उतारी जाए
अब हथेली न पसारी जाए.
धार पर्वत से उतारी जाए.
अपनी जेबो में भरे जो पानी
उसकी गर्दन पे कटारी जाए.
अब वो माहौल बनाओ, चलके
प्यास तक जल की सवारी जाए
झूठ इतिहास लिखा था जिनने
भूल उनसे ही सुधारी जाए..
कोई हस्ती हो गुनाहोंवाली
कटघरे बीच पुकारी जाए.
उनसे कह दो कि खिसक मंचों से
साथ बन्दर का मदारी जाए
तोड़ दो हाथ दुशासनवाले
द्रौपदी अब न उघारी जाए..
मुक्तिकाएँ लिखें
मुक्तिकाएँ लिखें
मुक्तिकाएँ लिखें
दर्द गायें लिखें..
हम लिखें धूप भी
हम घटाएँ लिखें..
हास की अश्रु की
सब छटाएँ लिखें..
बुद्धि की छाँव में
भावनाएँ लिखें..
सत्य के स्वप्न सी
कल्पनाएँ लिखें..
आदमी की बड़ी
लघुकथाएँ लिखें..
सूचनाएँ नहीं
सर्जनाएँ लिखें..
भव्य भवितव्य की
भूमिकाएँ लिखें..
पीढ़ियों के लिए
प्रार्थनाएँ लिखें..
केंद्र में रख मनुज
मुक्तिकाएँ लिखें..
छंद की अवधारणा
छंद की अवधारणा
फूल में जैसे बसी है गंध की अवधारणा.
गीत में वैसे रही लय छंद की अवधारणा..
एक तितली चुम्बनों ही चुम्बनों में ले गयी.
फूल से फल तक मधुर मकरंद की अवधारणा..
जीव ईश्वर का अनाविल नित्य चेतन अंश है.
द्वन्द से होती प्रगट निर्द्वन्द की अवधारणा..
एक रचनाकार तो स्थितप्रज्ञ होता है उसे
आँसुओं में भी मिली आनंद की अवधारणा..
प्यार से ही स्पष्ट होती है, अघोषित अनलिखे
और अनहस्ताक्षरित अनुबंध की अवधारणा..
प्रेम में सात्विक समर्पण के सहज सुख से पृथक.
अन्य कुछ होती न ब्रम्हानंद की अवधारणा..
मुक्तिका मेरी पढ़ी हो तो निवेदन है लिखें
क्या बनी सामान्य पाठक वृन्द की अवधारणा..
अक्षरों की अर्चना
. अक्षरों की अर्चना
आयु भर हम अक्षरों की अर्चना करते रहें.
छंद में ही काव्य की नव सर्जना करते रहें..
स्वर मिले वह साँस को, हर कथ्य जो गाकर कहे.
ज़िंदगी के सुख-दुखों की व्यंजना करते रहें..
वक्ष का रस-स्रोत सूखे दिग्दहन में भी नहीं.
नित्य नीरा वेदना की वन्दना करते रहें..
जो भविष्यत् में कभी भी ठोस रूपाकार ले.
सत्य के उस स्वप्न की हम कल्पना करते रहें..
रम्य प्रियदर्शी रहे, हो रूप में रति भी सहज.
प्रेम हो शुचि काम्य जिसकी कामना करते रहें..
दे नयी उद्भावनाएँ, प्राण ऊर्जस्वित रखे.
हम प्रणत हो प्रेरणा की प्रार्थना करते रहें..
सत्य-शिव-सुंदर हमारी लेखनी का लक्ष्य हो.
श्रेष्ठ मूल्यों की सतत संस्थापना करते रहें..
युद्ध से निरपेक्ष मत को विश्व-अनुमोदन मिले,
मानवी कल्याण की प्रस्तावना करते रहें..
गज़ल हो गई
गज़ल हो गई
याद आयी, तबीयत विकल हो गई.
आँख बैठे बिठाये सजल हो गई.
भावना ठुक न मानी, मनाया बहुत
बुद्धि थी तो चतुर पर विफल हो गई.
अश्रु तेजाब बनकर गिरे वक्ष पर.
एक चट्टान थी वह तरल हो गई.
रूप की धूप से दृष्टि ऐसी धुली.
वह सदा को समुज्ज्वल विमल हो गई.
आपकी गौरवर्णा वदन-दीप्ति से
चाँदनी साँवली थी, धवल हो गई.
मिल गये आज तुम तो यही जिंदगी
थी समस्या कठिन पर सरल हो गई.
खूब मिलता कभी था सही आदमी
मूर्ति अब वह मनुज की विरल हो गई.
सत्य-शिव और सौंदर्य के स्पर्श से
हर कला मूल्य का योगफल हो गई.
रात अंगार की सेज सोना पड़ा
यह न समझें कि यों ही गज़ल हो गई.