बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
तअल्लुक़ की गिराँबारी में थोड़ी नर्मियाँ रख दो
भटक जाती हैं तुम से दूर चेहरों के तआकुब में
जो तु चाहो मेरी आँखों पे अपनी उँगलियाँ रख दो
बरसते बादलों से घर का आँगन डूब तो जाए
अभी कुछ देर काग़ज़ की बने ये कश्तियाँ रख दो
धुआँ सिगरेट का बोतल का नशा सब दुश्मन-ए-जाँ हैं
कोई कहता है अपने हाथ से ये तल्ख़ियाँ रख दो
बहुत अच्छा है यारों महफ़िलों में टूट कर मिलना
कोई बढ़ती हुई दूरी भी अपने दरमियाँ रख दो
नुक़ूश-ए-ख़ाल-ओ-ख़द में दिल-नवाज़ी की अदा कम है
हिजाब-ए-आमेज़ आँखों में थोड़ी शोखियाँ रख दो
हमीं पर ख़त्म क्यूँ हो दोस्ताना-ए-ख़ाना-वीरानी
जो घर सहरा नज़र आए तो उस में बिजलियाँ रख दो
छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं
छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं
रास्तों की धूल में आराइशें कजला गई
किस ने फैला दी मेरे आँगन में चादर धूप की
मेरे महताबों की सारी सूरतें कुमला गई
अपना तन्हा अक्स पा कर मैं ने कंकर फेंक दी
सतह-ए-साहिल पर कई परछाइयाँ लहरा गईं
मुद्दतों के बाद जी चाहा था छत पर सोइए
रात पहलू में न लेटी थी के बूँदें आ गईं
कूचा कूचा काटते फिरते हैं यादों का लिखा
दिल को जाने क्या तेरी रूसवाइयाँ समझा गईं
दूर तक कोई न आया उन रूतों को छोड़ने
बादलों को जो धनक की चूड़ियाँ पहना गईं
शाम की दहलीज पर ठहरी हुई यादें ‘जुबैर’
ग़म की मेहराबों के धुंदले आईने चमका गईं
दिल के तातार में यादों के अब आहू भी नहीं
दिल के तातार में यादों के अब आहू भी नहीं
आईना माँगे जो हम से वो परी-रू भी नहीं
दश्त-ए-तन्हाई में आवाज़ के घुँघरू भी नहीं
और ऐसा भी के सन्नाटे का जादू भी नहीं
ज़िंदगी जिन की रिफ़ाकत पे बहुत नाज़ाँ थी
उन से बिछड़ी तो कोई आँख में आँसू भी नहीं
चाहते हैं रह-ए-मय-ख़ाना न क़दमों को मिले
लेकिन इस शोख़ी-ए-रफ़्तार पे क़ाबू भी नहीं
तल्ख़ियाँ नीम के पत्तों को मिली हैं हर-सू
ये मेरा शहर किसी फूल की ख़ुश्बू भी नहीं
जाने क्या सोच के हम रूक गए वीरानों में
परतव-ए-रूख़ भी नहीं साया-ए-गेसू भी नहीं
हुस्न-ए-इमरोज़ को तश्बीहों में तौलें कैसे
अब वो पहले से ख़म-ए-काकुल-ओ-अब्रु भी नहीं
हम ने पाई है उन अशआर पे भी दा ‘जुबैर’
जिन में उस शोख़ की तारीफ़ के पहलू भी नहीं
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
क़ातिल-ए-शहर से पर रब्त रक़ीबाना था
वो खुले-जिस्म फिरा शहर के बाज़ारों में
लोग कहते हैं ये अक़दाम दिलेराना था
बंद मुट्ठी में मेरी राख थी ताबीरों की
उस की आँखों में भी इक ख़्वाब मरीज़ाना था
लग़्िजश-ए-पा भी हर इक गाम भी साया साया
ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक़ भी शरीफ़ाना था
तुम जहाँ अपनी मसाफ़त के निशाँ छोड़ गए
वो गुज़र-गाह मेरी ज़ात का वीराना था
सुनते हैं अपनी ही तलवार उसे काट गई
दोस्तों हम में जो इक शख़्स हरीफ़ाना था
गुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
गुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
के जैसे एक दिया हूँ और हवा की ज़द पे रक्खा हूँ
चमकती धूप तुम अपने ही दामन में न भर लेना
मैं सारी रात पेड़ों की तरह बारिश में भीगा हूँ
ये किस आवाज़ का बोसा मेरे होंटों पे काँपा है
मैं पिछली सब सदाओं की हलावत भूल बैठा हूँ
बिछड़ के तुम से मैंने भी कोई साथी नहीं ढूँढा
हुजूम-ए-रह-गुज़र में दूर तक देखो अकेला हूँ
कोई टूटा हुआ रिश्ता न दामन से उलझ जाए
तुम्हारे साथ पहली बार बाज़ारों में निकला हूँ
मैं गिर के टूट जाऊँ या कोई मेहराब मिल जाए
न जाने कब से हाथों में खिलौना बन के जीता हूँ