यह दुनिया
मूर्ख
ज्ञान को मुफ़्त में बाँटते रहते हैं
लोग उनसे दूर भागते रहते हैं
बनिए
ज्ञान को बेचकर अपना धन्धा चलाते हैं
मालामाल होकर सरकार से पुरस्कार पाते हैं
जो मूर्ख हैं न विद्वान
वे खा-पीकर आराम से रहते हैं
उन्हें किसी से कुछ मतलब नहीं होता !
प्रेम का दरिया
फ़ैज की कविता
और इकबाल बानो की आवाज़ !
दोनों को प्यार करता हूँ
इन शब्दों के साथ
जब प्रेम की दरिया में बहकर
हम अपनी हक़ीक़त देखेंगे
हम अपनी सूरत देखेंगे
हर झूठ से मुँह को फेरेंगे
नफ़रत से भरे इनसानों में
चाहत के इरादे देखेंगे
हम देखेंगे !
फिर वही बात
फिर वही बात,
वही तस्वीर
चली आई है
लेकिन जज़्बात में
कोई और
उभर आई है
विचारों में
भटकती रही
उसकी परछाई है
एक उम्मीद से भरी
ज़िन्दगी की
तन्हाई है
होना
हमेशा की तरह
हमेशा नहीं होता
कभी वह भी होता है
जो कभी नहीं देखा
पर सिलसिले से
कटकर कुछ भी नहीं होता
जो भी होता है
वह जड़विहीन
नहीं होता
किस तरह यह शख़्स यायावर हुआ
आत्म-कथा
बहुत सारे लोग मुझसे पूछते हैं
किस तरह मैं यायावर हुआ ?
यायावर हुआ तो उसकी जाति और गोत्र क्या है ?
वह किस सम्प्रदाय का है ?
तो मित्रो ! आज मैं स्पष्टीकरण दे रहा हूँ ।
मैं जब पैदा हुआ तो अपने माता-पिता का तीसरा पुत्र था । बाद में मेरा चौथा भाई हुआ । मेरे पिता राजा दशरथ नहीं थे, पर चार पुत्रों के पिता अवश्य थे । रामायण की तरह तीसरे पुत्र को भरत पुकारा जाने लगा । बड़े भाइयों का मैं आज्ञाकारी था । भरत सम भाई था । मैं बचपन से ही कुछ नया करने की कोशिश में लगा रहता था । सबसे पहले मैंने अपने भरत को भारत बनाया और यह मेरे सभी सर्टिफिकेटों में दर्ज भी हो गया । फिर जब साहित्यिक क्षेत्र में आया तो मैंने अपने सिंह को हटाने का निर्णय लिया । हिन्दी साहित्य में सिंहों की भरमार थी और मैं अज्ञेय से बेहद प्रभावित था, इसलिए भारत के साथ यायावर लिखने लगा और छपने भी लगा। इस तरह यह शख़्स यायावर हुआ !
लेकिन यह यायावर है क्या ? सतत चिन्तन-मनन करने वाले और घूमते रहने वाले मुनियों को यायावर कहा जाता है । जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है :
अरे यायावर अब तेरा निस्तार नहीं !
यह मनु के लिए कहा गया कथन है । मन ही यायावर है । वह कुछ-न-कुछ खोजता रहता है । कुछ-न-कुछ पाना चाहता है । वह निरन्तर गतिमान रहता है । वह भटकता रहता है । बुद्ध भी ऐसे ही मुनि थे । उनका एक नाम यायावर भी है । संस्कृत के आचार्यों में राजशेखर को भी यायावर कहा जाता है ।
हिन्दी के पहले खोजी यायावर राहुल सांकृत्यायन थे । उन्होंने तो घुमक्कड़ी का एक शास्त्र ही निर्मित कर दिया है । नागार्जुन उन्हीं के शिष्य थे और उन्होंने मुझे अपना शिष्य बनाया । लेकिन मुझे अज्ञेय की कविता बहुत प्यारी लगती थी :
क्षितिज ने पलक सी खोली
दमक कर दामिनी बोली
मिलेंगे बरस दिन
अनगिन दिनों के बाद
अरे यायावर ! रहेगा याद !
मैं भी नित नूतन खोज में लगा रहता हूँ । सन्धान रत रहना ही मुझे भाता है । किसी एक आस्था पर मैं टिका नहीं रहता । किसी विचारधारा के खूँटे में बँधकर रहना मुझे मंज़ूर नहीं । यायावर होने की सार्थकता निरन्तर बदलते रहने और कुछ न कुछ नया तलाशते रहने में है ।
यायावर हुआ वर ऐसा-ऐसा !
आत्म-कथा
भारत यायावर की कहानी
सोचता हूँ तो होती है हैरानी !
शुरुआत में साहित्यिक गोष्ठियाँ ख़ूब होती थीं । मैं उनमें बढ-चढ़ कर भाग लिया करता था । अख़बारों में उनकी रपट छपा करती थीं । पर मेरा नाम छपता था भारत आर्यावर्त । तो मित्रों मैं आर्यावर्त हुआ।
बहुत सारे लोग मुझे आया वर कह कर पुकारते । जब वर आया राम हुआ तो बंगाली मित्रों ने जाजा बर कहना शुरू किया ।
जब मेरी शादी हुई तो पत्नी ने मुझे प्यारा-सा वर माना । तब मुझे अच्छा लगा ।
लेकिन विनोबा भावे विश्वविद्यालय के जितने भी पत्र मुझे मिलते रहे हैं, उनमें मेरा नाम भारत ऐयावर लिखा मिला । और एक बार तो ऐयावर की जगह ऐरावत लिखा था ।
आरा के रहने वाले प्रसिद्ध कथाकार मधुकर सिंह ने मुझे कई बार समझाया कि सिंह टाइटिल ही ठीक है । यह ऐइआवर ठीक नहीं !
तो मित्रो ! मैं असमंजस में पड़ा था । तभी 1980 मेरी शादी करवाने के लिए मधुकर सिंह राजकमल प्रकाशन में काम कर रहे महेश नारायण भारतीभक्त से मिलवाने ले गए । उनकी बेटी से मेरी शादी नहीं हो पाई क्योंकि वे मेरे ही कुल-गोत्र के निकल गए । हमलोग परमार वंशी थे। वहीं मेरी पहली बार भेंट नागार्जुन से हुई ।उन्होंने यात्री बनकर यायावर को अपनाया ।
और जब अज्ञेय से पहली बार भेंट हुई तो उन्होंने कहा कि वे मुझसे मिलने हजारीबाग आने की योजना बना रहे थे। मैंने जब पूछा, क्यों? तो उन्होंने कहा कि मुझसे मिलने का बहुत मन था। मैंने कहा, अरे यायावर रहेगा याद !
यह मेरे जीवन का वर था कि नागार्जुन और अज्ञेय ने मेरा वरण किया । और जीवन में क्या चाहिए !
लेकिन वर शब्द को लेकर नामवर सिंह की बात मैं भूल नहीं पाता । वे 2000 ई0 में धनबाद आए थे ।उन्होंने कहा था कि नामवर और यायावर में जो वर है, वही वर हमलोगों के सम्बन्ध और आत्मीयता का कारक है ।
लेकिन एक बन्धु ऐसे थे जो य को च जैसा लिखते थे । उन्होंने जब मुझे पत्र लिखा तो चाचावर पढ़कर मैं खिलखिला कर हंस पड़ा था और जब भी उस मित्र की याद आती है, आज भी चाचावर शब्द की याद आती है और मुस्कुरा पड़ता हूँ ।
ग़ालिब
एक बूढ़ा फ़कीर
ठण्ड से भीगी सुबह में
टनटनाता दिख गया था
मैंने पूछा —
मर जाने के बाद भी
घर क्यों नहीं जाते ?
खिलखिलाता हंस पड़ा वह —
कौन जाता है ग़ालिब
इन गलियों को छोड़कर !
मैंने पूछा
क्या रखा है
इस असार संसार में ?
सम में समाहित सार ही संसार है
जब था ख़ुदा था
अब ख़ुदी हूँ
तलाशता फिरता हूं
होने, नहीं होने को
जब तक मेरे अल्फ़ाज़ हैं
मैं हूँ
रहूँगा इन्हीं गलियों में भटकता
और भी कहता बहुत-कुछ
चल पड़ा वह
इन्हीं गलियों में
कहीं जा खो गया !
और उसकी छाया
आज भी
मेरे अन्तस में
समाहित
ग़ज़ल कोई गुनगुनाती है
चोटी पर खड़े आदमी को देखो !
चोटी पर खड़े आदमी में
हमें पहले देखना चाहिए
कि वह किस तरह चोटी पर पहुँचा
किसलिए पहुँचा
और पहुँच कर क्या कर रहा है ?
चोटी पर पहुँच कर आदमी प्राय: अकेला हो जाता है
वहाँ दुकेला होने की जगह भी नहीं होती
इस अकेलेपन से क्या उदास हो जाता है चोटी का आदमी !
चोटी के आदमी की पीर को
कोई जान भी नहीं पाता
और वह छुपाता रहता है अपने ज़ख़्म
चोट खाकर भी पहुँचता है
चोटी पर आदमी
बस, उसकी शक़्ल थोड़ी बदल जाती है
उसकी आवाज़ कहीं दूर से चल कर आती है
चोटी
एक ऐसी जगह है
जहाँ जाने की ज़रूरत नहीं
फिर भी कुछ चतुर लोग
किसी को चोटी पर बिठाकर
अपनी राजनीति चमकाते हैं
कुछ धन्धेबाज़ों का धन्धा चल निकलता है
कुछ भजन-मण्डलियाँ मृदंग और झाल बजाकर माल कमाती हैं !
कविता को सम्बोधित !
भाषा की जड़ों में तुम हो
हर विचार दर्शन रूपायित तुमसे
हर खोज, हर शोध की वजह तुम हो
सभ्यता की कोमलतम भावनाएँ तुमसे
कुम्हार ने तुमसे सीखा सिरजना
मूर्तिकार की तुम प्रेरणा
चित्रकार के चित्रों में तुम हो
हर दुआ, दुलार तुमसे
नर्तकी का नर्तन तुम हो
संगतकार का वादन
रचना का उत्कर्ष तुम हो
प्रेम की पाठशाला
बान्ध दो हाथ मेरे
फिर भी उनमें स्पर्श भरा होगा तुम्हारा
बान्ध दो पाँव
छोड़ आओ किसी बियावान में
तुम तक पहुँच जाएँगे
बान्ध दो पट्टी आँखों पर
किन्तु वे देखती रहेंगी
अपलक तुम्हें
चाहो तो सी दो मुख
पर तुम तक ज़रूर पहुँचेगी
मेरी पुकार !
मित्र से विछोह
अनिल जनविजय को महसूस करते हुए
मित्र दूर है
मिलने की कोई उम्मीद नहीं
उससे बिछड़ने की पीड़ा सह रहा हूँ
जब हृदय के तार जुड़े हों
कि मर जाएँगे पर अलग नहीं होंगे
कि हम
अपनी सम्पन्नता की डींग नहीं हाँकते
प्रेम को समझौता नहीं समझते
जब अस्तित्व के लिए श्रम और संघर्ष
मित्र के बिना कठिन हो
वह संकटों से घिरा हुआ अकेला और दूर हो
दिल कचोटता रहता है
होंठ भिंचे रहते हैं
चेहरा जलता रहता है
आँसुओं से तर-बतर
मेरा सच्चा और प्यारा मित्र !
दूर है मुझसे और मैं नितान्त अकेला हूँ
मेरे पास कुछ नहीं है कहने को
एक तूफ़ान-सा सीने में उठा करता है
गर्म हवा झुलसाती है मुझे
या सर्द हवाओं से कँपकँपाती है रूह
तीखी बातें सुनकर भी कोई निशान नहीं पड़ता
मित्र को देखने की ख़ुशी रुलाती है मुझे
जब भी ज़िक्र चलता है
बीते दिनों का
हंसता-मुस्कुराता एक चेहरा
प्रकट होकर
जीने का सहारा बनता है
मित्र से विछोह
अनिल जनविजय को महसूस करते हुए
मित्र दूर है
मिलने की कोई उम्मीद नहीं
उससे बिछड़ने की पीड़ा सह रहा हूँ
जब हृदय के तार जुड़े हों
कि मर जाएँगे पर अलग नहीं होंगे
कि हम
अपनी सम्पन्नता की डींग नहीं हाँकते
प्रेम को समझौता नहीं समझते
जब अस्तित्व के लिए श्रम और संघर्ष
मित्र के बिना कठिन हो
वह संकटों से घिरा हुआ अकेला और दूर हो
दिल कचोटता रहता है
होंठ भिंचे रहते हैं
चेहरा जलता रहता है
आँसुओं से तर-बतर
मेरा सच्चा और प्यारा मित्र !
दूर है मुझसे और मैं नितान्त अकेला हूँ
मेरे पास कुछ नहीं है कहने को
एक तूफ़ान-सा सीने में उठा करता है
गर्म हवा झुलसाती है मुझे
या सर्द हवाओं से कँपकँपाती है रूह
तीखी बातें सुनकर भी कोई निशान नहीं पड़ता
मित्र को देखने की ख़ुशी रुलाती है मुझे
जब भी ज़िक्र चलता है
बीते दिनों का
हंसता-मुस्कुराता एक चेहरा
प्रकट होकर
जीने का सहारा बनता है
संकल्प
असफलताओं के भीतर से
निखर कर निकलना ही
जीवन का सार है ।
महत्त्वपूर्ण बनने के लिए
अपनी कमियों को छुपाने की जगह
उन्हें पहचान कर
उन्हें दूर करने की
निरन्तर कोशिश करनी चाहिए ।
हार नहीं मानना,
असफलताओं से घबराकर
पलायनवादी नहीं बनना है,
यह संकल्प हमारे भीतर जगना चाहिए ।
छद्म क्रान्तिकारी
वे घर से निकले
तलवारें लिए
जो काग़ज़ की थीं बनी हुईं
दमदार नहीं निकलीं
वे कायर थे
रहते थे केवल डरे-डरे
कहते थे बातें रक्तसनी
खूँखार नहीं निकले
उनकी बातों में हवा भरी
क्रान्तिकारी कहलाने का था शौक़ बहुत
बेक़ार बहुत निकले
वे हत्यारों के साथ खड़े
हंसते थे उनपर कविता में
वे सड़े हुए आलू से थे
सड़ान्ध बहुत करते