बस यही एक अच्छी बात है..
मेरे मन में
नफ़रत और गुस्से की आग
कुंठाओं के किस्से
और ईर्ष्या का नंगा नाच है
मेरे मन में अंधी महत्वाकांक्षाएं
और दुष्ट कल्पनाएं हैं
मेरे मन में
बहुत से पाप
और भयानक वासना है
ईश्वर की कृपा से
बस यही एक अच्छी बात है
कि यह सब मेरे सामर्थ्य से परे है
तुम अकेले नहीं हो विनायक सेन
जब तुम एक बच्चे को दवा पिला रहे थे
तब वे गुलछर्रे उड़ा रहे थे
जब तुम मरीज की नब्ज टटोल रहे थे
वे तिजोरियां खोल रहे थे
जब तुम गरीब आदमी को ढांढस बंधा रहे थे
वे गरीबों को उजाड़ने की
नई योजनाएं बना रहे थे
जब तुम जुल्म के खिलाफ आवाज उठा रहे थे
वे संविधान में सेंध लगा रहे थे
वे देशभक्त हैं
क्योंकि वे व्यवस्था के हथियारों से लैस हैं
और तुम देशद्रोही करार दिए गए
जिन्होंने उन्नीस सौ चौरासी किया
और जिन्होंने उसे गुजरात में दोहराया
जिन्होंने भोपाल गैस कांड किया
और जो लाखों टन अनाज
गोदामों में सड़ाते रहे
उनका कुछ नहीं बिगड़ा
और तुम गुनहगार ठहरा दिए गए
लेकिन उदास मत हो
तुम अकेले नहीं हो विनायक सेन
तुम हो हमारे आंग सान सू की
हमारे लिउ श्याओबो
तुम्हारी जय हो ।
हत्यारे उसी शब्द को दोहराते
आज मैंने एक शब्द की हत्या कर दी
एक अजन्मे शब्द की
क्या यह कोई हादसा है
यह न होता तो क्या होता
यही होता कि एक नया शब्द अस्तित्वे में आता
और शब्दों की पुरानी पड़ चुकी इस दुनिया में
वह बिल्कुल नया तरोताज़ा शब्द
उत्सुकता से
और शायद कुछ भरोसे से सुना जाता
मगर तब क्या यह नहीं होता
कि हत्यारे उसी शब्द को दोहराते
जब वे किसी का दरवाज़ा खटखटाते
पश्चाताप
महान होने के लिये
जितनी ज़्यादा सीढ़ियां मैनें चढीं
उतनी ही ज़्यादा क्रूरताएं मैंने कीं
ज्ञानी होने के लिए
जितनी ज़्यादा पोथियां मैंने पढ़ीं
उतनी ही ज़्यादा मूर्खताएं मैंने कीं
बहादुर होने के लिए
जितनी ज़्यादा लड़ाइयां मैंने लड़ीं
उतनी ही ज़्यादा कायरताएं मैंने कीं
ओह, यह मैंने क्या किया
मुझे तो सीधे
तीसरा आदमी
मैदान में जैसे ही पहला पहलवान आया
उसकी जयकार शुरू हो गयी
उसी जयकारे को चीरता हुआ दूसरा पहलवान आया
और दोनों परिदृश्य पर छा गये
पहले दोनों ने धींगामुश्ती की कुछ देर
कुछ देर बाद दोनों ने कुछ तय किया
फिर पकड़ लाये वे उस आदमी को जो खेतों की तरफ़ जा रहा था
दोनों ने झुका दिया उसे आगे की ओर
अब वह हो गया था उन दोनों के बीच एक चौपाये की तरह
तब से उस आदमी की पीठ पर कुहनियां गड़ा कर
वे पंजा लड़ा रहे हैं
परिद्रिश्य के एक कोने से
कभी-कभी आती है एक कमज़ोर सी आवाज़
कि उस तीसरे आदमी को बचाया जाये
मगर इस पर जो प्रतिक्रियाएं आती हैं
उनसे पता चलता है कि सबसे मुखर लोग
दोनों बाहुबलियों के प्रशंसक
या समर्थक गुटों में बदल गये हैं
रास्ते जाना था
इतिहास पुरुष अब आयें
काफ़ी दिनों से रोज़-रोज़ की बेचैनियां इकट्ठा हैं हमारे भीतर
सीने में धधक रही है भाप
आंखों में सुलग रही हैं चिनगारियां हड्डियों में छिपा है ज्वर
पैरों में घूम रहा है कोई विक्षिप्त वेग
चीज़ों को उलटने के लिये छटपटा रहे हैं हाथ
मगर हम नहीं जानते किधर जायें क्या करें
किस पर यकीन करें किस पर संदेह
किससे क्या कहें किसकी बांह गहें
किसके साथ चलें किसे आवाज़ लगाएं
हम नहीं जानते क्या है सार्थक क्या है व्यर्थ
कैसे लिखी जाती है आशाओं की लिपि
हम इतना भर जानते हैं
एक भट्ठी जैसा हो गया है समय
मगर इस आंच में हम क्या पकायें
ठीक यही वक्त है जब अपनी चौपड़ से उठ कर
इतिहास-पुरुष आयें
और अपनी खिचड़ी पका लें
बहस में अपराजेय
वे कभी बहस नहीं करते
या फिर हर वक्त बहस करते हैं
वे हमेशा एक ही बात पर बहस करते हैं
या फिर बहुत-सी चीज़ों पर बहस करते हैं एक ही समय
वे बहस को कभी निष्कर्ष तक नहीं ले जाते
वे निष्कर्ष लेकर आते हैं और बहस करते हैं
जब वे बहस करते हैं तो सुनते नहीं कुछ भी
कोई हरा नहीं सकता उन्हें बहस में
शब्द वही हो तो भी
चिराग़ की तरह पवित्र और जरूरी शब्दों को
अंधेरे घरों तक ले जाने के लिए
हम आततायियों से लड़ते रहे
थके-हारे होकर भी
और इस लड़त में
जब हमारी कामयाबी का रास्ता खुला
और वे शब्द
लोगों के घरों
और दिलो-दिमाग़ में जगह पा गये
तो आततायियों ने बदल दिया है अपना पैंतरा
अब वे हमारे ही शब्दों को
अपने दैत्याकार प्रचार-मुखों से
रोज – रोज
अपने पक्ष में दुहरा रहे हैं
मेरे देशवासियों ,
इसे समझो
शब्द वही हों तो भी
जरूरी नहीं कि अर्थ वही हों
फर्क करना सीखो
अपने भाइयों और आततायियों में
फर्क करना सीखो
उनके शब्द एक जैसे हों तो भी .
बामियान में बुद्ध
निश्चिन्त होकर वे जा चुके थे उस सुनसान जगह से
अपनी बंदूकों , तोपों , बचे हुए विस्फोटकों
और अट्टहासों के साथ
अपनी समझ और हुकूमत के बीच
कि उनके मुल्क की ज़मीन पर
उसके इतिहास में
अब कहीं नहीं हैं बुद्ध
जहाँ वे खड़े थे सबसे ज्यादा मज़बूती से
वहां से भी मिटा दिए गए उनके नामोनिशान
अब कोई नहीं था उस सुनसान जगह में
जहां पत्थर भी कुछ कहते जान पड़ते थे
वहां हर शब्द था डरा हुआ
हर चीज़ खा़मोश थी दहशत से दबी हुई
बस हवा में एक सामूहिक अट्टहास था बेखौ़फ़
जो बामियान के पहाड़ों को रह-रह कर सुनाई देता था
तप रही थी ज़मीन तप रहा था आसमान
पहाड़ के टूटने की आवाज़
धरती की दरारों में समा गयी थी
हवा में भर गयी बारूद की गंध
सब दिशाओं में फैल गयी थी
तीन दिन बाद जब वहां कोई नहीं था
हर तरफ़ डरावना सन्नाटा था वहां नमूदार हुआ
लंबी नाक और चौड़ी टोड़ी वाला एक पठान
वह तपती ज़मीन पर नंगे पांव बढ़ा उस तरफ़
तीन दिन पहले जहां पर्वताकार बुद्ध थे
और अब एक बड़ा-सा शून्य था
उस ख़ाली अंधेरी जगह के पास जाकर वह रुक गया
कुछ पल खामोश रह कर उसने सिर झुका कर कहा-
क्षमा करें भगवन् ! हमें क्षमा करें !
बुद्ध ने आवाज़ पहचानी
यह ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां होंगे
फिर वे अपनी कोमल संयत गंभीर आवाज़ में बोले-
आप अवश्य आएंगे , मैं जानता था भंते !
कृपया इधर चले आएं इधर छाया में
आपके पांव जल रहे होंगे
सकुचाए लज्जित-से ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां
बुद्ध के और निकट गए
फिर सुना
किसी क्षमा करने का अधिकारी मैं नहीं
जो क्षमा कर सकते थे अब नहीं हैं
वे विलुप्त पथिक अक्षय शांति के खोजी
जिनकी खोज और साधना के स्मारक नष्ट किए गए
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां की आवाज़ अब भी नम थी :
यहां जो हुआ उससे पीड़ा हुई होगी भगवन !
पीड़ा नहीं
दुख हुआ है भंते
जब कोई सृजन विध्वंस के उन्माद का शिकार होता है
दुख होता है
पर पीड़ा का प्रश्न नहीं
जब मैं शरीर में था एक दिन अंगुलिमाल गरजा था :
रुक जाओ भिक्षुक
वहीं रुक जाओ
पर मैं रुका नहीं
जैसे कुछ हुआ न हो मेरे कदम आगे बढ़े निष्कंप
जो कंप सकता था वह मेरे भीतर से विदा हो चुका था
अब तो वह शरीर भी नहीं
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां थोड़ा सहज हुए
बुद्ध ने उनकी आंखों में झांका :
यह क्या, आपकी आंखें गीली क्यों हैं भंते ?
मुल्क की हालत ठीक नहीं है भगवन्
बरसों से हर तरफ़
ख़ून से सने हाथ दिखाई देते हैं
मारकाट जैसे रोज़ का धन्धा है
सब किसी न किसी नशे में डूबे हैं
होश का एक क़तरा भी खोजना मुश्किल है
डर का ऐसा पहरा है कि कि कोई कुछ बोलता नहीं
कोई कुछ सुनता नहीं
जो बोलते हैं मारे जाते हैं
अभी तीन रोज़ पहले यहां जो हुआ उससे
इत्तिफ़ाक़ न रखने वाले चार युवक पकड़ लिए गए
सुना है उन्हें सरेआम फांसी पर लटकाया जाएगा
कुछ पल के लिए एक स्तब्ध मौन मे डूब गए बुद्ध
जैसे ढाई हजार साल बाद
नए सिरे से हो रहा हो दुख से सामना
फिर सोच में डूबा उनका प्रश्न उभरा –
और , स्त्रियों की क्या दशा है भंते
उनका हाल बयान नहीं किया जा सकता भगवन्
वे पशुओं से भी बदतर हालत में जीती हैं
डर और गुलामी और सज़ा की नकेल से बंधी हैं वे
बुद्ध असमंजस में डूबे रहे कुछ पल
कि आगे कुछ पूछें या न पूछें
फिर उन्होंने पूछा :
और किसान किस हालत में हैं भंते
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां की अनुभव पकी आंखों में
गांवों के रोजमर्रा चित्र तैर गए :
फसलें सूख रही हैं भगवन्
किसानों की कोई नहीं सुनता
फ़ाक़ाकशी की छाया लोटती है मेहनतकश घरों में
हुक्मरान हथियार खरीदने के अलावा और कुछ नहीं करते
बुद्ध और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ा के बीच एक सन्नाटा
खिंच गया
बुद्ध को चिंतित देख शर्म की ज़मीन पर खड़े बूढ़े पठान ने कहा :
भारत आपके लिए ठीक जगह है भगवन्
नहीं भंते
हथियारों के पीछे पागल हैं वहां के शासक भी
बहुत छद्म और पाखंड है वहां
मानवता के संहार का उपाय कर
वे कहते हैं : मैं मुस्करा रहा हूं
इसके बाद ख़ामोश रहे दो दुख
सहसा ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां का ध्यान हटा
उन्होंने सूखे आसमान की तरफ़ नज़र फ़िराई
लगा जैसे किसी बाज के फड़फड़ाने की आवाज़ आई हो
मगर चुँधियाती धूप में कुछ दिखाई नहीं पड़ा
फिर उनका ध्यान लौटा उस जगह
जो तीन दिन पहले हमेशा के लिए ख़ाली हो गई थी
वहां न बुद्ध के होने का स्वप्न था न उनके शब्दों का अर्थ
ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां खड़े थे अकेले
बामियान के पथरीले सन्नाटे में ।
शब्दों से ढका हुआ है सब कुछ
मेरे मन में
नफरत और गुस्से की आग
कुंठाओं के किस्से
और ईर्ष्या का नंगा नाच है
मेरे मन में
अंधी ,महत्त्वाकांक्षाएं
और दुष्ट कल्पनाएं हैं
मेरे मन में
बहुत-से पाप
और भयानक वासना है
ईश्वर की कृपा से
बस यही एक अच्छी बात है
कि यह सब मेरी सामर्थ्य से परे है ।
बस यही एक अच्छी बात है
मैंने कहा फूल
एक शब्द ने फूल को छिपा लिया
मैंने कहा पहाड़
एक शब्द आ खड़ा हुआ पहाड़ के आगे
मैंने कहा नदी
एक शब्द ने ढक लिया नदी को
शब्दों से अबाधित नहीं है कुछ भी
पता नहीं कब से
शब्दों से ढका हुआ है सब कुछ
ओह , पता नहीं कब से
मैं खोज रहा हूँ
शब्दों से निरावृत सौन्दर्य ।