देख कर उस हसीन पैकर को
देख कर उस हसीन पैकर को
नश्शा सा आ गया समुंदर को
डोलती डगमगाती सी नाव
पी गई आ के सारे सागर को
ख़ुश्क पेड़ों में जान पड़ने लगी
देख कर रूप के समुंदर को
बहर प्यासे की जुस्तुजू में है
है सदफ़ की तलाश गौहर को
कोई तो नीम-वा दरीचों से
देखे इस रत-जगे के मंज़र को
एक देवी है मुन्तज़िर ‘फ़ारिग़’
वा किए पट सजाए मंदर को
कितने शिकवे गिल हैं पहले ही
कितने शिकवे गिल हैं पहले ही
राह में फ़ासले हैं पहले ही
कुछ तलाफ़ी निगार-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
हम लुटे क़ाफ़िले हैं पहले ही
और ले जाए गा कहाँ गुचीं
सारे मक़्तल खुले हैं पहले ही
अब ज़बाँ काटने की रस्म न डाल
कि यहाँ लब सिले हैं पहले ही
और किस शै की है तलब ‘फ़ारिग़’
दर्द के सिलसिले हैं पहले ही