गरज बरस के कभी मिट्टीयों को पानी कर
गरज बरस के कभी मिट्टीयों को पानी कर
नफ़स नफ़स मिरे एहसास में रवानी कर
ये बस ज़मीन के रंगों में खो के रह गया है
बदन का रंग बदल और आसमानी कर
गुज़ार और कहीं अपने बाक़ दिन लेकिन
मिरे बदन में ठहर और फिर जवानी कर
मैं इस ताअत-ए-बे-जा से ऊब जाता हूँ
चल आज बंदा-ए-दिल मुझ से सरगरानी कर
मिटा दे आज सभी हर्फ़ लौह-ए-क़िस्मत से
फिर उस के बाद कोई दूसरी कहानी कर
ख़मोशियों के मुक़द्दर में सिर्फ़ चीख़ें हैं
इसी लिए कोई आवाज़ दरमियानी कर
गरेबाँ-चाक फिरे साहिब-ए-रफ़ू न मिला
गरेबाँ-चाक फिरे साहिब-ए-रफ़ू न मिला
तिरी तरह का मगर कोई कू-ब-कू न मिला
ये वहम था कि अक़ीदा मगर तिरे जैसा
बहुत की हम ने ज़माने में जुस्तुजू न मिला
तमाशा-ए-ग़म-ए-दुनिया में खो गए ख़ुद हम
फिर इस की फ़िक्र कहाँ से करें कि तू न मिला
हर एक शख़्स को बाँटा गया जहाँ लेकिन
गिला है सब को हमें हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
मुझे सुनाई न दे पाए उस की ख़ामोशी
मिरे सुकूत में इस दर्जा हा-ओ-हू न मिला
अभी से तेरे लबों में बला की सुर्ख़ी है
अभी से अपने तबस्सुम में ये लहू न मिला
जब भी मिरा ख़ालिक मुझे ईजाद करेगा
जब भी मिरा ख़ालिक मुझे ईजाद करेगा
हर तरह से मजमुआ-ए-इज़्दाद करेगा
मैं लौट के फिर उस की ही जानिब न चला आऊँ
वो सोच समझ कर मुझे आज़ाद करेगा
हम को तो ये ख़ुश-फ़हमी नहीं हैं कि ज़माना
जब हम नहीं होंगे तो हमें याद करेगा
अब भी मुझे है उस चाँद-बदन से
इक रात वो मेरे लिए बर्बाद करेगा
पहले वो उजाड़ेगा बुरी तरह से मुझ को
फिर मुझ में बसेगा मुझे आबाद करेगा
बस देखने आ जाएगा यूँ ही मुझे इक दिन
ये काम अगरचे वो मिरे बाद करेगा
इस काम में मसरूफ़ रहेगा कहीं दिन भर
तय्यार मगर रात को शब-ज़ाद करेगा
कैसे बदलेगा ये मंज़र सोचता रहता हूँ मैं
कैसे बदलेगा ये मंज़र सोचता रहता हूँ मैं
बोलता कुछ भी नहीं पर देखता रहता हूँ मैं
बंद कर लेता है वो बिस्तर की मुट्ठी में मुझे
और नंगे जिस्म के अंदर खुला रहता हूँ मैं
जानता हूँ हर्फ़-कारी का कोई मतलब नहीं
फिर भी ग़ज़लों में तुझी से बोलता रहता हूँ मैं
कुछ नहीं मिलना मुझे मालूम है अच्छी तरह
फिर भी जैसे तुझ को ख़ुद में ढूँढता रहता हूँ मैं
चाहता भी हूँ कि वो इक दिन मुझे खुल कर पढ़े
जब कि उस के सामने ही कम-नुमा रहता हूँ मैं
क्यूँ नहीं कहता ख़ुदा से भी मिल जाए मुझे
कौन है जिस के लिए ख़ामोश सा रहता हूँ मैं
और जब हासिल मुझे हो जाएँ तेरी गर्मियाँ
बर्फ़ हो कर अपने ऊपर ही जमा रहता हूँ मैं
ख़त्म करना है मुझे ख़्वाब का क़िस्सा इक दिन
ख़त्म करना है मुझे ख़्वाब का क़िस्सा इक दिन
बन के ताबीर कहीं तू मुझे मिल जा इक दिन
तुझ को आना है तो जल्दी से चली आ मुझ में
बंद होना है मिरी आँखों का रस्ता इक दिन
मुझे में तहलील न होने का जुनूँ है उस को
और मैं होश से ये काम करूँगा इक दिन
मैं ने इस रात की ख़ातिर कई दिन हारे हैं
अब तो बस चाहिए मुझ को मिरा हिस्सा इक दिन
इसलिए हम ने बुराई से भी नफ़रत नहीं की
क्यूँकि हम ढूँढ रहे थे कोई अच्छा इक दिन
मिरा नसीब अगर मेहरबान निकला तो
मिरा नसीब अगर मेहरबान निकला तो
वो आज रात इसी सम्त आन निकला तो
न पूछ फिर मिरी आँखों ने और क्या देखा
बचा के जब तिरी गलियों से जान निकला तो
वो एक लम्हा कि जिस को विसाल कहते हैं
तुम्हारे और मिरे दरमियान निकला तो
ख़ुदा के नाम तो मेरी सिफ़ात जैसे हैं
फ़साना उस का मिरी दास्तान निकला तो
ये रास्ता तो है कुछ कुछ तिरे बदन जैसा
यहीं कहीं पे हमारा मकान निकला तो
मैं किस यक़ीन से इंकार-ए-हश्र करता हूँ
ये सिर्फ़ वहम हुआ तो गुमान निकला तो
फिर कोई रूप ले कर ज़िंदा न हो सकूँगा
फिर कोई रूप ले कर ज़िंदा न हो सकूँगा
जब तक न मैं ख़ुद अपनी मिट्टी में जा मिलूँगा
ये रौशनाई यूँही लिखती रहेगी मुझ को
और मैं भी क्या मज़े से ये दास्ताँ पढूँगा
और जब समेट लेगी मुझ को मिरी ख़ामोशी
आवाज़ की तरह से ख़ुद को सुना करूँगा
मैं रास्ता हूँ मुझ पर से सब गुज़र रहे हैं
मैं कौन सा किसी के दामन को थाम लूँगा
बादल की तरह मुझ पर छाया हुआ है कोई
वो नम हुआ तो जैसे मैं भी बरस पडूँगा
ज़िंदा रहेंगे यूँही मेरे हुरूफ़ मुझ में
मैं लफ़्ज़ हूँ बदल कर कुछ और हो रहूँगा