हूँ ऐसी गति में
उद्धिग्न इतनी कि
तोड़ती हर उस डोर को जिससे हूँ बँधी
जगी कई रातों से
थकी
शताब्दियों से कई
जगी वैसे भी हूँ नींद में ही चलती फिर भी
रात की मुँडेर पर बैठी बड़ी चिड़िया को पकड़ने की चेष्टा करती

गिरने से बचने के यत्न में लगी
पग-पग पर समेटती रात के विस्तार को
गति में हूँ बढ़ती
उद्धग्नि इतनी कि समझती भी नहीं इसके ख़तरे

मैं तारों का एक घर
न जाने कितने तारे
मेरी आँखों में आ-आ कर धवस्त होते रहे हैं
उनकी तेज़ रोशनी
गहन ऊष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही हैं
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गयी हूँ
जिसमें मनुष्यों की भांति ये मरने आते हैं

आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतरना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही ऊष्मा चली जाती है कहीं

मछलियों की आँखें 

यह क्या है जो मन को किसी परछाईं-सा हिलाता है
यह तो हवा नहीं चिरपरिचित सुबह वाली
चिड़ियाँ जिसमें आ सुना जाती थीं प्रकृति का हाल
धूप जाड़े वाली भी नहीं
ले आती थी जो मधुमक्खियों के गुँजार
यह कोई और हक़ीक़त है
कोई आशँका ख़ुद को एतबार की तरह गढ़ती
कि कुछ होगा इस समय में ऐसा
जिससे बदल जाएगा हवा धूप वाला यह संसार
मधुमक्खियाँ जिससे निकल चली जाएँगी बाहर
अपने अमृत छत्ते छोड़
हो सकता है हमें यह जगह ही छोड़नी पड़े
ख़ाली करनी पड़े अपनी देह
वासनाओं के व्यक्तिगत इतिहास से
जाना पड़े समुद्र तल में
खोजने मछलियों की वे आँखें
जो ग़ुम हुईं हमीं में कहीं

ऐ शाम ! ऐ मृत्यु ! / सविता सिंह

नहीं मालूम वह कैसी शाम थी
आज तक जिसका असर है
पेड़ों-पत्तों पर
जिनसे होकर कोई साँवली हवा गुज़री थी

 

बहुत दिनों बाद
वह शाम अपनी ही वासना-सी दिख रही थी
मन्द-मन्द एक उत्तेजना को पास लाती हुई
वह मृत्यु थी मुझे लगा
मरने के अलावा उस शाम
और क्या-क्या हुआ
जीना कितना अधीर कर रहा था
मरने के लिए

एक स्त्री जो अभी-अभी गुज़री है
वह उसी शाम की तरह है
बिलकुल वैसी ही
जिसने मेरा क्या कुछ नहीं बिगाड़ दिया
फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम ! ऐ मृत्यु !
मैं रहूँगी तुम्हें सहने के लिए.

दुख का साथ

मैंने मान लिया है
हमारे आस-पास हमेशा दुख रहा करेंगे
और कहते रहेंगे
‘ख़ुशियाँ अभी आने वाली हैं
वे सहेलियाँ हैं
रास्ते में कहीं रुक गई होंगी
गपशप में मशगूल हो गयी होंगीं’
वैसे मैंने कब असंख्य ख़ुशियाँ चाहीं थीं
मेरे लिए तो यही एक ख़ुशी थी
कि हम शाम ठण्डी हवा के मध्य
उन फूलों को देखते
जो इस बात से प्रसन्न होते
कि उन्हें देखने के लिए
उत्सुक आँखे बची हुई हैं इस पृथ्वी पर
मेरे लिए दुख का साथ
कभी उबाऊ न लगा
वे बहुत दीन-हीन ख़ुद लगे
उन्हें सँवारने की अनेक कोशिशें मैंने कीं
मगर वे मेरा ही चेहरा बिगाड़ने में लगे रहे

मेरा चेहरा किसी फूल-सा हो सकता था
खिली धूप में चमकता हुआ !

जाल

न प्रेम, न नफ़रत, एक बदरँग उदासी है
जो गिरती रहती है भुरभुराकर आजकल
एक-दूसरे की सूरत किन्हीं और लोगों की लगती है
लाल-गुलाबी संसार का किस सहजता से विलोप हुआ
वह हमारी आँखे नहीं बता पाएँगी
ह्रदय की रक्त-कोशिकाओं को ही इसका कुछ पता होगा

उन स्त्रियों को भी नहीं
जिन्हें उसे लेकर कई भ्रम थे
जो अब तक मृत्यु के बारे में बहुत थोड़ा जानती हैं
वे दरअसल स्वयँ मृत्यु हैं
जो उस तक शक़्ल बदल-बदलकर आईं
सचमुच मौत ने बनाया था उससे फ़रेब का ही रिश्ता

न प्रेम न नफ़रत
कायनात दरअसल एक बदरँग जाल है
जिसमें सबसे ठीक से फँसी दिखती है उदासी ही ।