हिसाब बराबरी का
ज़माना मेरी नज़र से गुजरा, मैं ज़माने में
मगर अछूत रहा, अपने ही घराने में
हजारों साल से, कुछ लोगों ने मिटाना चाहा
मगर मैं ज़िन्दा हूँ, भारत के फसाने में
दलितों को मान मिला है, किस जमाने में?
कोई बताये इनके वेदों और पुराणों में?
क्या रामायण की रचना किसी दलित ने की?
गर किया है तो उसे भेजो पागलखाने में
भगवान तेरा कुसूर नहीं है, मुझे मिटाने में
तेरा वजूद है झूठा, सभी फ़साने में
मेरी बर्बादियां तूने क्यों कर देखी?
गर तू था, तो दिखा क्यों नहीं जमान में?
मनु तेरा खून पीने में, मुझे कुछ हर्ज नहीं
हमने तो सड़ा माँस भी खाया है, एक जमाने में
हमें नीचता का दंश, मिला है तुमसे क्यों?
मनु मारेंगे तुम्हें, जला के मशालों से
मेरे भाई का अंगूठा काटने वाला द्रोणा
हम सब ज़िन्दा हैं, एकल्व्य के उसी घराने में
और यह मत समझना कि हम तुम्हें भूल गये
हम तुम्हें मारेंगे, एकलव्य के ही बाणों से
नारियल के पेड़ पे, कातिल की गर्दन होगी
पेड़ ऐसे उगेंगे अब, शम्बूक के हर बाग़ानों में
‘बाग़ी’ गर तुम बागबां बनोगे, उस चमन के लिये?
हम बग़ावत करेंगे, उस चमन के आशियाने में
बताओ मुझे
अंधेरा आज भी घरों में जिनके क़ायम हो
उम्मीद की रोशनी भी जहाँ घायल हो
सदा उम्मीद जहाँ खाई में गिरती हो
जिनके आंख से हर वक्त बहता काजल हो।
तुम्हारे वजूद को अगर कोई नंगा कर दे
तो उस हाल में करोगे क्या, बताओ मुझे?
फटे चिथड़ों में अगर मोनालिसा बनना पड़े
तारीफ में गालियां औ’ बेइज्जती सहना पड़े
मर्यादा अगर समाज में नंगी घुमाई जाये
बताओ फूलन देवी क्यों न न उन्हें बनना पड़े
जबरन तुम्हारी दुल्हन, पहली रात हो ठाकुर के घर
तब तुम्हारी दास्तां क्या होगी, जरा सुनाओ मुझे?
जब हलवाही तुम्हारे ही नाम लिख दी गई हो
रेहन पे तुम्हारे घर की सार संपति रखी गई हो
बच्चे पढ़ाई की जगह, तुम्हारे जानवर चराते हों
हड्डियों के बल, सवर्णों की चौखट पे घिस गये हों
तुम्हें पेट भर जब अनाज न मिले खाने को
किस हाल में ज़िन्दा रहोगे, समझाओ मुझे?
गांव के बाहर कूड़े की तरह फेंक दिया जाये
पानी के लिये कुंए की जगत से, धकेल दिया जाये
पीड़ा में सने पसीने से, कड़ी ठंडक में नहाना पड़े
चिलचिलाती धूप में, खेत में कुदाल चलाना पड़े
ज़िन्दगी बोझ-सा ढोना पड़े परछाई जैसे
जीवन का राग क्या होगा, गा सुनाओ मुझे
आंसू कम न थे, पर बरसात घर पे वर्षा है
झोपड़ी सावन की, पुरवाई का जैसे झोंका है
कटी पतंग-सी, जिनकी ज़िन्दगी बे-डोर हुई
डूबते बाढ़ में क्यों, किसी ने नहीं रोका है?
सूनी पतीली में कुछ बनाऊं, क्या खिलाऊं उन्हें?
आंसू की भाप में पके चावल, तो खिलाओ मुझे?
जब बेटा दूल्हा बने और बाप बाराती हो
शादी की डोली अर्थी-सी सूनी जाती हो
माँ अपने पीड़ा को गीतों में गुनगुनाती हो
शादी में पकवान न, बस साग भात बनाती हो
सजीव मानव का निर्जीव चित्रण, दिखायें किसे
यह किस समाज का दस्तावेज है, बताओ मुझे?
तुम्हारी माँ बहनंे, घसियारन बनी मर जायें गर
फिर शादी में, शहनाई बजे और न हँसे कंगन
दुल्हन को पैदल ससुराल, शादी में जाना पड़े
उसी दिन ठाकुर का, मरा जानवर उठाना पड़े
सड़ा माँस खाना और फिर गंदगी उठाना पड़े
क्या मज़ा उस गंध का ले पाओगे, बताओ मुझे?
तुम्हें जाति के नाम पर लहूलुहान कर दिया जाये
नीच बोल समाज मंे, चारपाई से उतार दिया जाये
जूठी पत्तलें उठाने और गाली देकर बुलाया जाये
दिन रात बेगार-सा, हर मौसम में खटाया जाये
तुम्हारी खुशी का चिराग़, फिर कभी न जले
अपने आप को देखोगे क्या, जरा बताओ मुझे?
कचरे के ढेर या फुटपाथ पर सोना पड़े
प्रदूषण में तड़पते जीवन ऐसे खोना पड़े
बीमारी से ग्रस्त दवा बिन तड़पना पड़े
पेट की आग को जब जूइन से बुझाना पड़े
इनकी यातनां का झंझावत, दिखाऊं किसे?
किस महाकाव्य के ये पात्र हैं, बताओ मुझे?
(दिसम्बर 2009, जेएनयू)
सांस्कृतिक रणनीति
चाँद क्यों रात को, हसीन बना देता है?
अंधेरी रात को, हसीं ख्वाब दिखा देता है
यह सच्चाई ब्राह्मणवाद की जानो यारों
जो आंसू की धार को बरसात बता देता है
हमारे आंसू से कोई भी जम जाती है
जो मेरी बस्ती में दूर से दिखाई देती है
संगीत की दुनिया में वह दर्द कहाँ?
जो एक दलित के घर से सुनाई देती है
अब न होगी विरान मेरी दास्तां
सारे ज़ुल्मी व ज़ुल्म मिटाऊंगा मैं
जिसने इतिहास है मेरा मिटाया
उनके सीने में खंजर उतारूंगा मैं
तुम्हारे ख़िलाफ
ये सदायें फ़िजायें ये काली घटायें
जो रोती थीं दम भर के अक्सर बतायें
आंचल में छिप-छिप के रोयी हुई थीं
बस दिल में तमन्ना संजोई हुई थीं
हुई माँ व बहनों की अस्मतदरी थी
जो नंगी सभा में घुमायी गयीं थीं
मज़बूर व मज़दूर था जिनको बनाया
मुफ्त में हर इक काम जिनसे कराया
थी उमड़ती घटाओं की बारिश होती
मेरी माँ जब सर पटक कर थी रोती
था भगवान खुश उसके बंदे भी सारे
जलायी थी जब बस्तियों को हमारे
अहिंसा हमारा था दुनिया से न्यारा
चमकता मेरे घर का रौशन सितारा
सदियों से यह मेरे बड़ों की कमाई
मनुवादियों ने थी जिनको जलायी
जले घर के दौलत व अरमान सारे
मुकद्दर पे रोयें हम थके बेसहारे
यही हाल सारे दलित पर थी भारी
कि निकले उम्मीदों की कोई सवारी
दलित बस्तियों में थी बीरानी कैसी?
था विधवा का गम व नदी आंसुओं की
तो सदा आह भरने से कुछ भी न होगा
अब ख़ामोश रहने से भी कुछ न होगा
बग़ावत के अलावा कोई और चारा नहीं है
यहाँ कोई अपना हमारा नहीं हैं
लगी आग घर की अब बुझ तो गई है
लगी आग डर की बुझ अब गई है
लगी आग दिल मंे अब बुझ न सकेगी
मनु तेरी बस्ती अब बच न सकेगी
जलाऊँगा तुझे और घर तेरे सारे
फसादों की जड़ें हैं जो तेरे पास सारे
जलाऊंगा तुझे तेरा इतिहास सारा
यह ललकार कहता कारवां हमारा
होंगी फिर से ज़िन्दा तहजीवें हमारी
है तुम्हारे ख़िलाफ अब बग़ात हमारी….
(जनवरी 2011, जेएनयू)