आईना-द्रोह (लम्बी कविता)
राजनीति जब कर्म नहीं, कर्मकांड हो तो क्यों न उसके ‘तांत्रिक’ भी हों! भूमंडलीकृत कर्मकांड के ये ‘जन-तांत्रिक’ हैं, जो अपने-अपने अनुष्ठानों को जनतंत्र के नाम पर चला कर, जनता को विकास के आईने दिखाना चाहते हैं। उन्हें पता नहीं, पता है कि नहीं कि यह विकास ‘हां’-‘नहीं’ के द्वंद्व में फँस चुका है। आईना भी अब इतना जड़ नहीं रहा कि उसे यह प्रश्न न कुरेदे कि सदियों से चला आ रहा यह जनविश्वास कि ‘आईना झूठ नहीं बोलता’ क्या सिर्फ़ अंधविश्वास बन कर रह जायेगा? तो, क्या आईना-द्रोह होगा? होगा- शायद या निश्चित! तीन उप-शीर्षकों में यह लम्बी कविता, इसी ‘शायद’ और ‘निश्चित’ के द्वंद्व की कविता है।
ओसामा बिन लादेन
ओसामा बिन लादेन
तुम्हारे नाम का तुम्हारी भाषा में क्या
अर्थ होता है, मुझे नहीं मालूम,
लेकिन मेरी भाषा में
एक बहुत बड़ा हादसा यह हो रहा है
कि तुम्हारा नाम सिर्फ़
एक ही अर्थ दे रहा है
और, वह अर्थ है- ‘मुसलमान’!
मुझे पूरा भरोसा है
तुम्हारी भाषा में तुम्हारे नाम का
ज़रूर कोई न कोई प्रीतिकर अर्थ होता होगा
कोई माँ-बाप
अपने बेटे का कोई अप्रीतिकर नाम
रख ही नहीं सकते
ओसामा बिन लादेन,
तुम बहुत ताक़तवर हो
तुम्हारी ताक़त देखकर तुम्हारे वालिदेन को
कैसा लगता होगा, क्या तुम बता सकते हो?
पूरे यक़ीन से!
या, यक़ीन करने का ज़िम्मा
सौंपकर अपने अनुयाइयों को
तुम्हें कुछ भी यक़ीन नहीं करना है?
तुम कितने ताक़तवर हो
ओसामा,
लेकिन कितने कमज़ोर!
कि तुम अपनी ताकत का कोई ऎसा
इस्तेमाल नहीं कर पा रहे, जिससे
मेरी भाषा में तुम्हारे नाम का अर्थ
सिर्फ़ ‘मुसलमान’ न निकाला जाए
न मुसलमान होने का अर्थ
सिर्फ़ दहशतगर्द!
आतंकवादी
वे सब भी
हमारी ही तरह थे,
अलग से कुछ भी नहीं
कुदरती तौर पर
पर, रात अँधेरी थी
और, अँधेरे में पूछी गईं उनकी पहचानें
जो उन्हें बतानी थीं
और, बताना उन्हें वही था जो उन्होंने सुना था
क्योंकि देखा और दिखाया तो जा नहीं सकता था कुछ भी
अँधेरे में
और, अगर कहीं कुछ दिखाया जाने को था भी
तो उसके लिए भी लाज़िम था कि
बत्तियाँ गुल कर दी जाएँ
तो, आवाज़ें ही पहचान बनीं-
आवाज़ें ही उनके अपने-अपने धर्म,
अँधेरे में और काली आकारों वाली आवाज़ें
हवा भी उनके लिए आवाज़ थी, कोई छुअन नहीं
कि रोओं में सिहरन व्यापे ।
वो सिर्फ़ कान में सरसराती रही
और उन्हें लगा कि उन्हें ही तय करना है-
दुनिया में क्या पाक है, क्या नापाक
गोकि उन्हें पता था, किसी धर्म वग़ैरह की
कोई ज़रूरत नहीं है उन्हें अपने लिए
पर धर्म थे, कि हरेक को उनमें से
किसी न किसी की ज़रूरत थी
और यों, धर्म तो ख़ैर उनके काम क्या आता,
वे धर्म के काम आ गए ।
धर्म जो भी मिला उन्हें एक क़िताब की तरह मिला-
क़िताब एक कमरे की तरह,
जिसमें टहलते रहे वे आस्था और ऊब के बीच
कमरा– खिड़कियाँ जिसमें थीं ही नहीं
कि कोई रोशनी आ सके या हवा
कहीं बाहर से
बस, एक दरवाज़ा था,
वह भी जो कुछ हथियारख़ानों की तरफ़ खुलता था
कुछ ख़ज़ानों की तरफ़
और इस तरह
जो भी कुछ उनके हाथ आता- चाहे मौत भी
उसे वे सबाब कहते
और वह जंग- जिसमें सबकी हार ही हार है
जीत किसी की भी नहीं,
उसे वे जेहाद कहते ।