अब के जुनूँ में लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं
अब के जुनूँ में लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं
ज़ख़्म-ए-जिगर में सुर्ख़ी-ए-रूख़सार भी नहीं
हम तेरे पास आ के परेशान हैं बहुत
हम तुझ से दूर रहने को तय्यार भी नहीं
ये हुक्म है कि सौंप दो नज़्म-ए-चमन उन्हें
नज़्म-ए-चमन से जिन को सरोकार भी नहीं
तोड़ा है उस ने दिल को मिरे कितने हुस्न से
आवाज़ भी नहीं कोई झंकार भी नहीं
हम पारसा हैं फिर भी तिरे दस्त-ए-नाज़ से
मिल जाए कोई जाम तो इंकार भी नहीं
ठहरे अगर तो दूर निकल जाएगी हयात
चलते रहो कि फ़ुर्सत-ए-दीदार भी नहीं
जश्न-ए-बहार देखने वालों को देखिए
दामन में जिन के फूल तो क्या ख़ार भी नहीं
लोगों हम छान चुके जा के संमुदर सारे
लोगों हम छान चुके जा के संमुदर सारे
उस ने मुट्ठी में छुपा रक्खे हैं गौहर सारे
ज़ख़्म-ए-दिल जाग उठे फिर वही दिन यार आए
फिर तसव्वुर पे उभर आए वो मंज़र सारे
तिश्नगी मेरी अजब रेत का मंज़र निकली
मेरे होंठों पे हुए ख़ुश्क समुंदर सारे
उस को ग़मगीन जो पाया तो मैं कुछ कह न सका
बुझ गए मेरे दहकते हुए तेवर सारे
आगही कर्ब वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास
मेरे ही सीने में उतरे हैं ये ख़ंजर सारे
दोस्तों तुम ने जो फेंके थे मिरे आँगन में
लग गए घर की फ़सीलों में वो पत्थर सारे
ख़ून-ए-दिल और नहीं रंग-ए-हिना और नहीं
एक ही रंग में हैं शहर के मंज़र सारे
क़त्ल-गह में ये चराग़ाँ है मिरे दम से ‘बशीर’
मुझ को देखा तो चमकने लगे ख़ंजर सारे
मैं जितनी देर तिरी याद में उदास रहा
मैं जितनी देर तिरी याद में उदास रहा
बस उतनी देर मिरा दिल भी मेरे पास रहा
अजब थी आग थी जलता रहा बदन सारा
तमाम उम्र वो होंटों पे बन के प्यास रहा
मुझे ये ख़ौफ़ था वो कुछ सवाल कर देगा
मैं देख कर भी उसे उस से ना-शनास रहा
तमाम रात अजब इंतिशार में गुज़री
तसव्वुरात में दहशत रही हिरास रहा
गले लगा के समुंदर हसीन कश्ती को
सुकूत-ए-तीरा-फ़ज़ाई में बद-हवास रहा
‘बशीर’ मैं उसे किस तरहा बे-वफ़ा कह दूँ
निगाह बन के जो इस दिल के आस-पास रहा
मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा
मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा
वो जिस्म फूल है लेकिन मुझे जला देगा
तुम्हारे मेहरबाँ हाथों को मेरे शाने से
मुझे गुमाँ भी न था वक़्त यूँ हटा देगा
है और कौन मिरे घर में ये सवाल न कर
मिरा जवाब तिरा रंग-ए-रूख़ उड़ा देगा
चले भी आओ कि ये डूबता हुआ सूरज
चराग़ जलने से पहले मुझे बुझा देगा
खड़े हुए हैं यहाँ तो बुलंद-हिम्मत लोग
थके हुओं को भला कौन रास्ता देगा
दरों को बंद करो वर्ना आँधियों का ये ज़ोर
तुम्हारे कच्चे घरों की छतें उड़ा देगा
जहाँ सब अपने ही दामन को देखते हों ‘बशीर’
उस अंजुमन में भला कौन किस को क्या देगा
शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ
शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ
ज़िंदगी आ जा कभी हम बे-घरों के दरमियाँ
मैं हूँ वो तस्वीर जिस में हादसे भरते हैं रंग
ख़ाल-ओ-ख़त खुलते हैं मेरे ख़ंजरों के दरमियाँ
पहले हम ने घर बना कर फ़ासले पैदा किए
फिर उठा दीं और दीवारें घरों के दरमियाँ
अहद-ए-हाज़िर में उख़ुव्वत का तसव्वुर है मगर
तजि़्करों में काग़ज़ों पर रहबरों के दरमियाँ
उन शहीदान-ए-वफ़ा के नाम मेरे सब सुख़न
सर-बुलंदी जिन को हासिल है सरों के दरमियाँ
कैसा फ़न कैसी ज़ेहानत ये ज़माना और है
सीख लो कुछ शोबदे बाज़ीगरों के दरमियाँ
उड़ गया तो शाख़ का सारा बदन जलने लगा
धूप रख ली थी परिंदे ने परों के दरमियाँ
ये जो ख़ाना है सुकूनत का यहाँ लिख दो ‘बशीर’
फूल हूँ लेकिन खिला हूँ पत्थरों के दरमियाँ
तजि़्केरे में तिरे इक नाम को यूँ जोड़ दिया
तजि़्केरे में तिरे इक नाम को यूँ जोड़ दिया
दोस्तों ने मुझे शीशे की तरह तोड़ दिया
ज़िंदगी निकली थी हर ग़म का मुदावा करने
चंद चेहरों ने ख़यालात का रूख़ मोड़ दिया
अब तो आ जाएँ मुझे छोड़ के जाने वाले
मैं ने ख़्वाबों के दरीचों को खुला छोड़ दिया
क़द्र-दाँ क़ीमत-ए-बाज़ार से आगे न बढ़े
फ़न की दहलीज़ पे फ़नकार ने दम तोड़ दिया
उस चमन में भी तुम्हें चैन मयस्सर न हुआ
जिस चमन के लिए तुम ने ये चमन छोड़ दिया
यूँ तो रूस्वा-ए-ज़माना सही लेकिन उस ने
मेरे साथ आ के नए दौर का रूख़ मोड़ दिया
मैं मुसाफ़िर नहीं आवारा-ए-मंज़िल हूँ ‘बशीर’
गर्दिश-ए-वक़्त ने ये देख के दम तोड़ दिया