अपनी बे-चेहरगी में पत्थर था
अपनी बे-चेहरगी में पत्थर था
आईना बख़्त में समंदर था
सर-गुजिश्त-ए-हवा में लिखा है
आसमाँ रेत का समंदर था
किस की तसनीफ़ है किताब-ए-दिल
कौन तालीफ़ पर मुक़र्रर था
कुछ तो वाज़ेह न था तिरी सूरत
और कुई आईना मुकद्दर था
वो नज़र ख़िज्र-ए-राह मक़तल थी
उस से आगे मिरा मुक़द्दर था
रात आग़ोश-ए-दीदा-ए-तर में
अक्स-ए-आग़ोश-ए-दीदा-ए-तर था
ये क़दम इस गली के लगते हैं
जिस गली में कभी मिरा घर था
दिल ने अपनी ज़बाँ का पास किया
दिल ने अपनी ज़बाँ का पास किया
आँख ने जाने क्या क़यास किया
क्या कहा बाद-ए-सुब्ह-गाही ने
क्या चराग़ों ने इल्तिमास किया
कुछ अजब तौर ज़िंदगानी की
घर से निकले न घर का पास किया
इश्क़ जी जान से किया हम ने
और बे-ख़ौफ-ओ-बे-हरास किया
रात आई उधर सितारों ने
शबनमी पैरहन लिबास किया
साया-ए-गुल तो मैं नहीं जिस ने
गुल को देखा न गुल को बास किया
बाल तो धूप में सफ़ेद किए
ज़र्द किस छाँव में लिबास किया
क्या तिरा ऐतबार था तू ने
क्या ग़ज़ब शहर-ए-नासपास किया
क्या बताऊँ सबब उदासी का
बे-सबब मैं उसे उदास किया
ज़िंदगी इक किताब है जिस से
जिस ने जितना भी इक्तितबास किया
जब भी ज़िक्र-ए-ग़ज़ल छिड़ा उस ने
ज़िक्र मेरा ब-तौर-ए-ख़ास किया
है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है
है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है
वो चेहरा जो अभी देखा नहीं है
बहर-सूरत है हर सूरत इज़ाफ़ी
नज़र आता है जो वैसा नहीं है
इस कहते हैं अंदोह-ए-मानी
लब-ए-नग़मा गुल-ए-नग़मा नहीं है
लहू में मेरे गर्दिश कर रहा है
अभी वो हर्फ़ लिक्खा नहीं है
हुजूम-ए-तिश्नगाँ है और दरिया
समझता है कोई प्यासा नहीं है
अजब मेरा क़बीला है कि जिस में
कोई मेरे क़बीले का नहीं है
जहाँ तुम हो वहाँ साया है मेरा
जहाँ मैं हूँ वहाँ साया नहीं है
मुझे वो शख़्स ज़िंदा कर गया है
जिसे ख़ुद अपना अंदाज़ा नहीं है
मोहब्बत में ‘रसा’ खोया ही क्या था
जो ये कहते कि कुछ पाया नहीं है
हर चीज़ से मावरा ख़ुदा है
हर चीज़ से मावरा ख़ुदा है
दुनिया का अजीब सिलसिला है
क्या आए नज़र कि रास्तों में
सदियों का ग़ुबार उड़ रहा है
जितनी कि क़रीब-तर है दुनिया
उतना ही तवील फ़ासला है
अल्फ़ाज़ में बंद हैं मआनी
उनवान-ए-किताब-ए-दिल खुला है
काँटों में गुलाब खिल रहे हैं
ज़ेहनों में अलवा जल रहा है
मिट्टी जब तक नम रहती है
मिट्टी जब तक नम रहती है
ख़ुशबू ताज़ा-दम रहती है
अपनी रौ में मस्त ओ ग़जल-ख़्वाँ
मौज-ए-हवा-ए-ग़म रहती है
उन झील सी गहरी आँखों में
इक लहर सी हर दम रहती है
हर साज़ जुदा क्यूँ होता है
क्यूँ संगत बाहम रहती है
क्यूँ आँगन टेढ़ा लगता है
क्यूँ पायल बर-हम रहती है
अब ऐसे सरकष क़ामत पर
क्यूँ तेग़-ए-मिज़ा ख़म रहती है
क्यूँ आप परेशां रहते हैं
क्यूँ आँख ‘रसा’ नम रहती है