेड़ों-पत्तों पर
जिनसे होकर कोई साँवली हवा गुज़री थी
बहुत दिनों बाद
वह शाम अपनी ही वासना-सी दिख रही थी
मन्द-मन्द एक उत्तेजना को पास लाती हुई
वह मृत्यु थी मुझे लगा
मरने के अलावा उस शाम
और क्या-क्या हुआ
जीना कितना अधीर कर रहा था
मरने के लिए
एक स्त्री जो अभी-अभी गुज़री है
वह उसी शाम की तरह है
बिलकुल वैसी ही
जिसने मेरा क्या कुछ नहीं बिगाड़ दिया
फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम ! ऐ मृत्यु !
मैं रहूँगी तुम्हें सहने के लिए.
दुख का साथ
मैंने मान लिया है
हमारे आस-पास हमेशा दुख रहा करेंगे
और कहते रहेंगे
‘ख़ुशियाँ अभी आने वाली हैं
वे सहेलियाँ हैं
रास्ते में कहीं रुक गई होंगी
गपशप में मशगूल हो गयी होंगीं’
वैसे मैंने कब असंख्य ख़ुशियाँ चाहीं थीं
मेरे लिए तो यही एक ख़ुशी थी
कि हम शाम ठण्डी हवा के मध्य
उन फूलों को देखते
जो इस बात से प्रसन्न होते
कि उन्हें देखने के लिए
उत्सुक आँखे बची हुई हैं इस पृथ्वी पर
मेरे लिए दुख का साथ
कभी उबाऊ न लगा
वे बहुत दीन-हीन ख़ुद लगे
उन्हें सँवारने की अनेक कोशिशें मैंने कीं
मगर वे मेरा ही चेहरा बिगाड़ने में लगे रहे
मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !
जाल
न प्रेम, न नफ़रत, एक बदरँग उदासी है
जो गिरती रहती है भुरभुराकर आजकल
एक-दूसरे की सूरत किन्हीं और लोगों की लगती है
लाल-गुलाबी संसार का किस सहजता से विलोप हुआ
वह हमारी आँखे नहीं बता पाएँगी
ह्रदय की रक्त-कोशिकाओं को ही इसका कुछ पता होगा
उन स्त्रियों को भी नहीं
जिन्हें उसे लेकर कई भ्रम थे
जो अब तक मृत्यु के बारे में बहुत थोड़ा जानती हैं
वे दरअसल स्वयँ मृत्यु हैं
जो उस तक शक़्ल बदल-बदलकर आईं
सचमुच मौत ने बनाया था उससे फ़रेब का ही रिश्ता
न प्रेम न नफ़रत
कायनात दरअसल एक बदरँग जाल है
जिसमें सबसे ठीक से फँसी दिखती है उदासी ही ।