बस्ते ही बचाते हैं
दरवाजे खुल चुके थे
तकिये पर काढ़े हुए फूल
बाहर निकल चुके थे
पतीली में खदबदाता पानी
पेंदे तक पहुंच चुका था
तल्खी के उच्छ्वास से
पीला सोना पिघल रहा था
आंगन की धुंआस से
हवा घुट चुकी थी
सप्तपदी पलट रही थी
पड़ौसी पंखे पकड़ चुके थे
हितैषी आंखें ढ़क चुके थे
गालों पर गुलाब
रक्त की ताजी गंध वाले हाथ
पांवों में छलांग
कंधे का बस्ता
उसने खूंटी पर लटकाया
और दरवाजा बंद किया
मुझे फरक नहीं पड़ता
मुझे फरक नहीं पड़ता
दी यदि तुमने मुझे ठंडी रोटी
भाई को गरम
फर्क नहीं पड़ता
खाने से फीके आम
बासी मिठाई
पहनने में उतरन
सदियों से जानती रही
रोटी में भूख
फलों में गंध-रस
कपड़ों में आवरण
मुझे फर्क नहीं पड़ता
पड़ेगा भाई को
जो खो देगा ऑंख
जानेगा नहीं क्या होती है असली बांट
जानेगा नहीं क्या पाने के लिये
इतना थरथराती है तुला हाथों में
जानेगा नहीं
क्या ले कर क्या खो रहा है अभागा
कौन सी आ
तुम कौन सी आत्मा की बात कर रहे हो?
वह जिसे अस्त्र काट नहीं सकता
अग्नि जला नहीं सकती
जो अछेद्य
अचौर्य
अभेद्य
प्रकाशवान है।
या वह जो पाव रोटी की दूकान के बाहर
विस्फारित खड़ी
रोशनदान के सींकचों का बल तौल रही है।
वह रहेगा सब कहीं
आकाश ने कहा
वह रहेगा नहीं जल में न थल में
न धरती पर न बस्ती में
न नगर में न जंगल में
न पेड़ों पर न घरों पर
न तन में न मन में
न चुनेगा कुछ न छोड़ेगा कभी
वह रहेगा अभीत
निर्प्रीत
अखण्ड सब कहीं
घर ने कहा— मैं तुम्हे बाँट दूंगा
खड़ा रखूँगा बाहर
दरवाजा बन्द करके
जल ने कहा— धर लूँगा तुम्हें भीतर
प्रतिबिम्ब बना कर
बस्ती ने कहा—बना लूँगी तुम्हे अपनी
छत
धरती ने कहा—टिका लूँगी तुम्हे अपनी
बाहों पर
पेड़ों ने कहा—उचक कर चाक कर देंगे
सीना
तन ने कहा— मुझे नहीं चाहिये अपहुँच
मन ने कहा— तू निस्सम्बन्ध अमूर्त
आकाश हँसा
चमका, गड़गड़ाया
फिर बरस गया सब पर
सब कहीं
मुगल गार्डन
हमने मान लिया
फूल तुम्हारे हैं
फल तुम्हारे हैं
मखमली दूब तुम्हारी है
संतरी तुम्हारे हैं
मान लिया
उस चौहद्दी के बीच का आसमान
तुम्हारा है
सरहदों से टकरा कर आती हवा
तुम्हारी है
तुम भी जान लो
जड़ें हमारी हैं
खाद हमारी हैं
तुम्हें चौहद्दी भर धूप दे देने वाला
आकाश हमारा है
प्रकाश हमारा है
ढलावों से बहता आता पानी हमारा है
बीजों को लाद लाती हवा हमारी है
शेष सारी धरा हमारी है।
दौड़ता चला आया
वहाँ
उस नगर में
उस बरगद के नीचे
भूरे रंग के दरवाजों वाला
एक घर था
एक माँ थीं
घर
उसी नगर में
उसी बरगद के नीचे
भूरे रंग के दरवाजों वाला
अब भी है
माँ
उस घर में
अब भी है
पर वह मेरी नहीं
उन बच्चों की माँ है
जिनका बचपन
मुझे मेरे घर को
मेरी माँ को
धकियाता दफनाता
मेरे पीछे पीछे चहकता
खिलखिलाता दौड़ता चला आया
परम्परा
मैं स्त्री हूं
मुझे बहुत-सा गुस्सा सहना पड़ा था
जो वस्तुतः मेरे लिए नहीं था
बहुत-सा अपमान
जिसे मुझ पर थूकता हुआ इंसान
पगलाए होने के बावजूद
मुझपर नहीं
कहीं और फेंकना चाहता था
यह तो संयोग ही था कि मैं सामने थी
पर मैं भी कहां मैं थी
मुझे तो कल ही उसने भींचा था
हांफते-हांफते
पराजित योद्धा की तरह थककर
मेरे वक्ष पर आन गिरा था
फुसफुसाया था तुम जो हो
मेरी धारयित्री
मेरा परित्राण
मेरी गत-आगत कथा…