विरजपथ
इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।
खिलते-मुरझाते किन्तु कभी
तोड़े जाते ये फूल नहीं ।
खुलकर भी चुप रह जाते हैं ये अधर जहाँ,
अधखुले नयन भी बोल-बोल उठते जैसे;
इस हरियाली की सघन छाँह में मन खोया,
अब लाख-लाख पल्लव के प्राण छुऊँ कैसे ?
अपनी बरौनियां चुभ जाएँ,
पर चुभता कोई शूल नहीं ।
निस्पन्द झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर
है ध्यान लगाए बैठी बगुले की जोड़ी;
घर्घर-पुकार उस पार रेल की गूँज रही,
इस पार जगी है उत्सुकता थोड़ी-थोड़ी ।
सुषमा में कोलाहल भर कर
हँसता-रोता यह कूल नहीं ।
इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा
अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो,
मुट्ठी में थामें हो जिस दिल की चिड़िया को
उसको छन-भर इस खुली हवा में छोड़ो तो ।
फिर देखो, कैसे बन जाती है
कौन दिशा अनुकूल नहीं ?
इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।
‘मैं’ का गीत
मैं अरुण-नील अम्बर की सुधा अगर पी लूँ,
तो गरल हवा का, लापत धारा की कौन पिये?
जो नागिन डंसकर मुझे, तुम्हें, उन लोगों को,
बन गई रूप से चित्र और निवसी मन में,
वह और न कोई, सिर्फ आधुनिक छलना है,
वह ज्वालाओं की सेज बिछाती जीवन में!
वंचना प्यार के नाम बिकी फिरती फिर भी, आवेश काँच पर मणि का रंग सँजोता है;
मैं स्वयं मुक्त हो विष्णु-कौस्तुभ से खेलूँ
तो झुठलायेगा अपने हीरे कौन लिये?
जिन अंध तृषा की लपटें हैं पथ घेर रही,
वह कुण्डलिनी में सुप्त गरल की माया है,
जग उठी सभ्यता, के दंशन से आज वही,
इसलिए सत्य बन गया स्वप्न की छाया है,
हर ओर तृष्ण अनुकरण; अर्थ यह जीवन का, हर घडी असंयम, वर्तमान का यह प्रतिफल
मैं रहूँ अनागत के गह्वर में अतिचेतन;
तो निराकरण के लिए हविष हो कौन जिये?
सब के अपने-अपने नीलाभ गगन सीमित,
सबकी अभिलाषाओं के अपने रंग अरुण,
सबसे सुदूर वह सुधा, दूर ही स्नेह-क्षीर,
विष-घटा बरसती पास, भींगते होंठ करुण,
सब तो अपने में विवश, मोह घेरे का है, इसलिये नहीं संभव पीड़ा का भी एका;
मैं भी लूँ मुखड़ा ढांक घुटन की चादर से,
तो तार-तार आँचल जनता का कौन सिये?
तुम हो; तो अपने दृष्टिकोण की सीमा हो,
वे हैं; ….तो एक परिस्थिति में कट रहते हैं,
मैं भी हूँ, यह अभिमान नहीं, अपराध नहीं,
‘मैं’ तो प्रतीक सबका है, जो ‘मै’ कहते हैं,
सीमित मानव घेरे में सब स्वीकार रहा, जन के पथ से यह पतन तक लाता है,
मैं या मेरे जैसे ही सब गिरते जाएँ,;
तो सबको फिर सब कुछ जायेगा कौन दिये?
‘गीतांगिनी’(1958 में संकलित)
गा मंगल के गीत सुहागिन!
गा मंगल के गीत सुहागिन!
चौमुख दियरा बाल के!
आज शरद की साँझ, अमा के
इस जगमग त्योहार में-
दीपावली जलाती फिरती
नभ के तिमिरागार में,
चली होड़ करते तू, लेकिन
भूल न,-यह संसार है;
भर जीवन की थाल दीप से
रखना पाँव सँभाल के!
सम्मुख इच्छा बुला रही,
पीछे संयम-स्वर रोकते,
धर्म-कर्म भी बायें-दायें
रुकी देखकर टोकते,
अग-जग की ये चार दिशायें
तम से धुँधली दीखती;
चतुर्मुखी आलोक जला ले
स्नेह सत्य ता ढाल के!
दीप-दीप भावों के झिलमिल
और शिखायें प्रीति की,
गति-मति के पथ पर चलना है
ज्योति लिये नव रीति की,
यह प्रकाश का पर्व अमर हो
तमके दुर्गम देश में;
चमके मिट्टी की उजियाली
नभ का कुहरा टाल के!
(प्रथम कविता संग्रह ‘भूमिका’ 1950, भारती भण्डार, इलाहाबाद में संगृहीत)
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी!
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी!
दूर गये कज्जल घन, श्यामल-
अम्बर में निखरी!
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी!
मन्द समीरण, शीतल सिहरण, तनिक अरुण द्युति छाई,
रिमझिम में भीगी धरती, यह चीर सुखाने आई,
लहरित शस्य-दुकूल हरित, चंचल अचंल-पट धानी,
चमक रही मिट्टी न, देह दमक रही नूरानी,
अंग-अंग पर धुली-धुली,
शुचि सुन्दरता सिहरी!
राशि-राशि फूले फहराते काश धवल वन-वन में,
हरियाली पर तोल रही उड़ने को नील गगन में,
सजल सुरभि देते नीरव मधुकर की अबुझ तृषा को,
जागरुक हो चले कर्म के पंथी लक्ष्य-दिशा को,
ले कर नई स्फूर्ति कण-कण पर
नवल ज्योति उतरी !
मोहन फट गई प्रकृति की, अन्तर्व्योम विमल है,
अन्धस्वप्न फट व्यर्थ बाढ़ का घटना जाता जल है,
अमलिन सलिला हुई सरी,शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,
छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की,
अनुभवमयी मानवी-सी यह
लगती प्रकृति-परी !
(अज्ञेय द्वारा सम्पादित प्रकृति-काव्य संकलन ‘रूपाम्बरा’ से)
आदमी धुएँ के हैं
ताँबे का आसमान,
टिन के सितारे,
गैसीला अन्धकार,
उड़ते हैं कसकुट के पंछी बेचारे,
लोहे की धरती पर
चाँदी की धारा
पीतल का सूरज है,
राँगे का भोला-सा चाँद बड़ा प्यारा,
सोने के सपनों की नौका है,
गन्धक का झोंका है,
आदमी धुएँ के हैं,
छाया ने रोका है,
हीरे की चाहत ने
कभी-कभी टोका है,
शीशे ने समझा
कि रेडियम का मौका है,
धूल ‘अनकल्चर्ड’ है,
इसीलिए बकती है-
– ‘ज़िन्दगी नहीं है यह- धोखा है, धोखा है !’
परिधि का गीत
बैजनी साँझ ने पाँव छुए चंदा के,
छूती सूरज के चरण उषा नारंगी;
यह एक परिधि पूरी होती अनुभव की,
मेरा सारा आकाश चकित-विस्मित है!
…गोधूलि याद आती, वह जादूगरनी,
छूकर, सूरज को चाँद बनाने वाली;
…वह सॉझ,- भुलाती नहीं पुजारिन कोई-
चितवन से मन्दिर – दीप जलाने वाली,
…वह रात,-चाँदनी पहन भटकती मालिन,
वीरान दयारों को दुलराने वाली!
इन ओस-कणों में बीज स्वप्न के बोकर,
कुहरे में अपना जादुई तन खोकर-
फिर सूरज धन्य हुआ जिसके स्वागत में,
मेरे सागर में वही उषा बिंबित है!
…इस एक परिधि में दो बूँदों का सागर,
तिर रहीं बिकी, विच्छिन्न फूल-मालाएँ;
…तट पर बजती जंजीर–बंधी शहनाई,
सुलगाती मंद हवा जल में ज्वालाएँ;
…बन–बन कर मिट जातीं गीताभ गगन में
लालसा-भरी, बादली रंगशालाएं!
जादू की लाली, अंतर की उजियाली,
आभा,-सोया विश्वास जगाने वाली-
घुल रहीं सभी गौरव की अरुणाली में,
मेरे तन-मन में वही विभा पुलकित है!
(कविता –’६४, सम्पादक: ओम प्रभाकर एवं भागीरथ भार्गव, पृ.55)