जो बात है हद से बढ़ गयी है
जो बात है हद से बढ़ गयी है
वाएज़[1] के भी कितनी चढ़ गई है
हम तो ये कहेंगे तेरी शोख़ी
दबने से कुछ और बढ़ गई है
हर शय ब-नसीमे-लम्से-नाज़ुक[2]
बर्गे-गुले-तर से बढ़ गयी है
जब-जब वो नज़र उठी मेरे सर
लाखों इल्ज़ाम मढ़ गयी है
तुझ पर जो पड़ी है इत्तफ़ाक़न
हर आँख दुरूद[3] पढ़ गयी है
सुनते हैं कि पेंचो-ख़म[4] निकल कर
उस ज़ुल्फ़ की रात बढ़ गयी है
जब-जब आया है नाम मेरा
उसकी तेवरी-सी चढ़ गयी है
अब मुफ़्त न देंगे दिल हम अपना
हर चीज़ की क़द्र बढ़ गयी है
जब मुझसे मिली ‘फ़िराक’ वो आँख
हर बार इक बात गढ़ गयी है
उमीदे-मर्ग कब तक
उमीदे-मर्ग कब तक ज़िन्दगी का दर्दे-सर कब तक
ये माना सब्र करते हैं महब्बत में मगर कब तक
दयारे दोस्त हद होती है यूँ भी दिल बहलने की
न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक
यूँ तदबीरें भी तक़दीरे- महब्बत बन नहीं सकतीं
किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक
इनायत[1] की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-जख़्मे ज़िगर[2] कब तक
किसी का हुस्न रुसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में
न लाये रंग आख़िरकार तासीरे-नज़र कब तक
ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
ख़ुदा को पा गया वायज़, मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की
बसा-औक़ात[1] दिल से कह गयी है
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी
मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी
महब्बत में करें क्या हाल दिल का
ख़ुशी ही काम आती है न ग़म की
भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली
लड़कपन की अदा है जानलेवा
गज़ब ये छोकरी है हाथ-भर की
है कितनी शोख़, तेज़ अय्यामे-गुल[2]पर
चमन में मुस्कुराहट कर कली की
रक़ीबे-ग़मज़दा[3] अब सब्र कर ले
कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी
जब ज़िक्र तेरा महफ़िल में छिड़ा
क्यों आँख तेरी शरमाने लगी
क्या मौजे-सबा थी मेरी नज़र
क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी
महफ़िल में तेरी एक-एक अदा
कुछ साग़र-सी छलकाने लगी
या रब याँ चल गयी कैसी हवा
क्यों दिल की कली मुरझाने लगी
शामे-वादा कुछ रात गये
तारों को तेरी याद आने लगी
साज़ों ने आँखे झपकायीं
नग़्मों को मेरे नींद आने लगी
जब राहे-ज़िन्दगी काट चुके
हर मंज़िल की याद आने लगी
क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया
क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी
तारे टूटे या आँख कोई
अश्कों से गुहर बरसाने लगी
तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर
सदियों की सई ठिकाने लगी
कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता
वो चाल क़यामत ढाने लगी
क्या बात हुई ये आँख तेरी
क्यों लाखों क़समें खाने लगी
अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे
रुख़सारों के फूल खिलाने लगी
फिर रात गये बज़्मे-अंजुम
रूदाद तेरी दोहराने लगी
फिर याद तेरी हर सीने के
गुलज़ारों को महकाने लगी
बेगोरो-क़फ़न जंगल में ये लाश
दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी
वो सुब्ह की देवी ज़ेरे-शफ़क़
घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी
उस वक्त ‘फ़िराक’ हुई ये ग़ज़ल
जब तारों को नींद आने लगी
दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ
दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ
ख़जाँ में सुब्हे-बहारे-चमन की आँच न पूछ
फ़ज़ा है दहकी हुई रक़्स में है शोला-ए-गुल
जहाँ वो शोख़ है उस अंजुमन की आँच न पूछ
क़बा में जिस्म है या शोला ज़ेरे-परद-ए-साज़
बदन से लिपटे हुए पैरहन की आँच न पूछ
हिजाब में भी उसे देखना क़यामत है
नक़ाब में भी रुख़-ए -शोला-ज़न की आँच न पूछ
लपक रहे हैं वो शोले कि होंट जलते हैं
न पूछ मौजे-शराबे-कुहन की आँच न पूछ
‘फ़िराक़’ आइना-दर-आइना है हुस्ने -निगार
सबाहते-चमन-अन्दर-चमन की आँच न पूछ