वतन के वास्ते
वतन के वास्ते बस जान घुला देंगे हम,
गले को शान से फांसी पे झुला देंगे हम।
भीष्म-संतान हैं, कुत्तों की मरेंगे क्या मौत?
जिस्म को शौक़ से वाणांे पे सुला देंगे हम।
रंज झेलेंगे मुसीबत भी सहेंगे लेकिन,
गले से तौक़ गुलामी का खुला देंगे हम।
ख़ात्मा जुल्मों का कर देंगे, यह बीड़ा है लिया,
न्याय और सत्य के बस फूल खिला देंगे हम।
नौकरो! और सता लो कि बस अरमां न रहे,
चौकड़ी सारी किसी रोज़ भुला देंगे हम।
तुम तो इंसान हो, इंसान की हस्ती क्या है?
इंद्र भगवान का आसन भी हिला देंगे हम।
रचनाकाल: सन 1922
चरख़ा
रचनाकाल: सन 1922
कातो सब मिल भारतवासी, चरख़ा पार लगाएगा।
जिस दिन भीनी और सुरीली तान सुनाएगा,
एक होंय भारतवासी यह पाठ पढ़ाएगा,
कातो सब मिल भारतवासी, चरख़ा पार लगाएगा।
नौकरशाही के पकड़-पकड़कर कान हिलाएगा,
बराबरी का हक़ उन्हीं से हमें दिलाएगा,
कातो सब मिल भारतवासी, चरख़ा पार लगाएगा।
मानचेस्टर और लेवरपूल के मान घटाएगा,
ख़ुदग़र्जी का मज़ा उन्हें ये खूब चखाएगा,
कातो सब मिल भारतवासी, चरख़ा पार लगाएगा।
भारत की प्राचीन सभ्यता वापस लाएगा,
दुष्टों के पंजे से यही आज़ाद कराएगा,
कातो सब मिल भारतवासी, चरख़ा पार लगाएगा।