बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया
बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया
हर एक संग से यूँ हम ने इस्तिफ़ादा किया
है यूँ कि कुछ तो बग़ावत-सरिश्त हम भी हैं
सितम भी उस ने ज़रूरत से कुछ ज़ियादा किया
हमें तो मौत भी दे कोई कब गवारा था
ये अपना क़त्ल तो बिल-क़स्द बिल-इरादा किया
बस एक जान बची थी छिड़क दी राहों पर
दिल-ए-ग़रीब ने इक एहतिमाम सादा किया
जो जिस जगह के था क़ाबिल उसे वहीं रक्खा
न ज़ियादा कम किया हम ने न कम ज़ियादा किया
बचा लिया है जो सर अपना सख़्त नादिम हैं
मगर ये अपान तहफ़्फ़ुज़ तो बे-इरादा किया
न लौटने का है रस्ता न ठहरने की है जा
किधर का आज जुनूँ ने मिरे इरादा किया
दीवार ओ दर में सिमटा इक लम्स काँपता है
दीवार ओ दर में सिमटा इक लम्स काँपता है
भूले से कोई दस्तक दे कर चला गया है
सब्र ओ शकेब बाक़ी ताब ओ तवाँ सलामत
दिल मिस्ल-ए-ऊद जल जल ख़ुशबू बिखेरता है
हम ख़ाक हो चुके थे अपनी ही हिद्दतों में
मिट्टी है राख फिर से पैकर नया बना है
इक ज़ख़्म ज़ख़्म चेहरा टुकड़ों में हाथ आया
और हम समझ रहे थे आईना जुड़ गया है
सहरा-ए-नीम-शम में बे-आस रेतों पर
दिन भर के किश्त ओ ख़ूँ का मारा तड़प रहा है
दहश्त-ज़दा ज़मीं पर वहशत भरे मकाँ ये
इस शहर-ए-बे-अमाँ का आख़िर कोई ख़ुदा है
मिल जाए आबलों को दाद-ए-मुसाफ़िरत अब
अब दर्द-ए-बे-नवाई कुछ हद से भी सिवा है
हम पर तो खुल चुका भी दर बंद हर बला का
क्या जानिए अजल को अब इंतिज़ार क्या है
गुल-चीनियों का हम से ‘बिल्क़ीस’ हाल पूछो
अंगुश्त-ए-आरज़ू में काँटा उतर गया है
एक आलम है ये हैरानी का जीना कैसा
एक आलम है ये हैरानी का जीना कैसा
कुछ नहीं होने को है अपना ये होना कैसा
ख़ून जमता सा रग ओ पै में हुए शल एहसास
देखे जाती है नज़र हौल तमाशा कैसा
रेगज़ारों में सराबों के सिवा क्या मिलता
ये तो मालूम था है अब ये अचम्भा कैसा
आबले पाँव के सब फूट रहे बे-निश्तर
रास आया हमें इन ख़ारों पे चलना कैसा
फिर कभी सोचेंगे सच क्या है अभी तो सुन लें
लोग किस किस के लिए कहते हैं कैसा कैसा
सूई आँखों की भी मैं ने ही निकाली थी मगर
देख के भी मुझे उस ने नहीं देखा कैसा
कितनी सादा थी हथेली मिरी रंगीन हुई
मेरी उँगली में उतर आया है काँटा कैसा
आईना देखिए ‘बिल्क़ीस’ यही हैं क्या आप
आप ने अपना बना रक्खा है हुलिया कैसा
हमारी जागती आँखों में ख़्वाब सा क्या था
हमारी जागती आँखों में ख़्वाब सा क्या था
घनेरी शब में उगा आफ़्ताब सा क्या था
कहीं हुई तो थी हलचल कहीं पे गहरे में
बिगड़ बिगड़ के वो बनता हबाब सा क्या था
तमाम जिस्म में होती हैं लरज़िशें क्या क्या
सवाद-ए-जाँ में ये बजता रबाब सा क्या था
हमारी प्यास पे बरसा अंधेरे उजियाले
वो कुछ घटाओं सा कुछ माहताब सा क्या था
ज़रा सी देर भी रूकता तो कुछ पता चलता
वो रंग था कि थी ख़ुशबू सहाब सा क्या था
ये तिश्नगी का सफ़र कट गया है जिस के तुफ़ैल
वो दश्त दश्त छलकता सराब सा क्या था
तमाम उम्र खपाया है जिस में सर ‘बिल्क़ीस’
भला वो बे-सर-ओ-पा सी किताब सा क्या था
जाने क्या कुछ है आज होने को
जाने क्या कुछ है आज होने को
जी मिरा चाहता है रोने को
एक उम्र और हाथ क्या आया
ज़िंदगी क्या मिली थी खोने को
आबलों से पट पड़े हैं हम
कोई निश्तर भी दे चुभोने को
दीदा-ए-तर भी आज खो आए
उस के आगे गए थे रोने को
रेत मुट्ठी में भर के बैठे हैं
हाथ में कुछ रहे तो खोने को
अपनी हस्ती का हाल क्या कहिए
हम हुए आह कुछ न होने को
कितने सादा हैं हम कि बैठे हैं
दाग़-ए-दिल आँसुओं से धोने को
कब एक रंग में दुनिया का हाल ठहरा है
कब एक रंग में दुनिया का हाल ठहरा है
ख़ुशी रूकी है न कोई मलाल ठहरा है
तड़प रहे हैं पड़े रोज़ ओ शब में उलझे लोग
नफ़स नफ़स कोई पेचीदा जाल ठहरा है
ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
उलझ उलझ के मिरा हर सवाल ठहरा है
बस इक खंडर मिरे अंदर जिए ही जाता है
अजीब हाल है माज़ी में हाल ठहरा है
कभी नहीं था न अब है ख़याल-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
वही तो होगा जो अपना मआल ठहरा है
उसे एक बात को गुज़रे ज़माना बीत गया
मगर दिलों में अभी तक मलाल ठहरा है
जुनूँ के साए में अब घर बना लिया दिल ने
चलो कहीं तो वो आवारा-हाल ठहरा है
बड़े कमाल का निकला वो आदमी ‘बिल्क़ीस’
कि बे-हुनर है मगर बा-कमाल ठहरा है