हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
अँधेरा जिस्म में नाख़ून होता
ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
मेरे अंदर उतर जाता तो सोता
हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है
कोई इस तरह से पैदा न होता
बस अब इक़रार को ओढ़ो बिछाओ
न होते ख़्वार जो इंकार होता
सलीबों में टंगे भी आदमी है
अगर उन को भी ख़ुद से प्यार होता
इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था
इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था
गुम-सुम रौशन-दानो बोलो क्या तुम ने कुछ देखा था
अँधे घर में हर जानिब से बद-रूहों की यूरिश थी
बिजली जलने से पहले तक वो सब थीं मैं तनहा था
मुझ से चौथी बेंच के ऊपर कल शब जो दो साए थे
जाने क्यूँ ऐसा लगता है इक तेरे साए सा था
सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है
पहले नीचा था तो ऊँचे मीनारों पर बैठा था
माज़ी की नीली छतरी पर यादों के अँगारे थे
ख़्वाहिश के पीले पत्तों पर गिरने का डर बैठा था
दिल ने घंटों की धड़कन लम्हों में पूरी कर डाली
वैसे अनजानी लड़की ने बस का टाइम पूछा था
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
इक पल झूटी तस्कीं पा कर सारी रात गँवाए कौन
ये तनहाई से सन्नाटा दिल को मगर समझाए कौन
इतनी भयानक रात में आख़िर मिलने वाला आए कौन
सुनते हैं के इन राहों में मजनूँ और फ़रहाद लुटे
लेकिन अब आधे रस्ते से लौट के वापस जाए कौन
सुनते समझते हों तो उन से कोई अपनी बात कहे
गूँगों और बहरों के आगे ढोल बजाने जाए कौन
उस महफिल में लोग हैं जितने सब को अपना रोना है
‘ताबिश’ मैं खामोश-तबीअत मेरा हाल सुनाए कौन
ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो
ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो
जलती सड़कों पे नंग पाँव फिरो
रात को फिर निगल गया सूरज
शाम तक फिर इधर-उधर भटको
शर्म पेशानियों पे बैठी है
घर से निकलो तो सर झुकाए रहो
माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर
कुछ दिनों में कुछ न माँग कर देखो
जिस से मिलते हो काम होता है
बे-ग़रज़ भी कभी किसी से मिलो
दर-ब-दर ख़ाक उड़ाई है दिन भर
घर भी जाना है हाथ मुँह धो लो
मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ
मैं उस के ख़्वाब में कब जा के देख पाया हूँ
है और कोई वहाँ पर के मैं ही तन्हा हूँ
तुम्हें ख़बर है घरोंदों से खेलते बच्चो
मैं तुम में अपना गया वक़्त देख लेता हूँ
तुम उस किनारे खड़े हो बुला रहे हो मुझे
यक़ीं करो के मैं उस ओर से ही आया हूँ
वो अपने गाँव से कल ही तो शहर आया है
वो बात बात पे हँसता है मैं लरज़ता हूँ
वो कह रहै हैं रिवायत का एहतिराम करो
मैं अपनी नाश की बद-बू से भागा फिरता हूँ
रवायतन मैं उसे चाँद कह तो दूँ ‘ताबिश’
कहीं वो ये न समझ ले के मैं बनाता हूँ
न कर शुमार हर शय गिनी नहीं जाती
न कर शुमार हर शय गिनी नहीं जाती
ये जिंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती
ये नर्म लहजा ये रंगीनी-ए-बयाँ ये ख़ुलूस
मगर लड़ाई तो ऐसे लड़ी नहीं जाती
सुलगते दिन में थी बाहर बदन में शब को रही
बिछड़ के मुझ से बस इक तीरगी नहीं जाती
नक़ाब डाल दो जलते उदास सूरज पर
अँधेरे जिस्म में क्यूँ रोशनी नहीं जाती
हर एक राह सुलगते हुए मनाज़िर हैं
मगर ये बात किसी से कही नहीं जाती
मचलते पानी में ऊँचाई की तलाश फ़ुजूल
पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती