भेद रहा है चक्रव्यूह रोज
वह ढ़ोता रहा
दिनभर पीठ पर
तारों के बड़ल
जैसे कोल्हू का बैल
होती रही छमाछम
बारिश दिन भर
टपकता रहा उसका
छप्पर रातभर
होता रहा
उसका बिस्तर
पानी-पानी
दिल उकसते ही
वह फिर चला गया
मानों चक्रव्यूह
बदलना
कई सालों बाद
जब वह आता है
शहर से गांव
नौकरी से वापस
वह बदल जाता है
इतना
सर्दी में जमें घी
जितना।
को भेदने।
नया ठिकाना
बनाते रहे वे
बड़े-बड़े
शानदार मकान
घूमते रहे
शहर-दर-शहर
मकान पूरा होने पर
रातों रात वे
अपना नया ठिकाना
खोजने लगे।
शाम की धूप
शाम की धूप
जा रही थी घर
क्ह रही थी
दरख़्तों से अलविदा
शाम की धूप
बच्चों से करती है
वायदा
कल फिर आने का
बच्चे रजाई में
दुबक कर
धूप का इंतजार करते हैं
धूप के आते ही
लाल सलाम करते हैं
चिड़िया भी आंख में
भर कर धूप
स्ंजोती है सपना
फिर नई सुबह का।
रोज गूंथती हूं पहाड़
रोज गूंथती हूं
मै कितने ही पहाड़
आटे की तरह
बिलो देती हूं
जीवन की मुश्किलें
दूध-दही की तरह
बेल देती हूं
रोज ही
आकाश सी गोल रोटी
प्यार की बारिश में
मैं सब कुछ कर सकती हूं
सिर्फ तुम्हारे लिए।
सहेज कर रखो हमें
क्या तुम्हें पता है?
औरतें होती हैं
रेत के नीचे की ठंडक सी
फूलों की खुशबू सी
कल-कल बहता हुआ झरना
ऐसे सहेज कर रखो हमें
जैसे रखते हैं
फूल किताबों में
देखो हमें ऐसे
जैसे आंखों में भर कर प्राण
ऐसे छुओ हमें
जैसे छुईमुई के पेड़ को
बहुत नाजुक है हम
बहुत संभाल कर रखो हमें।
टुकड़ो में जीवन
पारे जैसे इस समय में
जीना है टुकड़ों में
मरना है टुकड़ों में
जीवन का मोल चुकाते हैं
टुकड़ों में
प्रेम भी हो गया है
टुकड़ों में
पर अब
टुकड़ों को जोड़कर
बनानी है एक
जीवन की मुक़मल तस्वीर
बच्चा बनाता हो जैसे
कोई एक पज़ल।