हे जलप्रपात तुम कहां चले?
हे जलप्रपात तुम कहां चले, हे पारवत्य, तुम कहां चले?
उज्ज्वल, फेनिल, चंचल कलकल
शीतल, निर्मल, मंजुल, छलछल
हे दुग्ध-धवल, झलमल-झलमल
निशिदिन उलीचते मुक्त-फल
हे दानि शिरोमणि, कहां चले, हे जलप्रपात तुम कहां चले?
चंद्रिका-स्नात सिर तारक दल
हे नभ-गंगा से चारु अमल
हे वीतराग, हे अति निश्चल
हे तप:पूत वर वारि विमल
हे तरुण तपस्वी कहां चले, हे जलप्रपात तुम कहां चले?
हे चिर शाश्वत, हे स्नेह विकल
तुम कहां चले, होकर विह्वल
किस सूखी सरिता के संबल
भरते चलते हो मधुर तरल
हे ताप विमोचन कहां चले, हे जलप्रपात तुम कहां चले?
हे अखिल विश्व के जीवन जल
तुम पर आश्रित है सृष्टि निखिल
निष्काम दान करते प्रतिपल
कामना रहित बहते अविरल
हे जन-सेवी तुम कहां चले, हे जलप्रपात तुम कहां चले?
शरद सुधाकर
हृदय गगन के शरद-सुधाकर,
बिखरा कर निज पुण्य-प्रकाश,
उर अम्बर को उज्ज्वल कर दो
कृपा-किरण फैला कर आज।
त्रिविध ताप संतप्त प्राण को,
शीतल सुधा पिला दो आज॥
मानस-उर-में खिले कुमुदिनी,
मधुर मालती महक उठे।
मन चकोर तव दर्शन प्यासे,
थकित विलोचन, मृदु चितवन,
निर्निमेष तव रूप निहारे,
रोम-रोम में हो पुलकन॥