आदमी
दिन में सूरज की रौशनी
रात में बिजली की चकाचौंध
आख़िर अंधेरा !
जाए तो जाए किधर ?
सिमटकर
दुबक गया अंधेरा
आदमी के अन्दर
और
आहिस्ता-आहिस्ता
दीमक बनकर-
शख़्सियत
वो
इंसानियत को
निगलता जा रहा है!
आदमी
अब आदमी नहीं……..
बस !
लाश बनता जा रहा है !
तुम्हारा नाम
सुबह-सवेरे
धरती की गोद में
मखमल-सी मुलायम दूब के शीर्ष पर
मोतियों-सी चमकती ओस की बूँदों पर
लिख दिया है मैंने तुम्हारा नाम ।
किशोर कल्पनाओं की पर्वतीय चोटियों पर
मोरपंखी झाड़ियों पर
समुद्री उफ़ानों पर
सरगम के तरानों पर
चितेरे बादलों की कूचियों पर
विस्तृत नीले आकाश के कैनवास पर
लिख दिया है मैंने
तुम्हारा नाम ।
कोसी के कछार में
मछली की टोह में जमीं
बगुलों की ध्यानमुद्रा पर
शैवाल जाल में छन कर आती
पतली जलधार पर
लिख दिया है मैंने
तुम्हारा नाम ।
नदी किनारे झुके
बरगद की डालियों पर
कोमल कठोर टहनियों पर
चिड़ियों की बहुरंगी पाँखों पर
उनके अनुराग भरे कलरव पर
लिख दिया है मैंने
तुम्हार नाम ।
कोसी के एकान्त तट पर
धधकती चिता से निकलकर
धुएँ को चीरती हुई
ऊपर उठ रही नीली-पीली लपटें
जो राहे बनाती हैं-सजीले बादलों तक….
काँप रहे हाथों से, उन राहों पर भी
लिख दिया है मैंने
तुम्हारा नाम !
अपने नाम के साथ हीं ।