समय के छोर तकइस दुख को छलकाए बगै़र
जाना चाहती थी मैं
समय के छोर तक
पर वह कहीं
था ही नहीं
और मैं
छलक पड़ी
दुख
एक व्यर्थ होता दुख
एक हाय-हाय फँसी हुई दिल में
मृत्यु के नाख़ून गड़ते हैं
कहीं चुभती फाँस तीखी
जीवन मुझे भूला नहीं है
वह अवकाश में है
कहता–
लो, भरो मुझे
जैसे मैं
भरता हूँ दुख को ।
बीच राह में…
खोज
इतने हसीन मंज़र थे
उनकी बरछियाँ चुभती रहीं
दिमाग़ उनकी झिलमिली में उलझा
मन भूला
और देह पर गिरा
सारा युद्ध
मैं एक हारी हुई योद्धा–
मैदानों में दूर तक
छितरी हैं देहें मेरी
मैं आत्माओं को खोजती हूँ
छिन्न-भिन्न ।
असहाय
मैंने प्रेम किया…
सिर्फ़ प्रेम,
कुछ बचा ही नहीं था
क्या करती !
विक्षिप्त
अंधेरे की बिसात से होकर
आती है कोई बात–
कान सुनते हैं
छूते हैं हाथ
वह कहीं भी
घटित नहीं हुई
उसकी खोज में अपने से
बाहर चली जाती हूँ मैं
पर इस तरह नहीं
कि लौटकर आ ही न सकूँ
मैं उन पागलों-सी नहीं
जिन्हें यह भी याद नहीं
कि उनके घर हैं ।
पिछला
गाढ़े गहरे के पीछे
छिपा है फीका
रंग ने कहा–
और हँस दिया
तेज़ के बहुत बाद
आएगा आगे धीमा
बताया रास्ते ने,
वह ठहरा नहीं
मैंने एक फीका उठाया
और धीमे से कहा–
‘चलो!’
इच्छा
मैंने
हवाओं के छोर से
बाँध दिया
इच्छाओं का दामन
देखती हूँ
वे कहाँ तक जाती हैं ।