दाग़
चेहरे पर
चेचक के दाग़
भले ही
नहीं लगते हैं अच्छे
मगर वे
संत की तरह
मन की व्यथा कहते हैं
दाग़
हमेशा सामनेवालों से
करते हैं अर्ज़
मेरे भीतर
झाँक कर देखो
हो सके तो
पा लो ऎसी दीद
जो देख सके बेदाग़ दिल
दिखा सके दिल के दाग़।
डर
बेटी फिर आएगी
डर लगता है
बेटी फिर जाएगी
डर लगता है
वसन्त की तरह आना होता है उसका
और हेमन्त की तरह जाना
राह है बीहड़, कंटकित, दुर्गम
हिंस्र पशुओं से भरा
मोड़ है अजाना
फिर भी बेटियों को पड़ता है आना
बेटियों को पड़ता है जाना
तितलियों की तरह
हँसी-ख़ुशी निकलती हैं बेटियाँ
फुलसुँघनी की तरह मँडराती हैं
दिल धड़कने लगता है जनक का
जब समय पर नहीं लौटती है मैथिली या वैदेही
बेटियाँ हैं या गोकुल की गोधूलि में गुम गौएँ
कहीं भी जाएँ ब्रज को बिसार नहीं पाती हैं।
जब तक हैं बेटियाँ
भय का पर्याय है शहर
फिर कैसे न कहें कि डर लगता है
चलो, मन को बना लें वृन्दावन
घेर कर मार डालें इस डर को
अन्तरिक्ष तक जाएँ और सकुशल लौट आएँ बेटियाँ
अप्रासंगिक हो जाए पुराना तकियाक़लाम–
डर लगता है
डर लगता है।
झुककर प्रणाम
सुकवि हरिवंशराय बच्चन को समर्पित
अन्याय को मैं क्यों करूँ
झुककर प्रणाम
सेवक सही, याचक नहीं हूँ
असत्य का वाहक नहीं हूँ
तलवे चाटूँ क्यों किसी के,
मैं नहीं किसी का गुलाम
अन्याय को मैं क्यों करूँ
झुककर प्रणाम
तमस है, कुहरा घना है
और सच कहना मना है
पंथ अपना कँटकित है
और ध्वज अरुणिम ललाम
अन्याय को मैं क्यों करूँ
झुककर प्रणाम
राजा यहाँ नंगा खड़ा है
अक्ल पर परदा पड़ा है
हमने दिखाया आईना,
खोले हैं अब प्यादे भी लाम
अन्याय को मैं क्यों करूँ
झुककर प्रणाम
हइआ हो…
धार के विपरीत चलो अब
हइआ हो, हइया हो
बिना चले मत हाथ मलो अब
हइआ हो, हइया हो
फ़ौलादी साँचे में ढलो अब
हइआ हो, हइया हो
दले जो तुमको उसे दलो अब
हइआ हो, हइया हो
कभी न पहुँचेगी किनारे तक
तेरे मन की नइया हो
हाथ पे हाथ धरे क्यों बैठे
नइया पार लगइया हो ।