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कर्दम के लिए

कर्दम, मेरे दोस्त !
ठीक मेरी तरह
तुम्हारी बहिन को भी
इस देश के जमींदारों की कसाई नज़रों से
रोना आया होगा

मेरी माँ की तरह
तुम्हारी माँ ने भी
इनकी माणसखाणी करतूतों से
हमारी सलामती की
दुआ माँगी होगी

‘अरे ओ गयन्ढल चुप रह’ जैसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के सामने
तुम्हारे बाप की दाढ़ी भी
मेरे पिता की तरह
केवल हिलकर रह गई होगी

और तुम भी मेरी तरह
यही सोचते होगे कि
जाति-प्रथा के
इस उमस भरे साम्राज्य को
अब उलट देना चाहिए।

हो सकता है
कर्दम, मेरे अजीज दोस्त
मेरे और तुम्हारे आवास एक न हों
लेकिन हम पर झपटने वाले
दमन तो
एक ही परम्परा के तम्बू से निकलकर
हमारी गर्दनों तक पहुँचते हैं

और मुँह-अन्धेरे माँगे गए सीत से
बासी खुरचन खाकर
स्कूल जाने की
ज़िद के बावजूद
मेरी तरह
तुम्हारे तख़्ती-बस्तों को भी
ठाकुर, जाट, ब्राह्मणों के बिगड़ैल बेटों ने
फुटबाल की तरह खेलकर
तुम्हें भी रुलाया होगा

यही वह दर्द है
जो मेरे मुँह की बात को
तुम्हारे दिल में दफ़्न
सच्चाई की सगी बहिन
बना देता है

इस कपट भरी
परम्परा की कमर तोड़ने वाली
तुम्हारी क़लम और मेरी कविता
आने वाले कल को
उसकी परिभाषा देगी

और कपट को
कला के कपड़े पहनाते आए
साधुओं के सफ़र का
काँटा होना ही
उनके साथ
हमारी साझेदारी समझी जाएगी

अब यह निश्चित है, कर्दम, कि उदारवाद का कोई भी साहित्यकार
जातियों से झुलसती
तेज़ धूप में
प्यासे मर रहे
हमारे लोगों को
पानी पिलाने नहीं आएगा

कर्दम, हमारे हकों की महक
हमारी पीढ़ियों के
खाद बन जाने की शर्त पर टिकी है
सत्ता के चन्द्रभान बनने पर नहीं

और जीवन से इश्क करने की
मौलिक शर्त यह भी है
कि आज के उदास समय को
क्रान्ति के नग्मों में ढालने के लिए
जातियों के घास-फूँस में
माचिस लगाने
हमें ही चलना होगा।

ज़िन्दगी

बन्द कमरों की
सीलन के भीतर
क्रोध के कोरस का नाम
ज़िन्दगी नहीं होता।

घर से दफ़्तर
और दफ़्तर से घर के
बीच का सफ़र ही
ज़िन्दगी नहीं होता।

बाज़ार की मृत-मखमल को ओढ़कर
देवताओं को दिए गए
अर्ध्यों की मूर्खता या ढोंग
का दुहराव भी ज़िन्दगी नहीं होता।

ज़िन्दगी तो उस कोयल का मीठा स्वर होता है
जो संगठन के बगीचे में
संघर्ष के आकाश तले
सभ्य क्रान्ति की रचना के लिए
निरन्तर कूकती है।

सौन्दर्यबोध

आदमी पीटते हुए
पुलिस के डण्डे की चमक
और हमारे बुजुर्गों के
मेहनत में लगे हाथों की चिकनाई में
फ़र्क तो है

पेट भराई के रंगीन पाखण्डों और
लोहे को
आरण में लाल करने के रंग
अलग तो हैं
देशी अँग्रेज़ी के ठाट-बाट और
जनवरी की ठण्ड में न्यार काटती
दलित औरत का काम
एक तो नहीं है

बूंगों से बड़े छेद और
चिलम से तंग दिल
व इन सबको झूठ समझकर
पसीना निचुड़ते पहरों में
पल गुज़ारने वाली
माँओं की आहों के बीच
फ़ासला तो है

पँचायत के सरदारों की
धौंस के फ़ायर से भिड़ने के
वक़्त आने की
इन्तज़ार में खड़े
हमारे सबसे क़ाबिल कवि की बात
समनार्थी तो नहीं है

फिर
सुन्दर क्या है
सच कैसा होता है
इसे

हमें ही तय करना है।

 

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