दयार-ए-संग में रह कर भी शीशा-गर था मैं
दयार-ए-संग में रह कर भी शीशा-गर था मैं
ज़माना चीख़ रहा था के बे-ख़बर था मैं
लगी थी आँख तो मरयम की गोद का था गुमाँ
खुली जब आँख तो देखा सलीब पर था मैं
अमाँ किसे थे मेरे साए में जो रूकता कोई
ख़ुद अपनी आग में जलता हुआ शजर था मैं
तमाम उम्र न लड़ने का ग़म रहा मुझ को
अजब महाज़ पे हारा हुआ ज़फर था मैं
हवा-ए-वक़्त ने पत्थर बना दिया वरना
लचकती शाख़ से टूटा हुआ समर था मैं
तमाम शहर में जंगल की आग हो जैसे
हवा के दोष पे उड़ती हुई ख़बर था मैं
गाँव से गुजरेगा और मिट्टी के घर ले जाएगा
गाँव से गुजरेगा और मिट्टी के घर ले जाएगा
एक दिन दरिया सभी दीवार ओ दर ले जाएगा
घर की तन्हाई में यूँ महसूस होता है मुझे
जैसे कोई मुझ को मुझ से छीन कर ले जाएगा
कौन देगा उस को मेरी तह-नशीनी का पता
कौन मेरे डूब जाने की ख़बर ले जाएगा
आईने वीराँ-निगाही का सबब बन जाएँगे
ख़ुद-पसंद का जुनूँ ताब-ए-नज़र ले जाएगा
सुब्ह के सीने से फूटेग शुआ-ए-मेहर-ए-नौ
सब अँधेरे रात के दस्त-ए-सहर ले जाएगा
जज़्बा-ए-जोहद-ए-मुसलसल है बिना-ए-जिंदगी
ये गया तो सारा जीने का हुनर ले जाएगा
हवा ने दोष से झटका तो आब पर ठहरा
हवा ने दोष से झटका तो आब पर ठहरा
मैं कुछ भँवर से गिरा कुछ हबाब पर ठहरा
ज़मीं से जज़्ब ये पिघली सी निकहतें न हुईं
उरूस-ए-शब का पसीना गुलाब पर ठहरा
ग़म ओ नशात का कितना हसीन संगम है
के तारा आँख से टूटा शराब पर ठहरा
रूपहली झील की मौजों में इजि़्तराब सा है
क़दम ये किस का सुनहरे सराब पर ठहरा
मैं लफ़्ज़-ए-ख़ाम हूँ कोई के तर्जुमान-ए-गज़ल
ये फैसला किसी ताज़ा किताब पर ठहरा
जंग में परवर-दिगार-ए-शब का क्या किस़्सा हुआ
जंग में परवर-दिगार-ए-शब का क्या किस़्सा हुआ
लश्कर-ए-शब सुब्ह की सरहद पे क्यूँ पसपा हुआ
इक अजब सी प्यास मौजों में सदा देती हुई
मैं समंदर अपनी ही दहलीज़ पर बिखरा हुआ
कच्ची दीवारें सदा-नोशी में कितनी ताक़ थीं
पत्थरों में चीख़ कर देखा तो अंदाजा हुआ
क्या सदाओं को सलीब-ए-ख़ामोशी दे दी गई
या जुनूँ के ख़्वाब की ताबीर सन्नाटा हुआ
रफ़्ता-रफ़्ता मौसमों के रंग यूँ बिखरे के बस
है मेरे अंदर कोई जिंदा मगर टूटा हुआ
सब्ज़ हाथों की लकीरें ज़र्द माथे की शिकन
और क्या देता मेरी तक़दीर का लिक्खा हुआ