प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ
प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ।
कहा भरोसे ह्वै पूछत हौ, कै चतुराई करि जु हंसत हौ॥
लीजै परखि सरूप आपनो, पुतरिन मैं तुमहीं जु लसत हौ।
‘वृंदावन’ हित रूप, रसिक तुम, कुंज लडावत हिय हुलसत हौ॥
ठाडी रह री लाड गहेली मैं माला सुरझाऊं
ठाडी रह री लाड गहेली मैं माला सुरझाऊं।
नक बेसर की ग्रंथि जो ढीली, ता सुभग बनाऊं॥
ऐरी टेढी चाल छांडि मैं सूधी चलनि सिखाऊं।
‘वृंदावन’ हित रूप फूल की, माल रीझ जो पाऊं॥
मिठ बोलनी नवल मनिहारी
मिठ बोलनी नवल मनिहारी।
मौहैं गोल गरूर हैं, याके नयन चुटीले भारी॥
चूरी लखि मुख तें कहै, घूंघट में मुसकाति।
ससि मनु बदरी ओट तें, दुरि दरसत यहि भांति॥
चूरो बडो है मोल को, नगर न गाहक कोय।
मो फेरी खाली परी, आई सब घर टोय॥