पाँव
पाँव थककर भी
चलना नहीं छोड़ते
जब तक वे
गंतव्य तक न पहुँच जाएँ…
थक जाने पर कुछ देर
राह में विश्राम कर
पुन: चल पड़ते हैं
अपने लक्ष्य की ओर…
जबकि
घोड़े के रथ पर सवार लोग
या फिर ईंधन से चलायमान
अत्याधुनिकतम गाड़ियों में बैठे लोग
बिना पहियों के
अगले पडाव तक नहीं पहुंच पाते…
मगर
पाँव सदियों से
यात्रा करते आये हैं
कई सम्यताओं
और संस्कृतियों की दास्ताँ कहते!!!
पतन
मानव को अनेक चिन्तायें
चिन्ताओं के अनेक कारण
कारणों के नाना प्रकार
प्रकारों के विविध स्वरुप
स्वरूपों की असंख्य परिभाषायें
परिभाषाओं के महाशब्दजाल
शब्दजालों के घुमावदार अर्थ
प्रतिदिन अर्थों के होते अनर्थ
खण्ड-खण्ड खंडित विश्वास
मानो समग्र नैतिकता बनी परिहास
बुद्धिजीवी चिन्तित हैं
जीविकोपार्जन को लेकर!
क्या करेंगे जीवन मूल्यों को ढोकर?
व्यर्थ है घर में रखकर कलेश
क्या करेंगे मूल्यों के धर अवशेष?
मवाद
धर्म जब तक
मंदिर की घंटियों में
मस्जिद की अजानों में
गुरूद्वारे के शब्द-कीर्तनों में
गूंजता रहे तो अच्छा है
मगर जब वो
उन्माद-जुनून बनकर
सड़कों पर उतर आता है
इंसानों का रक्त पीने लगता है
तो यह एक गंभीर समस्या है?
एक कोढ़ की भांति हर व्यवस्था और समाज को
निगल लिया है धार्मिक कट्टरता के अजगर ने ।
अब कुछ-कुछ दुर्गन्ध-सी उठने लगी है
दंगों की शिकार क्षत-विक्षत लाशों की तरह
सभी धर्म ग्रंथों के पन्नों से!
क्या यही सब वर्णित है
सदियों पुराने इन रीतिरिवाजों में?
रुढियों-किद्वान्तियों की पंखहीन परवाजों में?
ऋषि-मुनियों पैगम्बरों साधु-संतों द्वारा
उपलब्ध कराए इन धार्मिक खिलौनों को
टूटने से बचने की फिराक में
ताउम्र पंडित-मौलवियों की डुगडुगी पे
नाचते रहेंगे हम बन्दर- भालुओं से…!
क्या कोई ऐसा नहीं जो एक थप्पड़ मारकर
बंद करा दे इन रात-दिन
लाउडस्पीकर पर चीखते धर्म के
ठेकेदारों के शोर को?
जिन्हें सुनकर पक चुके हैं कान
और मवाद आने लगा है इक्कीसवीं सदी में!
हकीकत
जब भी मैं समझता हूँ
बड़ा हो गया हूँ
अदना आदमी से
खुदा हो गया हूँ
तो इतिहास उठा लेता हूँ
ये भ्रम खुद-ब-खुद टूट जाता है
मौत रूपी दर्पण में
सत्य का प्रतिबिम्ब दिख जाता है
मिटटी में मिल गए
जितने भी थे धुरंधर
क्या हलाकू-चंगेज
क्या पोरस-सिकंदर
जिन्होंने कायम की थी
पूरी दुनिया में हुकूमत
कहीं नजर आती नहीं
आज उनकी गुरबत
तो ऐ महावीर तुझे
घमंड किस बात का!
दुनिया-ए-फ़ानी में
भला तेरी औकात क्या?
दृढ़ता कभी आश्रित नहीं
जीवन कभी मोहताज नहीं होता
मोहताज तो होता है
हीन विचार, निजी स्वार्थ और क्षीण आत्मविश्वास ।
क्योंकि यह मृगमरीचिका व्यक्ति को
उस वक्त तक सेहरा में भटकती है
जब तक कि
वह पूर्णरूपेण निष्प्राण नहीं हो जाता
इसके विपरीत
जो दृढनिश्चयी, महत्वकांक्षी व स्वाभिमानी है
वह निरंतर
प्रगति की पायदान चढ़ता हुआ
कायम करता है वो बुलंद रुतबा कि —
यदि वो चाहे तो खुदा को भी छू ले ।
वह शख्स घोर निराशा
एवम दु: ख के क्षणों को ऐसे मिटा देता है
जैसे —
किरणों के स्फुटित होने पर
तम का सीना स्वयमेव चिर जाता है ।
रामराज
गाँधी जी कहते थे
जब भारत स्वतंत्र होगा
तो रामराज आ जायेगा
अछूतोद्धार होगा
जातपात; छुआछूत; अस्पृश्यता का अंत होगा
सर्वधर्म एक नियम होगा
गौपूजा होगी
हर कोई एक-दूजे के हृदय में समा जायेगा
गाँधी जी कहते थे
ऐसा रामराज आ जायेगा ।
लेकिन—
स्वतंत्र भारत में
मार-काट होती है
गौ मांस बिकता है
जात-पात के नाम पर आरक्षण होता है
हिन्दू मस्जिद मुस्लिम मंदिर ढाता है
कौन जानता था
स्वतंत्रता प्राप्ति उपरान्त ऐसा हो जायेगा
जब भारत स्वतंत्र होगा
तो ऐसा रामराज आ जायेगा?