मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ
मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ
के मेरा ज़हन खाली एक पल को भी नहीं रहता
न जाने किन खयालों के सफरनामे
हमेशा सामने रहते हैं जिनको पढता रहता हूँ.
समंदर के मनाज़िर,
शोरिशें,
मौजों की बर्क-आमेज़ तक़रीरें,
रुपहले, रूई जैसे नर्म
मजनूं बादलों के रक्स की थिरकन,
फजाओं से उभरती ताएरों की जानी-पहचानी,
मगर, बेलौस आवाजें
मैं सुनता हूँ
मुझे महसूस होता है
के मैं खामोश-लब, बे-ख्वाब आँखें, मुन्जमिद चेहरा
हथेली पर लिए
बज्मे-तरब में बेहिसो-बेजान बैठा हूँ.
अचानक सारी आवाजें बदल जाती हैं शोलों में
हरारत दौड़कर माहौल के शाने हिलाती है
मुझे भी छू के आहिस्ता से कुछ कहती है कानों में
मेरी बे-ख्वाब आंखों में उतर आतें हैं फिर से ख्वाब
होंठों पर हरारत के लबों का लम्स पाकर
मुनजमिद चेहरे में एक तहरीक सी होती है
ख़ुद को ज़िंदगी के खुश्नावा आहंग से लबरेज़ पाता हूँ
मैं तनहा हूँ, नहीं भी हूँ.
सोचता हूँ ज़हन के सारे दरीचे खोल दूँ
अमेरीकी पोते के यौमे-विलादत पर
सोचता हूँ ज़हन के सारे दरीचे खोल दूँ
गुलशने-इद्राक के खुशरू बगीचे खोल दूँ
जज़्बए-दिल के तिलिस्माती गलीचे खोल दूँ
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं?
याद हैं जितनी दुआएं सब की सब दे दूँ तुम्हें
क़ल्ब की बालीदगी से एक टक देखूँ तुम्हें
हो बदल मुमकिन न जिसका, इस तरह चाहूँ तुम्हें
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?
जानता हूँ मैं, अभी तुम हो फ़क़त इक साल के
भर दूँ आंखों में तुम्हारी, रंग इस्तक्लाल के
तुम सरापा बन सको पैकर, हसीं अफआल के
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूँ ?
कम मैं कर सकता नहीं जुग्राफियाई फ़ासले
चाह कर भी तय करूं कैसे फिज़ाई फ़ासले
ख़त्म कर देगी तुम्हारी खुश-अदाई, फ़ासले
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?
आते हैं ऐसे भी लम्हे, जबके फरते-जोश में
भींच लेता हूँ ख़यालों में तुम्हें आगोश में
ये जुनूँ की कैफ़ियत होती है, पूरे होश में
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?
ढाल कर अल्फाज़ में गूँ-गाँ को खुश होता हूँ मैं
देख कर खुश-खुश तुम्हारी माँ को खुश होता हूँ मैं
पुर-मसर्रत पा के लख्ते-जाँ को खुश होता हूँ मैं
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?
मुस्कुराते गुल-अदा रुखसार आओ चूम लूँ
चाहता है दिल के जब भी खिलखिलाओ चूम लूँ
लब तुम्हारे हैं बहोत खुशरंग, लाओ चूम लूँ
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?
गौर से देखो, तुम्हारे सामने मैं हूँ खड़ा
केक मुंह में रखदो अपने हाथ से, मैं हूँ खड़ा
लो मुबारकबाद मेरे लाडले, मैं हूँ खड़ा
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?
प्यार होता है इबादत, प्यार देता हूँ तुम्हें
अपने ख़्वाबों का हसीं गुलज़ार देता हूँ तुम्हें
दिल से जो निकले हैं वो अशआर देता हूँ तुम्हें
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूँ ?
ज़ह्र पी लेते हैं क्यों लोग परीशां होकर
ज़ह्र पी लेते हैं क्यों लोग परीशां होकर
हम तो खुशहाल रहे बे-सरो-सामां होकर
लौट आओगे कभी इसका गुमां था किसको
एक टक देख रहा हूँ तुम्हे हैरां होकर
उसकी महफ़िल में सुखनवर तो कई थे लेकिन
उसका दिल जीत लिया मैं ने ग़ज़लख्वां होकर
शहर में रात गए आगज़नी होती रही
घर में हम क़ैद रहे मिशअले-ज़िनदां होकर
ज़ुल्म के सामने झुक जाऊं ये मंज़ूर नहीं
मैं न टूटूंगा किसी तरह हरासां होकर
दिल की गहराइयों में प्यार था जो सिमटा हुआ
तेरे चेहरे पे खिला चाहे-ज़नखदाँ होकर