आगही सूद-ओ-ज़ियाँ की कोई मुश्किल भी नहीं
आगही सूद-ओ-ज़ियाँ की कोई मुश्किल भी नहीं
हासिल-ए-उम्र मगर उम्र का हासिल भी नहीं
आँख उठाओ तो हिजाबात का इक आलम है
दिल से देखो तो कोई राह में हाइल भी नहीं
दिल तो क्या जाँ से भी इंकार नहीं है लेकिन
दिल है बदनाम बहुत फिर तिरे क़ाबिल भी नहीं
उल्झनें लाख सही ज़ीस्त में लेकिन यारो
रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ नज़्र-ए-मसाइल भी नहीं
तेरे दीवाने ख़ुदा जाने कहाँ जा निकले
देर से दश्त में आवाज़-ए-सलासिल भी नहीं
दर्द की आँच बना देती है दिल को इक्सीर
दर्द से दिल है अगर दर्द नहीं दिल भी नहीं
ग़ौर से देखो तो ये ज़ीस्त है ज़ख़्मों का चमन
और ‘जावेद’ ब-ज़ाहिर कोई घाइल भी नहीं
चाँद तारों की भरी बज़्म उठी जाती है
चाँद तारों की भरी बज़्म उठी जाती है
अब तो आ जाओ हसीं रात ढली जाती है
रफ़्ता रफ़्ता तिरी हर याद मिटी जाती है
गर्द सी वक़्त के चेहरे पे जीम जाती है
मेरे आगे से हटा लो मय ओ मीना ओ सुबू
उन से कुछ और मिरी प्यास बढ़ी जाती है
आज अपने भी पराए से नज़र आते हैं
प्यार की रस्म ज़माने से उठी जाती है
किस लिए किस के लिए किस के नज़ारे के लिए
चाँद तारों से हर इक रात सजी जाती है
न हवाएँ हैं मुआफ़िक़ न फ़ज़ाएँ लेकिन
आप ही आप कली दिल की खिली जाती है
लाख समझाए कोई लाख बुझाए फिर भी
दिल से ‘जावेद’ कहीं दिल की लगी जाती है
हर दिल जो है बेताब तो हर इक आँख भरी है
हर दिल जो है बेताब तो हर इक आँख भरी है
इंसान पे सचमुच कोई उफ़्ताद पड़ी है
रह-रौ भी वही और वही राहबरी भी
मंज़िल का पता है न कहीं राह मिली है
मुद्दत से रही फ़र्श तिरी राहगुज़र में
तब जा के सितारों से कहीं आँख लड़ी है
ऐसा भी कहीं देखा है मय-ख़ाने का दस्तूर
हर चश्म है लबरेज़ हर इक जाम तही है
रूख़्सार-ए-बहाराँ पे चमकती हुई सुर्ख़ी
कहती है कि गुलशन में अभी सुब्ह हुई है
समझा है तू ज़र्रे को फ़क़त ज़र्रा-ए-नाचीज़
छोटी सी ये दुनिया है जो सूरज से बड़ी है
दुनिया में कोई अहल-ए-नज़र ही नहीं बाक़ी
कोताह-निगाही है तिरी कम-नज़री है
मदहोश फ़ज़ा मस्त हवा होश की मत पूछ
वारफ़्तगी-ए-शौक़ है इक गुम-शुदगी है
जल्वा-ए-हुस्न-ए-अज़ल दीदा-ए-बीना मुझ से
जल्वा-ए-हुस्न-ए-अज़ल दीदा-ए-बीना मुझ से
जाने क्या सोच के फिर कर लिया पर्दा मुझ से
ग़म से एहसास का आईना जिला पाता है
और ग़म सीखे है आ कर ये सलीक़ा मुझ से
रात फिर जश्न-ए-चराग़ाँ के लिए माँगा था
मौज-ए-एहसास ने इक प्यास का शोला मुझ से
मैं ने मज़लूम का बस नाम लिया था लोगों
जाने क्यूँ हो गया बरहम वो मसीहा मुझ से
मेरी ख़्वाहिश पे है मौक़ूफ़ वजूद-ए-आलम
और है मंसूब अज़ल से ये करिश्मा मुझ से
दिल हूँ मैं प्यार भरा और तू नाज़ुक धड़कन
दिल का तुझ से है मगर दर्द का रिश्ता मुझ से
बज़्म यादों की सजी गोशा-ए-दिल में ‘जावेद’
फिर वही ताज़ा ग़ज़ल का है तक़ाज़ा मुझ से
मसीह-ए-वक़्त भी देखे है दीदा-ए-नम से
मसीह-ए-वक़्त भी देखे है दीदा-ए-नम से
ये कैसा ज़ख़्म है यारो ख़फ़ा है मरहम से
कोई ख़याल कोई याद कोई तो एहसास
मिला दे आज ज़रा आ के हम को ख़ुद हम से
हमारा जाम-ए-सिफ़ालीं ही फिर ग़नीमत था
मिली शराब भला किस को साग़र-ए-जम से
हवा भी तेज़ है यूरिश भी है अंधेरों की
जलाए मिशअलें बैठे हैं लोग बरहम से
ग़मों की आँच में तप कर ही फ़न निखरता है
ये शम्अ जलती है ‘जावेद’ चश्म-ए-पुर-नम से
वो जो दाग़-ए-इश्क़ था ख़ुश-नुमा जो अमानत-ए-दिल-ए-ज़ार था
वो जो दाग़-ए-इश्क़ था ख़ुश-नुमा जो अमानत-ए-दिल-ए-ज़ार था
सर-ए-बज़्म था तो चराग़ था सर-ए-राह था ग़ुबार था
उसे मैं ही जानूँ हूँ दोस्तों किसू वक़्त अपना भी यार था
कभू मोम था कभू संग था कभू फूल था कभू ख़ार था
तिरी याद है कि बुझी बुझी तिरा ज़िक्र है कि रूका रूका
तिरी याद से तो सुकून था तिरे ज़िक्र से तो क़रार था
ये तो वक़्त वक़्त की बात है हमें उन से कोई गिला नहीं
वो हों आज हम से ख़फ़ा ख़फ़ा कभू हम से उन को भी प्यार था
वो नगर तो कब का उजड़ गया हम उसी नगर से तो आए हैं
कहीं मक़बरा था ख़ुलूस का तो कहीं वफ़ा का मज़ार था
जिसे शौक़ था तिरी दीद का जिसे प्यास थी तिरे प्यार की
जो तिरी गली में मुक़ीम था वही अजनबी सर-ए-दार था
तिरे दिल से मेरा ख़ुलूस दिल न झलक सका तो मैं क्या करूँ
मिरे अक्स की तो ख़ता न थी तिरे आईने पे ग़ुबार था