टूटे सितारे
चाँद में बैठी हुयी बुढ़िया का चरखा चल रहा है,
धागा धागा रौशनी,
जिन रास्तों से,
आस्मां को जा रही हिं ,
यह वही टूटे सितारे जानते हैं,
जिन के हाथों की लकीरें
आज भी बुढ़िया की जेबों में पड़ीं हैं,
और जिनकी आरज़ूयें
आस्मां से भी बड़ी हैं
हाँ मगर मादूम हैं जो,
मिटटी की तहें
मिटटी की तहें
शहर का तालाबजाने कब भरेगा?
नहर का पानी सुना है दे रहे हैं।
नहर का पानी मगर आने से पहले ही
कहीं यह गन्दगी से भर न जाए।
अब यहाँ जो भी दिखायी दे रहा है।
सब यहाँ ऐसा नहीं था।
यह वही तालाब है जिसमें कभी,
हर सुबह कितने ही कँवल खिलते रहे हैं।
धूप, जाड़ा, आसमां, ताज़ा हवा,
बाहें पसारे,
इस जगह मिलते रहे हैं।
मैं बहुत छोटा था शायद,
कुछ कहीं था भी की बस
यूँ ही सा था मैं।
बारिश आती, और हम बच्चे,
महल्लों से निकल कर,
भीगते किलकारियां भरते,
गली, बाज़ार, चौराहों को पीछे छोड़ते,
भागे चले जाते,
कि बारिश में सब इस तालाब में
मिल कर नहायें।
एक दूजे को छुएं,
पानी में तैरें, छप छपाएं।
अब कई दिन बाद आया हूँ
तो देखा है,
यहाँ सब किस कदर बदला हुआ है।
अब यहाँ दल दल है, keechad है,
फज़ा में गंदगी है।
उस तरफ़ का एक हिस्सा,
शहर में जो जानवर मरता है,
उस की खाल अलग करने के काम आने लगा है,
गिध्ध कव्वों और कुत्तों को,
बहुत बहाने लगा है।
दरमियाँ
अब भी कहीं कुछ है,
कि ज्कई के नीचे सुगबुगाता सा है,
पुराने मौसमों की याद को थामें हुए है।
कोई कहता है उसे मरघट से जोड़ा जा रहा है,
और कोई घाट के मन्दिर के बारे में
यह कहता है
कि “तोडा जा रहा है”।
कुछ का कहना है
कि जब चारों तरफ़
यह गन्दगी से भर उठे
तो एक दो मिटटी की हल्की सी
तहे दे कर
इसे इक खूबसूरत पार्क में
तब्दील कर दें।
या अगर सरकार को मंज़ूर हो तो,
इस जगह को बेच डाले
ताकि लोग
अपने लिए इस शहर में
कुछ घर बनालें।
अग्ज़ास्ट फैन
अग्ज़ास्ट फैन
मैं आवारा तबीयत तो नही
लेकिन हमेशा
अपनी महवर पर अकेले घूमते रहना
मुझे अच्छा नहीं लगता।
यहाँ तो यूँ भी चारों ओर बस मकड़ी के जाले
धूल मिटटी और अँधेरा है ।
यह छोटा सा दरीचा,
जिस के अन्दर,
इन सभी के साथ मैं बरसों से जिंदा हूँ
हमारा सब का मुश्तरका बसेरा है।
इधर बाहर मेरे मुंह की तरफ़
आकाश खुलता है
तो पीछे एक बूढा रेस्तरां
जो नित नयी तहज़ीब के सांचे में ढलता है,
वो शायद सो रहा है,
और मेरी आवाज़ सन्नाटे पे तारी है,
मेरी आवाज़ गोया
सो रहे अजगर के मुंह से साँस जारी है।
अभी कुछ देर पहले तक
वहां सब रौशनी,
हर मेज़ पर लोगों का जमघट था,
मगर अब चंद खाली कुर्सियां
मेज़ों के सीनों से लगीं आराम करती हैं
यह सब हर सुबह उठ कर
आने वाले ग्राहकों के नाम पर
बनती संवारती हैं।
मैं काफी थक गया हूँ
अब जो थोड़ी देर को बत्ती चली जाए
तो मुझको नींद आ जाए।
मैं, आज आंखों में
उस बच्चे की भोली मुस्कराहट ले के सोऊंगा,
जो कल इस रेस्तरां में
अपनी मां के साथ के साथ पहली बार आया था,
मेरी आवाज़ पर हैरतज़दा हो कर
जब उसने मां से कुछ पूछा
तो उसने यूँ बताया था,
की “बेटे! आदमी की साँस,
रोटी की महक, सालन की खुशबू
और सिगरेट का धुआं
इक तरहां से कैद हो जायें
तो यह पंखा उन्हें अपनी ज़रिये
खैंच कर
ताज़ा हवा का रास्ता हमवार करता है,
यह पंखा जानते हो आदमी से प्यार करता है।”
यह सुन कर फूल से बच्चे के चेहरे पर
न जाने कौन से जन्मों की
मीठी मुस्कराहट जाग उठ्ठी थी
मेरे दिल से भी जिसको देख कर
इक आग उठ्ठी थी ।
उसी इक आग की लौ में
मैं अपने आप को शायद कभी पहचान पाऊँगा
मगर इस धूल मिटटी और अंधेरे से
भला कब तक निभाऊंगा ।
मैं काफी थक गया हूँ,
अब जो थोड़ी देर को बत्ती चली जाए
तो मुझको नींद आ जाए,
मुझे कल सुबह
फिर ताज़ा का रास्ता हमवार करना है
की उस बच्चे की मीठी मुस्कराहट के लिए
इस ज़िंदगी से प्यार करना है।
जन्म-जन्मान्तर
जन्म जन्मान्तर
सात मंज़िला साहिल की उस आलीशान इमारत की
चौथी मंज़िल से,
एक चीख उठी थी,
साथ साथ ही इक किलकारी,
और इन दो के पीछे पीछे
एक ठहाका बेहद भारी।
शायद कोई चीज़ गिरी थी,
जिसे पकड़ने,
नीचे ऊपर इधर उधर से
लोग अचानक भाग पड़े थे।
कोई गोताखोर नही था
और मैं तैराक।
यूँ ही बस देखा देखी कूद पड़ा था।
और समंदर को छूने से पहले मैने
साफ़ सुनी थी तीन आवाजें
इक किलकारी एक चीख
और एक ठहाका।
पानी की गहरायी का क्या अंदाजा था
मैं जैसे ही नीचे आया,
मैने पाया
दूर दूर तक तल का कहीं गुमान नही है,
पाँव सहारे को कोई पत्थर
कोई चटटान नहीं है।
तभी पलटने का ख्याल जब मन में आया,
मैं घबराया,
दम घुटता है।
साँस साँस मैं ऊपर को बढ़ता आता हूँ,
सतह समंदर को भी लेकिन
साथ साथ चढ़ता पाता हूँ।
जाने इस पानी से बाहर कब आऊंगा?
और उस आलीशान ईमारत में फिर वापिस कब जाऊंगा
खौफ यही है,
मेरे साथ समंदर भी
यूंही ऊपर उठता आया तो,
उस किलकारी
और ईमारत का क्या होगा?
तहज़ीब का सफ़र
तहज़ीब का सफर
झुलसती दोपहर,
नंगे बदन बच्चे भिखारन के
सभी के हाथ में किश्कौल,
दायीं, सम्त का आकाश खाली है,
सरों पर धूप है, या
एक बेआवाज़ गाली है,
कभी किश्कौल उठ उठ कर
फिज़ा का मुंह चिढाते हैं,
कभी बच्चे उन्हें गंदले सरों पर रख के
तबला सा बजाते हैं।
सफर तहजीब का सड़कों पे जारी है,
मगर इस शहर में,
अंधी भिखारन के लिए
अब दो कदम चलना भी भारी है।
ज़रा सी छाँव आयी
रुक गए, चारों तरफ़ देखा;
ज़रा दम साध ले
तो फ़िर कहीं आगे का कुछ होगा।
कहीं से कोई सिक्का
फ़िर किसी किश्कौल में आए,
तो यह अंधी भिखारन
अपना डेरा आगे ले जाए।