कोई पार नदी के गाता
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर,
आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई
उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता,
सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!
अग्निपथ
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु स्वेद रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
क्या है मेरी बारी में
क्या है मेरी बारी में।
जिसे सींचना था मधुजल से
सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी
विधि से जीवन-क्यारी में।
क्या है मेरी बारी में।
आंसू-जल से सींच-सींचकर
बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है
मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।
टूट पडे मधुऋतु मधुवन में
कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा
जीने की तैयारी में|
क्या है मेरी बारी में
लो दिन बीता लो रात गयी
सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई
लो दिन बीता, लो रात गई
धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई
चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’
और न कुछ मैं कहने पाया –
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में –
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ
सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम,
उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आत्मपरिचय
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भ्ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
मैं कल रात नहीं रोया था
मैं कल रात नहीं रोया था
दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
प्यार-भरे उपवन में घूमा,
फल खाए, फूलों को चूमा,
कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
आँसू के दाने बरसाकर
किन आँखो ने तेरे उर पर
ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था?
मैं कल रात नहीं रोया था!
नीड का निर्माण
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
त्राहि त्राहि कर उठता जीवन
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब रजनी के सूने क्षण में,
तन-मन के एकाकीपन में
कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब उर की पीडा से रोकर,
फिर कुछ सोच समझ चुप होकर
विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
पंथी चलते-चलते थक कर,
बैठ किसी पथ के पत्थर पर
जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पांव दबाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
इतने मत उन्मत्त बनो
इतने मत उन्मत्त बनो!
जीवन मधुशाला से मधु पी
बनकर तन-मन-मतवाला,
गीत सुनाने लगा झुमकर
चुम-चुमकर मैं प्याला-
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उन्मत्त बनो।
इतने मत संतप्त बनो।
जीवन मरघट पर अपने सब
आमानों की कर होली,
चला राह में रोदन करता
चिता-राख से भर झोली-
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत संतप्त बनो।
इतने मत उत्तप्त बनो।
मेरे प्रति अन्याय हुआ है
ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण,
करने लगा अग्नि-आनन हो
गुरू-गर्जन, गुरूतर गर्जन-
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उत्तप्त बनो।
स्वप्न था मेरा भयंकर
स्वप्न था मेरा भयंकर!
रात का-सा था अंधेरा,
बादलों का था न डेरा,
किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी-
शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
धार से कुछ फासले पर
सिर कफ़न की ओढ चादर
एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
तुम तूफान समझ पाओगे
गीले बादल, पीले रजकण,
सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता ‘हरहर’–इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे?
गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे?
तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ,
नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ,
जाता है अज्ञात दिशा को! हटो विहंगम, उड़ जाओगे!
तुम तूफान समझ पाओगे?
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,
मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता,
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
और मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं–
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
मेघदूत के प्रति
महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में उसका क्या रहता है, सिवा उसकी श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की मंद गति से प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो कर, इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है इसमें भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है — हरिवंशराय बच्चन
“मेघ” जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
‘मेघ-चर’ द्वारा बुलाता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,
मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
महल औ’ प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
और क्रीडो़द्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,
प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला
किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,
अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर
कंठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भांति करता-
‘जा प्रिया के पास ले
संदेश मेरा,बंधु जलधर!
वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शंभु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता’
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
रूप कहता मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर,
किस तरह का है नगर, घर,
किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,
क्या कहूँगा,क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर ना आता
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,
देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित,
कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-
‘इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!’
‘मेघ’ जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
साथी, साँझ लगी अब होने!
फैलाया था जिन्हें गगन में,
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में,
वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल-घरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
गीत मेरे
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,
और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
कह उठे संसार, आया ज्योति का क्षण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब,
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
जग विभामय न तो काली रात मेरी,
मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्रण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
लहर सागर का श्रृंगार नहीं
लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।
गन्ध कलिका का नहीं उदगार,
उसकी विकलता है;
फूल मधुवन का नहीं गलहार,
उसकी विकलता है;
कोकिला का कौन सा व्यवहार,
ऋतुपति को न भाया?
कूक कोयल की नहीं मनुहार,
उसकी विकलता है।
गान गायक का नहीं व्यापार,
उसकी विकलता है;
राग वीणा की नहीं झंकार,
उसकी विकलता है;
भावनाओं का मधुर आधार
सांसो से विनिर्मित,
गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
उसकी विकलता है।
आ रही रवि की सवारी
आ रही रवि की सवारी।
नव-किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी।
आ रही रवि की सवारी।
विहग, बंदी और चारण,
गा रही है कीर्ति-गायन,
छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी।
आ रही रवि की सवारी।
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह-
रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी।
आ रही रवि की सवारी।
चिडिया और चुरूंगुन
छोड़ घोंसला बाहर आया,
देखी डालें, देखे पात,
और सुनी जो पत्ते हिलमिल,
करते हैं आपस में बात;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
डाली से डाली पर पहुँचा,
देखी कलियाँ, देखे फूल,
ऊपर उठकर फुनगी जानी,
नीचे झूककर जाना मूल;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
कच्चे-पक्के फल पहचाने,
खए और गिराए काट,
खने-गाने के सब साथी,
देख रहे हैं मेरी बाट;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
उस तरू से इस तरू पर आता,
जाता हूँ धरती की ओर,
दाना कोई कहीं पड़ा हो
चुन लाता हूँ ठोक-ठठोर;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’
मैं नीले अज्ञात गगन की
सुनता हूँ अनिवार पुकार
कोइ अंदर से कहता है
उड़ जा, उड़ता जा पर मार;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
‘आज सुफल हैं तेरे डैने,
आज सुफल है तेरी काया’
पतझड़ की शाम
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
नीलम-से पल्लव टूट गए,
मरकत-से साथी छूट गए,
अटके फिर भी दो पीत पात
जीवन-डाली को थाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
लुक-छिप करके गानेवाली,
मानव से शरमानेवाली
कू-कू कर कोयल माँग रही
नूतन घूँघट अविराम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
नंगी डालों पर नीड़ सघन,
नीड़ों में है कुछ-कुछ कंपन,
मत देख, नज़र लग जाएगी;
यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे !
है यह पतझड़ की शाम, सखे !
राष्ट्रिय ध्वज
नागाधिराज श्रृंग पर खडी हुई,
समुद्र की तरंग पर अडी हुई,
स्वदेश में जगह-जगह गडी हुई,
अटल ध्वजा हरी,सफेद केसरी!
न साम-दाम के समक्ष यह रुकी,
न द्वन्द-भेद के समक्ष यह झुकी,
सगर्व आस शत्रु-शीश पर ठुकी,
निडर ध्वजा हरी, सफेद केसरी!
चलो उसे सलाम आज सब करें,
चलो उसे प्रणाम आज सब करें,
अजर सदा इसे लिये हुये जियें,
अमर सदा इसे लिये हुये मरें,
अजय ध्वजा हरी, सफेद केसरी!
साजन आए, सावन आया
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
तुफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ’ फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया।
प्रतीक्षा
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता?
मौन रात इस भान्ति कि जैसे, कोइ गत वीणा पर बज कर
अभी अभी सोयी खोयी सी, सपनो में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियां जाग्रत सुधियों सी आती हैं
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले
पर ऎसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले
सांसे घूम-घूम फिर फिर से असमंजस के क्षण गिनती हैं
मिलने की घडियां तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में मैनें पलक पांवडे डाले
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन रह्ता अपने होश सम्हाले
तारों की महफ़िल ने अपनी आंख बिछा दी किस आशा से
मेरी मौन कुटी को आते, तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूं, पगचाप तुम्हारी मग से आती
रग-रग में चेतनता घुलकर, आंसू के कण सी झर जाती
नमक डली सा घुल अपनापन, सागर में घुलमिल सा जाता
अपनी बांहो में भर कर प्रिय, कंठ लगाते तब क्या होता?
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता?
आदर्श प्रेम
प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या
गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गा कर उसे सुनाना क्या
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या
ले लेना सुगंध सुमनों की
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पाश फैलाना क्या
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या
दे कर हृदय हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या
आज फिर से
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
आत्मदीप
मुझे न अपने से कुछ प्यार,
मिट्टी का हूँ, छोटा दीपक,
ज्योति चाहती, दुनिया जब तक,
मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार
पर यदि मेरी लौ के द्वार,
दुनिया की आँखों को निद्रित,
चकाचौध करते हों छिद्रित
मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार
केवल इतना ले वह जान
मिट्टी के दीपों के अंतर
मुझमें दिया प्रकृति ने है कर
मैं सजीव दीपक हूँ मुझ में भरा हुआ है मान
पहले कर ले खूब विचार
तब वह मुझ पर हाथ बढ़ाए
कहीं न पीछे से पछताए
बुझा मुझे फिर जला सकेगी नहीं दूसरी बार
आज़ादी का गीत
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल
चांदी, सोने, हीरे मोती से सजती गुड़िया
इनसे आतंकित करने की घडियां बीत गई
इनसे सज धज कर बैठा करते हैं जो कठपुतले
हमने तोड़ अभी फेंकी हैं हथकडियां
परम्परागत पुरखो की जागृति की फिर से
उठा शीश पर रक्खा हमने हिम-किरीट उजव्व्ल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल
चांदी, सोने, हीरे, मोती से सजवा छाते
जो अपने सिर धरवाते थे अब शरमाते
फूल कली बरसाने वाली टूट गई दुनिया
वज्रों के वाहन अम्बर में निर्भय गहराते
इन्द्रायुध भी एक बार जो हिम्मत से ओटे
छत्र हमारा निर्मित करते साठ-कोटी करतल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल
बहुत दिनों पर
मैं तो बहुत दिनों पर चेता ।
श्रम कर ऊबा
श्रम कण डूबा
सागर को खेना था मुझको रहा शिखर को खेता
मैं तो बहुत दिनों पर चेता ।
थी मत मारी
था भ्रम भारी
ऊपर अम्बर गर्दीला था नीचे भंवर लपेटा
मैं तो बहुत दिनों पर चेता ।
यह किसका स्वर
भीतर बाहर
कौन निराशा कुंठित घडियों में मेरी सुधी लेता
मैं तो बहुत दिनों पर चेता ।
मत पछता रे
खेता जा रे
अन्तिम क्षण में चेत जाए जो वह भी सत्वर चेता
मैं तो बहुत दिनों पर चेता ।
एकांत-संगीत (कविता)
तट पर है तरुवर एकाकी,
नौका है, सागर में,
अंतरिक्ष में खग एकाकी,
तारा है, अंबर में,
भू पर वन, वारिधि पर बेड़े,
नभ में उडु खग मेला,
नर नारी से भरे जगत में
कवि का हृदय अकेला!
ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब
गुलाब
तू बदरंग हो गया है
बदरूप हो गया है
झुक गया है
तेरा मुंह चुचुक गया है
तू चुक गया है ।
ऐसा तुझे देख कर
मेरा मन डरता है
फूल इतना डरावाना हो कर मरता है!
खुशनुमा गुलदस्ते में
सजे हुए कमरे में
तू जब
ऋतु-राज राजदूत बन आया था
कितना मन भाया था-
रंग-रूप, रस-गंध टटका
क्षण भर को
पंखुरी की परतो में
जैसे हो अमरत्व अटका!
कृत्रिमता देती है कितना बडा झटका!
तू आसमान के नीचे सोता
तो ओस से मुंह धोता
हवा के झोंके से झरता
पंखुरी पंखुरी बिखरता
धरती पर संवरता
प्रकृति में भी है सुंदरता
इस पार उस पार
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर ‘भरभर’ न सुने जाएँगे,
अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’, सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभाशुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
जाओ कल्पित साथी मन के
जाओ कल्पित साथी मन के!
जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था,
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
सच, मैंने परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैंने स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो, रहो न बनकर बंदी मेरे भुज-बंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जाओ जग में भुज फैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में जाकर मुझ-से अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जो बीत गई सो बात गयी
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
कवि की वासना
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
१
सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुलाए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
२
विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,
चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;
प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
३
इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,
दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न कोई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
जो पलक पर कर निछावर
थी गई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हुई है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
४
आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;
मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
५
निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विश्व भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
भंग कर देता तपस्या
सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;
शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पाएगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
६
प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन
वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!
अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
७
थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हुई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
८
कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूँ मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?
क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
किस कर में यह वीणा धर दूँ
देवों ने था जिसे बनाया,
देवों ने था जिसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समर्पित कर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
इसने स्वर्ग रिझाना सीखा,
स्वर्गिक तान सुनाना सीखा,
जगती को खुश करनेवाले स्वर से कैसे इसको भर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
क्यों बाकी अभिलाषा मन में,
विकृत हो यह फिर जीवन में?
क्यों न हृदय निर्मम हो कहता अंगारे अब धर इस पर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
कोई गाता मैं सो जाता
संस्रिति के विस्तृत सागर में
सपनो की नौका के अंदर
दुख सुख कि लहरों मे उठ गिर
बहता जाता, मैं सो जाता ।
आँखों में भरकर प्यार अमर
आशीष हथेली में भरकर
कोई मेरा सिर गोदी में रख
सहलाता, मैं सो जाता ।
मेरे जीवन का खाराजल
मेरे जीवन का हालाहल
कोई अपने स्वर में मधुमय कर
बरसाता मैं सो जाता ।
कोई गाता मैं सो जाता
मैं सो जाता
मैं सो जाता
साथी, सब कुछ सहना होगा
साथी, सब कुछ सहना होगा!
मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
जुगनू
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-
- उठी ऐसी घटा नभ में
- छिपे सब चांद औ’ तारे,
- उठा तूफान वह नभ में
- गए बुझ दीप भी सारे,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-
- गगन में गर्व से उठउठ,
- गगन में गर्व से घिरघिर,
- गरज कहती घटाएँ हैं,
- नहीं होगा उजाला फिर,
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जमाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-
- तिमिर के राज का ऐसा
- कठिन आतंक छाया है,
- उठा जो शीश सकते थे
- उन्होनें सिर झुकाया है,
मगर विद्रोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-
- प्रलय का सब समां बांधे
- प्रलय की रात है छाई,
- विनाशक शक्तियों की इस
- तिमिर के बीच बन आई,
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-
- प्रभंजन, मेघ दामिनी ने
- न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
- धरा के और नभ के बीच
- कुछ साबित नहीं छोड़ा,
मगर विश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
-
- प्रलय की रात में सोचे
- प्रणय की बात क्या कोई,
- मगर पड़ प्रेम बंधन में
- समझ किसने नहीं खोई,
किसी के पथ में पलकें बिछाए कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है?
कहते हैं तारे गाते हैं
कोई पार नदी के गाता!
भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन,
सुन कर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!
क्या भूलूं क्या याद करूँ मैं
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनो करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
मेरा संबल
मैं जीवन की हर हल चल में
कुछ पल सुखमय,
अमरण अक्षय,
चुन लेता हूँ।
मैं जग के हर कोलाहल में
कुछ स्वर मधुमय,
उन्मुक्त अभय,
सुन लेता हूँ।
हर काल कठिन के बन्धन से
ले तार तरल
कुछ मुद मंगल
मैं सुधि पट पर
बुन लेता हूँ।
मुझसे चांद कहा करता है
मुझ से चाँद कहा करता है–
चोट कड़ी है काल प्रबल की,
उसकी मुस्कानों से हल्की,
राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है|
मुझ से चाँद कहा करता है–
तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वी-तल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है–
तू अपने दुख में चिल्लाता,
आँखो देखी बात बताता,
तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है–
पथ की पहचान
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले
पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,
अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,
किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,
रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,
रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,
आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
साथी साथ ना देगा दुख भी
काल छीनने दु:ख आता है
जब दु:ख भी प्रिय हो जाता है
नहीं चाहते जब हम दु:ख के बदले चिर सुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
जब परवशता का कर अनुभव
अश्रु बहाना पडता नीरव
उसी विवशता से दुनिया में होना पडता है हंसमुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
इसे कहूं कर्तव्य-सुघरता
या विरक्ति, या केवल जडता
भिन्न सुखों से, भिन्न दुखों से, होता है जीवन का रुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
यात्रा और यात्री
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है;
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना,
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है;
यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
युग की उदासी
.
अकारण ही मैं नहीं उदास
अपने में ही सिकुड सिमट कर
जी लेने का बीता अवसर
जब अपना सुख दुख था, अपना ही उछाह उच्छ्वास
अकारण ही मैं नहीं उदास
अब अपनी सीमा में बंध कर
देश काल से बचना दुष्कर
यह संभव था कभी नही, पर संभव था विश्वास
अकारण ही मैं नहीं उदास
एक सुनहरे चित्रपटल पर
दाग लगाने में है तत्पर
अपने उच्छृंखल हाथों से, उत्पाती इतिहास
अकारण ही मैं नहीं उदास
आज मुझसे बोल बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
तम भरा तू, तम भरा मैं,
ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें, राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
भेद यह मत देख दो पल-
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
साथी सो ना कर कुछ बात
साथी सो न कर कुछ बात।
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में,
अन्त चिर अज्ञात
साथी सो न कर कुछ बात।
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और
आधी रात आधी बात
साथी सो न कर कुछ बात।
तब रोक ना पाया मैं आंसू
जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौडा अपने जीवन-भर,
जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!
जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!
मेरे पूजन-आराधन को
मेरे सम्पूर्ण समर्पण को,
जब मेरी कमज़ोरी कहकर मेरा पूजित पाषाण हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!
तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाये
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
मेरे वर्ण-वर्ण विश्रंखल,
चरण-चरण भरमाए,
गूंज-गूंज कर मिटने वाले
मैनें गीत बनाये;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठो पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैनें कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊं,
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
सुन्दर और असुन्दर जग में
मैनें क्या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूं अब किसकी रुकती है
आ मुझ पर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
दुख से जीवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घडियों में
भी तुमसे यह कहता
सुख की सांस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
आज तुम मेरे लिये हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।
रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मनुष्य की मूर्ति / हरिवंशराय बच्चन
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
रचता मुख जिससे निकली हो
वेद-उपनिषद की वर वाणी,
काव्य-माधुरी, राग-रागिनी
जग-जीवन के हित कल्याणी,
हिंस्र जन्तु के दाढ़ युक्त
जबड़े-सा पर वह मुख बन जाता!
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
रचता कर जो भूमि जोतकर
बोएँ, श्यामल शस्य उगाएँ,
अमित कला कौशल की निधियाँ
संचित कर सुख-शान्ति बढ़ाएँ,
हिस्र जन्तु के नख से संयुत
पंजे-सा वह कर बन जाता!
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
दो पाँवों पर उसे खड़ाकर
बाहों को ऊपर उठवाता,
स्वर्ग लोक को छू लेने का
मानो हो वह ध्येय बनाता,
हाथ टेक धरती के ऊपर
हाय, नराधम पशु बन जाता!
देवलोक से मिट्टी लाकर
मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
हम ऐसे आज़ाद
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल|
चांदी-सोने-हीरे-मोती से सजती गुडियाँ|
इनसे आतंकित करने की बीत गई घडियाँ|
इनसे सज धज बैठा करते जो हैं कठपुतले|
हमने तोड़ अभी फेंकी है बेडी हथकड़ियाँ||
परंपरा गत पुरखों की हमने जाग्रत की फिर से|
उठा शीश पर रक्खा हमने हिम किरीट उज्जवल|
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल||
चांदी-सोने-हीरे-मोती से सजवा छाते|
जो अपने सिर धरवाते थे वे अब शरमाते|
फूलकली बरसाने वाली टूट गई दुनिया|
वज्रों के वाहन अंबर में निर्भय घहराते||
इंद्रायुध भी एक बार जो हिम्मत से ओटे
छत्र हमारा निर्मित करते साठ कोटि करतल
हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल।
उस पार न जाने क्या होगा
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरा लहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती,
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिल सी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वर तालमयी वीणा बजती,
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है,
असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है,
हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की पर-वशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका,
उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर,
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे
तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गा गा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’,
सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं,
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का
श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगी-साथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
रीढ़ की हड्डी
मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार
कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार
एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उदगार विचार
जिनकी जिह्वा पर होता है, उनके अंतर का अंगार
नहीं जिन्हें, चुप कर सकती है, आतताइयों की शमशीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता
ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्यौता
दूर देखती जिनकी पैनी आँख, भविष्यत का तम चीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं
जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी जंजीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर
हर जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर
कूद उदधि में नही पलट कर जो फिर ताका करते तीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल
जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल
जिनके हाथों की चाबुक से चलती हें उनकी तकदीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान
सोच सोच कर, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता तूफ़ान
सत्पथ वह है, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
हिंया नहीं कोऊ हमार!
अस्त रवि
ललौंछ रंजित पच्छिमी नभ;
क्षितिज से ऊपर उठा सिर चल कर के
एक तारा
मद-आभा
उदासी जैसे दबाए हुए अंदर
आर्द्र नयनों मुस्कराता,
एक सूने पथ पर
चुपचाप एकाकी चले जाते
मुसाफिर को कि जैसे कर रहा हो कुछ इशारा
जिंदगी का नाम
यदि तुम दूसरा पूछो,
मुझे
‘संबंध’ कहते
कुछ नहीं संकोच होगा।
किंतु मैं पूछूँ
कि सौ संबंध रखकर
है कहीं कोई
नहीं जिसने किया महसूस
वह बिल्कुल अकेला है कहीं पर?
जिस ‘कहीं’ में
पूर्णत: सन्नाहित है
व्यक्तित्व और अस्तित्व उसका।
और ऐसी कूट एकाकी क्षणों में
क्या हृदय को चीर कर के
है नहीं फूटा कभी आह्वान यह अनिवार
“उड़ी चलो हँसा और देस,
हिंया नहीं कोऊ हमार!
और क्या
इसकी प्रतिध्वनि
नहीं उसको दी सुनाई
इस तरह की सांध्य तारे से कि जो अब
कालिमा में डूबती ललौंछ में
सिर को छिपाए
माँगता साँप बसेरा
पच्छिमी निद्रित क्षितिज से झुक
नितांत एकांत-प्रेरा?
एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,
जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,
जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,
और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,
घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,
“जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।”
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,
किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,
आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,
उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।
हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,
उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
जीवन का दिन बीत चुका था छाई थी जीवन की रात
[सुभाष बोस के प्रति]
जीवन का दिन बीत चुका था,
छाई थी जीवन की रात,
किंतु नहीं मैंने छोड़ी थी
आशा-होगा पुनः प्रभात।
काल न ठंडी कर पाया था,
मेरे वक्षस्थल की आग,
तोम तिमिर के प्रति विद्रोही
बन उठता हर एक चिराग़।
मेरे आँगन के अंदर भी,
जल-जलकर प्राणों के दीप,
मुझ से यह कहते रहते थे,
“मां, है प्रातःकाल समीप!”
किंतु प्रतीक्षा करते हारा
एक दिया नन्हा-नादान,
बोला, “मां, जाता मैं लाने
सूरज को धर उसके कान!”
औ’ मेरा वह वातुल, चंचल
मेरा वह नटखट नादान,
मेरे आँगन को कर सूना
हाय, हो गया अंतर्धान।
और, नियति की चाल अनोखी,
आया फिर ऐसा तूफ़ान,
जिसने कर डाला कितने ही
मेरे दीपों का अवसान।
हर बल अपने को बिखराकर,
होता शांत, सभी को ज्ञात,
मंद पवन में ही परिवर्तित
हो जाता हर झंझावात।
औ’, अपने आँगन के दीपों
को फिर आज रही मैं जोड़,
अडिग जिन्होंने रहकर ली थी
भीषण झंझानिल से होड़।
बिछुड़े दीपक फिर मिलते हैं,
मिलकर मोद मनाते हैं,
किसने क्या झेला, क्या भोगा
आपस में बतलाते हैं।
किन्तु नहीं लौटा है अब तक
मेरा वह भोला, अनजान
दीप गया था जो प्राची को
लाने मेरा स्वर्ण विहान।
हो गयी मौन बुलबुले-हिंद
[सरोजिनी नायडू की मृत्यु पर]
हो गई मौन बुलबुले-हिंद!
मधुबन की सहसा रुकी साँस,
सब तरुवर-शाखाएँ उदास,
अपने अंतर का स्वर खोकर
बैठे हैं सब अलि विहग-वृंद!
चुप हुई आज बुलबुले-हिन्द!
स्वर्गिक सुख-सपनों से लाकर
नवजीवन का संदेश अमर
जिसने गाया था जीवन भर
मधु ऋतु की जाग्रत वेला में
कैसे उसका संगीत बन्द!
सो गई आज बुलबुले-हिन्द!
पंछी गाने पर बलिहारी,
पर आज़ादी ज़्यादा प्यारी,
बंदी ही हैं जो संसारी,
तन के पिंजड़े को रिक्त छोड़
उड़ गया मुक्त नभ में परिंद!
उड़ गई आज बुलबुले-हिंद!
गर्म लोहा
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
सख्त पंजा, नस कसी चौड़ी कलाई
और बल्लेदार बाहें,
और आँखें लाल चिंगारी सरीखी,
चुस्त औ तीखी निगाहें,
हाँथ में घन, और दो लोहे निहाई
पर धरे तू देखता क्या?
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
भीग उठता है पसीने से नहाता
एक से जो जूझता है,
ज़ोम में तुझको जवानी के न जाने
खब्त क्या क्या सूझता है,
या किसी नभ देवता नें ध्येय से कुछ
फेर दी यों बुद्धि तेरी,
कुछ बड़ा, तुझको बनाना है कि तेरा इम्तहां होता कड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
एक गज छाती मगर सौ गज बराबर
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिये जो कुछ
तजुर्बेकार लोगों नें कही है;
स्वप्न से लड़ स्वप्न की ही शक्ल में है
लौह के टुकड़े बदलते
लौह का वह ठोस बन कर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
घन हथौड़े और तौले हाँथ की दे
चोट, अब तलवार गढ तू
और है किस चीज की तुझको भविष्यत
माँग करता आज पढ तू,
औ, अमित संतान को अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर
वह अजित संसार में है शब्द का खर खड्ग ले कर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
टूटा हुआ इंसान
(मुक्तिबोध का शव देखने की स्मृति)*
…और उसकी चेतना जब जगी
मौजों के थपेड़े लग रहे थे,
आर-पार-विहीन पारावार में
वह आ पड़ा था,
किंतु वह दिल का कड़ा था।
फाड़ कर जबड़े हड़पने को
तरंगो पर तरंगे उठ रही थीं,
फेन मुख पर मार कर अंधा बनातीं,
बधिर कर, दिगविदारी
क्रूर ध्वनियों में ठठाती
और जग की कृपा, करुण सहायता-संवेदना से दूर
चारो ओर के उत्पात की लेती चुनौती
धड़कती थी एक छाती।
और दोनों हाँथ
छाती से सटाये हुए थे
कुछ बिम्ब, कुछ प्रतिबिम्ब, कुछ रूपक अनोखे
शब्द कुछ, कुछ लयें नव जन्मी, अनूठी-
ध्वस्त जब नौका हुई थी
वह इन्ही को बचा लाया था
समझ अनमोल थाती!
और जब प्लावन-प्रलय का सामना हो
कौन संबल कौन साथी!
इन तरंगों, लहर, भँवरो के समर में
टूटना ही, डूबना ही था उसे
वह टूट कर डूबा, मगर
कुछ बिम्ब, कुछ प्रतिबिम्ब, कुछ रूपक अनोखे
आज भी उतरा रहे हैं
और उसके साहसी अभियान की
सहसा उठे तूफान की
टूटे हुए जलयान की
जल और नभ में ठने रन घमासान में
टूटे हुए इंसान की
गाथा सुनाते जा रहे हैं।
- मुक्तिबोध की मृत्यु का समाचार सुबह पत्र में पढ कर मैं अस्पताल पहुँचा। एक कर्मचारी नें एक कमरे का ताला खोल कर मुझे उनकी लाश दिखायी जो वहाँ अकेली एक नीली चादर में लिपटी पड़ी थी। कमरे से बाहर निकलते हुए मेरी दृष्टि दरवाजे पर गई, उस पर लिखा था – ‘ट्वायलेट’ – हरिवंश राय बच्चन।
-
मौन और शब्द
- एक दिन मैंने
मैन में शब्द को धँसाया था
और एक गहरी पीड़ा,
एक गहरे आनंद में,
सन्निपात-ग्रस्त सा,
विवश कुछ बोला था;
सुना, मेरा वह बोलना
दुनिया में काव्य कहलाया था।
आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,
अब न पीड़ा है न आनंद है
विस्मरण के सिन्धु में
डूबता-सा जाता हूँ,
देखूँ,
तह तक
पहुँचने तक,
यदि पहुँचता भी हूँ,
क्या पाता हूँ। -
शहीद की माँ
- इसी घर से
एक दिन
शहीद का जनाज़ा निकला था,
तिरंगे में लिपटा,
हज़ारों की भीड़ में।
काँधा देने की होड़ में
सैकड़ो के कुर्ते फटे थे,
पुट्ठे छिले थे।
भारत माता की जय,
इंकलाब ज़िन्दाबाद,
अंग्रेजी सरकार मुर्दाबाद
के नारों में शहीद की माँ का रोदन
डूब गया था।
उसके आँसुओ की लड़ी
फूल, खील, बताशों की झडी में
छिप गई थी,
जनता चिल्लाई थी-
तेरा नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा।
गली किसी गर्व से
दिप गई थी।
इसी घर से
तीस बरस बाद
शहीद की माँ का जनाजा निकला है,
तिरंगे में लिपटा नहीं,
(क्योंकि वह ख़ास-ख़ास
लोगों के लिये विहित है)
केवल चार काँधों पर
राम नाम सत्य है
गोपाल नाम सत्य है
के पुराने नारों पर;
चर्चा है, बुढिया बे-सहारा थी,
जीवन के कष्टों से मुक्त हुई,
गली किसी राहत से
छुई छुई। -
क़दम बढाने वाले: कलम चलाने वाले
- अगर तुम्हारा मुकाबला
दीवार से है,
पहाड़ से है,
खाई-खंदक से,
झाड़-झंकाड़ से है
तो दो ही रास्ते हैं-
दीवार को गिराओ,
पहाड़ को काटो,
खाई-खंदक को पाटो,
झाड़-झंकाड़ को छांटो, दूर हटाओ
और एसा नहीं कर सकते-
सीमाएँ सब की हैं-
तो उनकी तरफ पीठ करो, वापस आओ।
प्रगति एक ही राह से नहीं चलती है,
लौटने वालों के साथ भी रहती है।
तुम कदम बढाने वालों में हो
कलम चलाने वालो में नहीं
कि वहीं बैठ रहो
और गर्यवरोध पर लेख-पर-लेख
लिखते जाओ। -
एक नया अनुभव
- मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूँ।
चिड़िया नें मुझ से पूछा, ‘तुम्हारे शब्दों में
मेरे परों की रंगीनी है?’
मैंने कहा, ‘नहीं’।
‘तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?’
‘नहीं।’
‘तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?’
‘नहीं।’
‘जान है?’
‘नहीं।’
‘तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?’
मैनें कहा, ‘पर तुमसे मुझे प्यार है’
चिड़िया बोली, ‘प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?’
एक अनुभव हुआ नया।
मैं मौन हो गया! -
दो पीढियाँ
- मुंशी जी तन्नाए
पर जब उनसे कहा गया,
ऎसा जुल्म और भी सह चुके हैं
तो चले गए दुम दबाए।
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मुंशी जी के लड़के तन्नाए,
पर जब उनसे कहा गया,
ऎसा ज़ुल्म औरों पर भी हुआ है
तो वे और भी तन्नाए। -
क्यों जीता हूँ
- आधे से ज़्यादा जीवन
जी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ-
क्यों जीता हूँ?
लेकिन एक सवाल अहम
इससे भी ज़्यादा,
क्यों मैं ऎसा सोच रहा हूँ?
संभवत: इसलिए
कि जीवन कर्म नहीं है अब
चिंतन है,
काव्य नहीं है अब
दर्शन है।
जबकि परीक्षाएँ देनी थीं
विजय प्राप्त करनी थी
अजया के तन मन पर,
सुन्दरता की ओर ललकना और ढलकना
स्वाभाविक था।
जबकि शत्रु की चुनौतियाँ बढ कर लेनी थी।
जग के संघर्षों में अपना
पित्ता पानी दिखलाना था,
जबकि हृदय के बाढ़ बवंड़र
औ’ दिमाग के बड़वानल को
शब्द बद्ध करना था,
छंदो में गाना था,
तब तो मैंने कभी न सोचा
क्यों जीता हूँ?
क्यों पागल सा
जीवन का कटु मधु पीता हूँ?
आज दब गया है बड़वानल,
और बवंडर शांत हो गया,
बाढ हट गई,
उम्र कट गई,
सपने-सा लगता बीता है,
आज बड़ा रीता रीता है
कल शायद इससे ज्यादा हो
अब तकिये के तले
उमर ख़ैय्याम नहीं है,
जन गीता है। -
कौन मिलनातुर नहीं है ?
-
आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरन्तर पूछती है,
कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप,
और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा शान्त ?
कौन मिलनातुर नहीं है ?
गगन की निर्बन्ध बहती वायु प्रति पल पूछती है,
कब गिरेगी, टूट, तेरी देह की दीवार,
और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा मुक्त ?
कौन मिलनातुर नहीं है ?
सर्व व्यापी विश्व का व्यक्तित्व प्रति क्षण पूछता है,
कब मिटेगा, बोल, तेरे अहं का अभिमान,
और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा पूर्ण ?
कौन मिलनातुर नहीं है ? -
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे
वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता,
शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें,
इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल – कंपन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण!
विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है,
इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके–
इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है,
क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो?
देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का
भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का,
बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह,
किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का,
विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने,
त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।
जिस तरह मरु के हृदय में, है कहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस-पवन में, है पपीहे का छिपा स्वर
जिस तरह से अश्रु-आहों से, भरी कवि की निशा में
नींद की परियाँ बनातीं, कल्पना का लोक सुखकर
सिंधु के इस तीव्र हाहाकार ने, विश्वास मेरा,
है छिपा रक्खा कहीं पर, एक रस-परिपूर्ण गायन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण
नेत्र सहसा आज मेरे, तम-पटल के पार जाकर
देखते हैं रत्न-सीपी से, बना प्रासाद सुन्दर
है खड़ी जिसमें उषा ले, दीप कुंचित रश्मियों का,
ज्योति में जिसकी सुनहरली, सिंधु कन्याएँ मनोहर
गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा, बनाकर गान करतीं
और करतीं अति अलौकिक, ताल पर उन्मत्त नर्तन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
मौन हो गंधर्व बैठे, कर श्रवण इस गान का स्वर,
वाद्य-यंत्रों पर चलाते, हैं नहीं अब हाथ किन्नर,
अप्सराओं के उठे जो, पग उठे ही रह गए हैं,
कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक, साथ देवों के पुरन्दर
एक अद्भुत और अविचल, चित्र-सा है जान पड़ता,
देव बालाएँ विमानों से, रहीं कर पुष्प-वर्णन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
दीर्घ उर में भी जलधि के, हैं नहीं खुशियाँ समाती,
बोल सकता कुछ न उठती, फूल वारंवार छाती,
हर्ष रत्नागार अपना, कुछ दिखा सकता जगत को,
भावनाओं से भरी यदि, यह फफककर फूट जाती,
सिन्धु जिस पर गर्व करता, और जिसकी अर्चना को
स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके, प्रति करे कवि अर्घ्य अर्पण।
तीर पर कैसे रुकूँ में, आज लहरों में निमंत्रण!
आज अपने स्वप्न को मैं, सच बनाना चाहता हूँ,
दूर की इस कल्पना के, पास जाना चाहता हूँ,
चाहता हूँ तैर जाना, सामने अंबुधि पड़ा जो,
कुछ विभा उस पार की, इस पार लाना चाहता हूँ,
स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर, देख उनसे दूर ही था,
किन्तु पाऊँगा नहीं कर आज अपने पर नियंत्रण।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण,
लौट आया यदि वहाँ से, तो यहाँ नव युग लगेगा,
नव प्रभाती गान सुनकर, भाग्य जगती का जगेगा,
शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी, सरल चैतन्यता में,
यदि न पाया लौट, मुझको, लाभ जीवन का मिलेगा,
पर पहुँच ही यदि न पाया, व्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?
कर सकूँगा विश्व में फिर भी नए पथ का प्रदर्शन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
स्थल गया है भर पथों से, नाम कितनों के गिनाऊँ,
स्थान बाकी है कहाँ पथ, एक अपना भी बनाऊँ?
विश्व तो चलता रहा है, थाम राह बनी-बनाई
किंतु इनपर किस तरह मैं, कवि-चरण अपने बढ़ाऊँ?
राह जल पर भी बनी है, रूढ़ि, पर, न हुई कभी वह,
एक तिनका भी बना सकता, यहाँ पर मार्ग नूतन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
देखता हूँ आँख के आगे नया यह क्या तमाशा –
कर निकलकर दीर्घ जल से हिल रहा करता मना-सा,
है हथेली-मध्य चित्रित नीर मग्नप्राय बेड़ा!
मैं इसे पहचानता हूँ, हैं नहीं क्या यह निराशा?
हो पड़ी उद्दाम इतनी, उर-उमंगे, अब न उनको
रोक सकता भय निराशा का, न आशा का प्रवंचन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
पोत अगणित इन तरंगों ने, डुबाए मानता मैं,
पार भी पहुँचे बहुत-से, बात यह भी जानता मैं,
किन्तु होता सत्य यदि यह भी, सभी जलयान डूबे,
पार जाने की प्रतिज्ञा आज बरबस ठानता मैं,
डूबता मैं, किंतु उतराता सदा व्यक्तित्व मेरा
हों युवक डूबे भले ही है कभी डूबा न यौवन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
आ रहीं प्राची क्षितिज से खींचने वाली सदाएँ,
मानवों के भाग्य-निर्णायक सितारों! दो दुआएँ,
नाव, नाविक, फेर ले जा, हैं नहीं कुछ काम इसका,
आज लहरों से उलझने को फड़कती हैं भुजाएँ
प्राप्त हो उस पार भी इस पार-सा चाहे अंधेरा,
प्राप्त हो युग की उषा चाहे लुटाती नव किरन-धन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
क्यों पैदा किया था?
ज़िन्दगी और ज़माने की
कशमकश से घबराकर
मेरे बेटे मुझसे पूछते हैं कि
हमें पैदा क्यों किया था?
और मेरे पास इसके सिवाय
कोई जवाब नहीं है कि
मेरे बाप ने मुझसे बिना पूछे
मुझे क्यों पैदा किया था?
और मेरे बाप को उनके
बाप ने बिना पूछे उन्हें और
उनके बाबा को बिना पूछे उनके
बाप ने उन्हें क्यों पैदा किया था?
ज़िन्दगी और ज़माने की
कशमकश पहले भी थी,
आज भी है शायद ज्यादा…
कल भी होगी, शायद और ज्यादा…
तुम ही नई लीक रखना,
अपने बेटों से पूछकर
उन्हें पैदा करना।
बच्चन की बाल कविताएँ
चिड़िया का घर
चिड़िया, ओ चिड़िया,
कहाँ है तेरा घर?
उड़-उड़ आती है
जहाँ से फर-फर!
चिड़िया, ओ चिड़िया,
कहाँ है तेरा घर?
उड़-उड़ जाती है-
जहाँ को फर-फर!
वन में खड़ा है जो
बड़ा-सा तरुवर,
उसी पर बना है
खर-पातों वाला घर!
उड़-उड़ आती हूँ
वहीं से फर-फर!
उड़-उड़ जाती हूँ
वहीं को फर-फर!
सबसे पहले
आज उठा मैं सबसे पहले!
सबसे पहले आज सुनूँगा,
हवा सवेरे की चलने पर,
हिल, पत्तों का करना ‘हर-हर’
देखूँगा, पूरब में फैले बादल पीले,
लाल, सुनहले!
आज उठा मैं सबसे पहले!
सबसे पहले आज सुनूँगा,
चिड़िया का डैने फड़का कर
चहक-चहककर उड़ना ‘फर-फर’
देखूँगा, पूरब में फैले बादल पीले,
लाल सुनहले!
आज उठा मैं सबसे पहले!
सबसे पहले आज चुनूँगा,
पौधे-पौधे की डाली पर,
फूल खिले जो सुंदर-सुंदर
देखूँगा, पूरब में फैले बादल पीले?
लाल, सुनहले
आज उठा मैं सबसे पहले!
सबसे कहता आज फिरूँगा,
कैसे पहला पत्ता डोला,
कैसे पहला पंछी बोला,
कैसे कलियों ने मुँह खोला
कैसे पूरब ने फैलाए बादल पीले,
लाल, सुनहले!
आज उठा मैं सबसे पहले!
काला कौआ
उजला-उजला हंस एक दिन
उड़ते-उड़ते आया,
हंस देखकर काला कौआ
मन ही मन शरमाया।
लगा सोचने उजला-उजला
मैं कैसे हो पाऊँ-
उजला हो सकता हूँ
साबुन से मैं अगर नहाऊँ।
यही सोचता मेरे घ्ज्ञर पर
आया काला कागा,
और गुसलखाने से मेरा
साबुन लेकर भागा।
फिर जाकर गड़ही पर उसने
साबुन खूब लगाया,
खूब नहाया, मगर न अपना
कालापन धो पाया।
मिटा न उसका कालापन तो
मन ही मन पछताया,
पास हंस के कभी न फिर वह
काला कौआ आया।