जिजीविषा पगली
कब तक जियें ज़िन्दगी जैसे
दूब दबी-कुचली ।
युगों-युगों से छलता आया
हमको समय छली ।।
जिसे देखिए, वही रौंदकर
हमको चला गया
अपशब्दों की चिंगारी से
मन को जला गया
छोटे-बड़े, सभी ने मिल
छाती पर मूँग दली ।
लानों में बिछ इज़्ज़त खोयी
जो थी बची-खुची
जीने को तो मिली जि़न्दगी,
पर सँकुची-सँकुची
शीश उठाया, तो माली ने
की हालत पतली ।
क्यारी का हर फूल हमारी
हालत पर हँसता
कली-कली पर नज़र गड़ाये
बैठा गुलदस्ता
मान और सम्मान न जाने
जिजीविषा पगली ।।
कौन सुने
कौआरोर मची पंचों में,
सच की कौन सुने?
लाठी की ताक़त को
बापू समझ नहीं पाये
गये गवाही देने
वापस कंधों पर आये
दुश्मन जीवित देख दुश्मनी
फुला रही नथुने ।
बेटे को ख़तरा था,
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली
अम्मा दौड़ीं बहुत,
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली
कुलदीपक बुझ गया,
न्याय की देवी शीश धुने ।
सत्य-अहिंसा के प्राणों को
पड़े हुए लाले
झूठ और हिंसा सत्ता के
गलबहियाँ डाले
सत्तासीन गोडसे हैं,
गाँधी को कौन गुने ?
काग़ज़ की नाव
बाढ़ अभावों की आयी है
डूबी गली-गली,
दम साधे हम देख रहे
काग़ज़ की नाव चली ।
माँझी के हाथों में है
पतवार आँकड़ों की
है मस्तूल उधर ही
इंगिति जिधर धाकड़ों की
लंगर जैसे जमे हुए हैं
नामी बाहुबली ।
आँखों में उमड़े-घुमड़े हैं
चिन्ता के बादल
कोरों पर सागर लहराया
भीगा है आँचल
अपनेपन का दंश झेलती
क़िस्मत करमजली ।
असमंजस में पड़े हुए हम
जीवित शव जैसे
मत्स्य-न्याय के चलते
साँसें चलें भला कैसे ?
नौकायन करने वालों की
है अदला-
फटेहाल जि़न्दगी
नौ बजने को आये
साढ़े नौ की है ड्यूटी ।
आठ-दस मिनट बस अड्डे तक
लग ही जायेंगे
लगी हुई बस मिली अगर तो
ड्यूटी पायेंगे
छूट गयी बस कहीं अगर
तो ड्यूटी भी छूटी ।
पाँच मिनट की देर क्या हुई,
इंट्री बन्द हुई
गेटमैन के कानों में
नियमों की ठुसी रुई
रोज-रोज़ सच्चाई भी
लगती जैसे झूठी ।
ऑटो से जायें तो समझो
‘सौ’ की चोट हुई
दो दिन की सब्ज़ी-भाजी
आँखों से ओट हुई
फटेहाल जि़न्दगी टँगी
मजबूरी की खूँटी ।।
बदली ।।
बीत रहे दिन-मास-वर्ष
बीत रहे दिन-मास-वर्ष
बातें सुनते-सुनते ।
बीती जाती उम्र एक
सपना बुनते-बुनते ।।
गाँव-शहर जंगल में बदले,
जंगल मरुथल में
राजसदन क्रीड़ा-केन्द्रों में
बदल गये पल में
आँगन-आँगन उग आये हैं
पेड़ बबूलों के,
फूलों का विस्मरण हुआ
काँटे चुनते-चुनते ।
जिम्मेदारी लुटी
मौज़मस्ती के मेले में
रोटी का सवाल मुँह बाये
खड़ा अकेले में
कुम्हलाया बचपन भी
छप्पन भोग लगा लेता
सो जाता जो परीकथाओं-
को सुनते-सुनते ।
इन्द्रधनुष से ज़्यादा चर्चित
उसके चित्र हुए
इन्द्रसभा के पीछे पागल
विश्वामित्र हुए
कैसे प्राप्त परम पद हो,
बस इसका युद्ध छिड़ा
अभिशापित त्रिशंकु जीता है
सिर धुनते-धुनते ।।
आज नहीं तो कल
समय बदलता है, बदलेगा
आज नहीं तो कल,
क्षमा और करुणा के आगे
हारेगा ही छल ।
माना अँधियारा जगता है
अपनों से भी डर लगता है
लेकिन तनिक सोच तो रे मन!
डूबा सूरज फिर उगता है
गहन निराशा में भी पलता
आशा का संबल।
सागर का विशाल तन-मन है
किन्तु नदी का अपना प्रण है
जीव-जन्तु को जीवन देकर
पूरा करती महामिलन है
आओ, दो पल हम भी जी लें,
ज्यों सरिता का जल ।
कोई छोटा-बड़ा नहीं है
लेकिन मन में गाँठ कहीं है
बड़ा वही जो छोटा बनता
जहाँ समर्पण, प्रेम वहीं है
प्रेम-भाव से मिल बैठेंगे,
निकलेगा कुछ हल ।।
विश्वास से अनुबन्ध
जब किया विश्वास से अनुबन्ध मैंने,
बन गयी हर शक्ति मेरी सहचरी है ।
जग भले कहता रहे, यह देह क्षर है,
किन्तु मेरी दृष्टि औरों से इतर है,
स्वार्थ पर प्रतिबन्ध जब मैंने लगाया,
काल ने मुझमें नवल उर्जा भरी है ।
प्राण-जागृति को पवन चलने लगा है,
टिमटिमाता दीप फिर जलने लगा है,
स्निग्धता छायी हुई वातावरण में
खिल उठी अन्तःकरण में मंजरी है ।
रश्मियाँ-ही रश्मियाँ हैं हर दिशा में,
इन्द्रधनु जैसे निकल आया निशा में,
चन्द्रिका से कब रखा सम्बन्ध मैंने ?
किन्तु छलकी जा रही मधुगागरी है ।।
आँसुओं का कौन ग्राहक
आँसुओं का कौन है ग्राहक यहाँ,
फिर उन्हें हम क्यों उतारें हाट में ?
हम प्रदर्शन वेदना का क्यों करें?
अश्रुओं को लोचनों में क्यों भरें?
हर कहीं आश्रय न मिलता पीर को
फिर उसे हम छोड़ दें क्यों बाट में ?
प्रेम-पथ पर जब चला कोई मनुज
देवगण भी हो गये जैसे दनुज
भाग्यशाली हम कि भीगे हैं नयन
नीर जन्मा है कभी क्या काठ में ?
नाव जीवन की थपेड़ों में रही
किन्तु धारा के चली विपरीत ही
सन्धि का प्रस्ताव ले तट भी दिखा,
हम न लंगर डाल पाये घाट में !
आसमान अपना
सूनी आँखों ने देखा है
एक और सपना,
धरती इनकी-उनकी,
लेकिन आसमान अपना ।
एक हाथ सिरहाने लग
तकिया बन जाता है
और दूसरा सपनों के सँग
हाथ मिलाता है
पौ फटते ही योगक्षेम का
शुरू मंत्र जपना ।
एक दिवस बीते तो लगता,
एक बरस बीता
असमय ही मेरे जीवन का
अमृत-कलश रीता
भरी दुपहरी देख रहा हूँ
सूरज का कँपना ।
जीवन की यह अकथ कहानी
किसे सुनाऊँ मैं
जिसे सुनाने बैठूँ, उसको
सुना न पाऊँ मैं
दुख को यथायोग्य देने को
सीख रहा तपना ।।
सुधियों के दंश
एक जनम में एक मरण है,
अब तक यही सुना,
लेकिन हम तो एक जनम में
सौ-सौ बार मरे!
कागज़ पर सारी बातें तो उतर न पाती हैं
रही-सही बातें ही हमको फिर भरमाती हैं
भाष्यकार की भी अपनी सीमाएँ होती है
इसीलिए चुप्पियाँ हमें ज़्यादातर भाती हैं
सच्चा प्रेम निडर होता है,
अब तक यही सुना,
लेकिन हम तो अन्तरंग से
सौ-सौ बार डरे!
आँखें तो आँखें हैं, मन की बातें कहती हैं
कभी-कभी चुप रहकर भी वे सब कुछ सहती हैं
कहने को विश्राम मिला है, पर विश्राम कहाँ?
आठों प्रहार हमेशा वे तो चलती रहती हैं
मन भर आया, नैन भर आये,
अब तक यही सुना,
लेकिन सूखे नैन हमारे
सौ-सौ बार झरे ।
मन के आँगन की हरीतिमा किसे न भाती है ?
ऋतुओं के सँग लेकिन वह तो आती-जाती है
हमने तो हर मौसम में हरसंभव जतन किया
फिर भी जाने क्यों हमसे वह आँख चुराती है
सुधियों में खोने का सुख है,
अब तक यही सुना,
लेकिन सुधि ने घाव कर दिये
सौ-सौ बार हरे।।