दरक गइल दरपन
सूख गइल सरिता उमंग के, कुम्हिला गइल सुमन,
कहाँ निरेखीं आपन सूरत, दरक गइल दरपन।
अँगना में तुलसी के बिरवा परल घवाइल बा,
पुरवा का लहरा में कइसन दरद सनाइल बा,
अमरैया के छाँह ठाढ़ हो गइल काढ़ि के फन।
बाज झपट्टा मरलस कब, ले भागल आस-हुलास,
मन-पाखी के खोंता उजड़ल, चटक गइल बिसवास,
डोरी कटल तिलंगी-अस जिनगी तड़पे छन-छन।
डगमगात कागज के नैया, गरजत बा मँझधार,
जेही बनल मसीहा ऊहे निकल गइल बटमार,
खाक भइल अपनापन, काटे धावे हर चितवन।
चलत-चलत तन-मन टूटल, तबहूँ ऊहे ठहराव,
रोज-रोज के जीयल-मूअल अब बन गइल सुभाव,
कब अन्हार के कूहा फाटी, बिहँसी नई किरन ?
कहाँ निरेखीं आपन सूरत, दरक गइल दरपन।
घर में देश
सूखि गइल
आँखिन में लहलहात
सपनन के समुन्दर
खूने-खून हो गइल-
सतलज, व्यास, रावी
झेलम, चिनाब के पानी
बेटिन के जवानी
फटाफट बन हो गइल
मए घरन के केवाड़
खिड़की, झरोखा
पाँख पसारि के पसरि गइल
मातमी चुप्पी
गूँजे लागल
दनवा-दईंतन के बूट के दहशत
टूटि पड़लप स बेटा
माई के इज्जत लूटे खातिर
उहे बेटा
जवन कबो माई खातिर
खून के धार
पानी नियर बहवले रहलन स
लाज बचवले रहलन स
धाँय-धाँय, ठाँय-ठाँय
रोवा-रोहट आ फरियाद में
मटियामेट हो रहल बाड़न स
गुरबानी के सबद
भींजत लकड़ी के आग नियर
धुँआ रहल बा
गुरमीत कौर आ गुरचरन सिंह के
‘वाहे गुरु’ के विनती
हवा-पानी लेबे खातिर तरसत
अबोध जसवन्त के नइखे होत बोध
सोच में ऊभ-चूभ करत
बढ़त जा रहल बा
ओकरा मन के कलेश
कि आखिर कइसे ऊ मानी
हती चुकी घरे के देश?