सही ज़मीन
आपकी इस्लाह के लिए शुक्रिया
मुझे आपकी बात की
इसलिए परवाह नहीं
क्योंकि मेरे पाँव
सही ज़मीन पर टिके हैं
ये ज़मीन मुझे गर उछाल नहीं सकती
तो गिरा भी नहीं सकती
कितनी मुश्किल से मिलती है
किसी को सही ज़मीन!
………….
तुम्हें तुम्हारा आकाश मुबारक !
मेरा उससे क्या वास्ता
अलग ही है
मेरी मंज़िल मेरा रास्ता
बहुत चाहा
बहुत चाहा
अवाम के दर्द को पी लूँ
और
एक ज़िन्दगी जी लूँ
मगर, न जी सका
………..
अवाम के
कविता का अर्थ
मेरी भाषा का व्याकरण
पाणिनि नहीं
पददलित ही जानते हैं
क्योंकि वे ही मेरे दर्द को–
पहचानते हैं :
मेरी कविता का कमल
बगीचे के जलाशयों में नहीं;
झुग्गी-झोपडियों के कीचड़ में खिलेगा;
मेरी कविता का अर्थ
उत्तर पुस्तिकाओं में नहीं
फुटपाथों पर मिलेगा!
दर्द को न पी सका!
समाधि-लेख
मैंने
इसलिए आँसू नहीं टपकाया
कि आँसू की एक बूँद
जुल्म के आगे पूर्ण विराम-सी खड़ी
देह के पाँव तले गिर कर
उसे विस्मयादि बोधक चिन्ह न बना दे!
और अब
साँस थकने पर जो
डैश-सा पसर गया हूँ मैं
यह न समझना कि मर गया हूँ मैं!
हक़ीक़त में पसरने के बहाने
ज़िन्दगी को ही रेखांकित कर रहा हूँ मैं
मैं, हाँ मैं!
सर्वहारा मैं!
तुम्हारा मैं!
मैं अकेला नहीं
मैं अकेला कभी न था
और न आज हूँ
क्योंकि मैं तो
सर्वहारा की आवाज़ हूँ
उनका हँसना मेरा हँसना है
उनका रोना मेरा रोना है
दुनिया
जिनके मिट्टी सने हाथों–
बना खिलौना है ।
!
पोस्टर
मैं एक पोस्टर हूँ
सड़क या दीवार पर
चिपका हुआ इश्तहार
तुम चाहो
सैनिक-ट्रक के नीचे कुचल सकते हो
फाड़कर चिन्दी-चिन्दी कर सकते हो!
पर उससे क्या ?
मैं ज़माने के दर्द को तो
बेनकाब कर चुका हूँ,
कुचल कर समझ लो
मर चुका हूँ
नरक बेहतर है
मैं बचपन से चिन्तित था
कि स्वर्ग किस तरह पहुँच पाऊँगा!
पर जब पढ़-लिखकर
मंदिर, कालेज, धर्मशाला में लगी
‘स्वर्गीय सेठ की स्मृति में निर्मित’
संगमरमर की तख़्तियों को पढ़ा
तो मैंने तय कर लिया
कि जहाँ ऎसे लोग गए हैं
मैं उस स्वर्ग में हरगिज़ नहीं जाऊँगा ।
ऎसे स्वर्ग से तो नरक बेहतर है
स्वर्ग में सेठ
और नरक में मेहतर है !
!