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कत’आ

इससे बढ़कर मलाल शायरी में क्या होगा
लिखता हूँ जिसके लिए उसको गुमान ही नहीं
समझे मुझे सारा जहाँ तो भी क्या हुआ
गर जज़्बा मेरा जिसके लिए उस पर अयान ही नहीं

हिज़्र ओ-विसाल

फ़ज़ाओं को फिर वजह सी मिल गयी महकने की
अफसुर्दा[1]बादलों में से चाँद फिर मुस्काराया है
तख़्लीक़[2]में मेरी फिर आने लगे हैं शोखियों के दम
लबों पे फिर कोई मस्त नगमा उभर आया है

फिर से गाता है मल्हार साज़े जीस्त मेरा
फिर से छाई है तख्य्युल पे आरज़ुओं की घटा
झूमती बल खाती है बर्क उम्मीदों की
फिर से वफ़ा के ज़र्द आरीज़ों[3]में नूर बहा

मेरी तन्हाई भी सोई है आज उमरों के बाद
मैं खुद से भी मिला हूँ बाद मुद्दत के
दर्द की आँखों में भी है आज मर्सरत[4]के आँसू
तमन्ना को मिले फिर से पैरहन[5]हक़ीकत के

ज़िंदगी क्या हैं जब सोचने बैठे

ज़िंदगी क्या हैं जब सोचने बैठे

मय का जादू भरा मस्त प्याला है
या कि तन्हाई के सीने में लगा दर्द का खंज़र

महबूब के होंठों की शीरीनी है
या कि ज़र ज़मीन के ख्वाबों का नाम

शीरीनी =मिठास

हर नफ़स में ज़िंदा हैरत की ताज़गी है
या कि सुबह का शाम से इक थका सा रिश्ता

नफ़स=साँस

ज़िंदगी क्या हैं जब सोचने बैठे

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