Skip to content

 

अपनी हार

अपना घर, अपने लोग, अपनी दीवार,
अपने दल, अपना युद्ध और अपनी ही हार,
जिंदगी की मायावी महाभारत में
अब तक ऐसे ही बिखरे हैं परिवार।

दादा-दादी मरे
अब आँखों का पानी मर गया है
चार भीत का मकान
चालीस दीवारों में बिखर गया है
मुँह छिपाए अपने दोनों हाथों से
सामने खड़ी है अब बुजुर्गों की हार।

मंदिर टूटे, श्रद्धा टूटी,
और कहीं विश्वास टूटे
विसंगतियों के आगे
जीवन के सारे अनुप्रास टूटे
जैसे जैसे लगे बढ़ने कद अहम के
घटते गए संवेदना के आकार।

संबंध बिखरे कदम-कदम पर
किंतु थोथे दंभ पले
“मैं” को छोड़कर कब किस पल
हम एक कदम भी आगे चले
बच कहाँ पाएगा कोई आदमी जब
सीना ताने सामने खड़े हों अहंकार।

बहुत तमाशे देखे
अपनी पीढ़ी और बुजुर्गों के
जीव-हिंसा के विरोधी हैं
पर शौकीन हैं मुर्गों के
मन के माँसाहारी सारे के सारे
करते केवल शब्दों से शाकाहार।

जिंदगी, बूढ़ी काकी
टूटती साँसों से परिवार बुनती
पर सबकी अपनी मजबूरी थी
माद्री रही या कुंती
नपुंसक ही हो जाए कोई पौरुष जब
तो फिर करेगा क्या उफनता श्रृंगार।

सपनों की दुनिया में चल

चल उठ पागल मन,
सपनों की दुनिया में चल।

ऐसे अवसर मुझको चंद मिले हैं
जब भाव, शब्द। और छंद मिले हैं
तप-से निखरे तेरे बिरहा की अग्नि में जल।

जब-जब भीतर झांका खण्डर मिले
बाहर देखा तो बिखरते नर मिले
आंखों की बर्फ में गया सुनहरा सूरज गल।

जिन्दगी फकीर है मत अपनी कह
खारे आंखों के नीर आंखों में रह
अस्ताचल में है सूरज, जिन्दगी रही है ढल।

अश्रुओं को शिव का गरल समझ पी जा
वक्र प्रेम-पथ है, सरल समझ जी जा
अभी बिछुड़ेंगे कितने ही दमयन्ती और नल।

एक नदी मेरे भीतर

बहती है एक नदी मेरे भीतर।

मन के ही मौसम के अनुकूल
तरल करती है दृगों के कूल
यह नदी है अजस्र तरलता की
भीतर छिपी दमित सरलता की
कैसी ये त्रासदी मेरे भीतर।

एक है युधिष्ठिर, एक दुर्योधन
दो हिस्सों में बँटा है ये मन
जब भी यह दुर्योधन बचा है
उसने बस कुचक्र ही रचा है
नग्न है द्रौपदी मेरे भीतर।

कुछ भी नहीं किसी से कहती है
यह नदी बस चुपचाप बहती है
हर बार के वहशी जुनून में
सनी है यह अपने ही खून में
आहत है एक सदी मेरे भीतर।

विश्वास अपनी पीढ़ी के

अच्छा् काटना चाहो
तो बन्धु‍, अच्छा ही बोना होगा
अन्यथा मित्र! जिंदगी भर
अपने किए पर रोना होगा।

गल चुके हैं पाये बुजुर्गों से विरासत में मिली सीढ़ी के
अब हमें ही संभालने हैं आखिर विश्वास अपनी पीढ़ी के

वक्‍त से लड़ना है दोस्त्
पत्थरों पर भी सोना होगा।

कुछ इस पार, कुछ उस पार और कुछ बीच में खड़ी हैं दीवार
एक कागज की नाव नदी में, हजार यात्रियों के इश्त हार
दूसरे जा सकें पार
इसलिए पुल तुम्हें होना होगा।

जिंदगी व्यव्साय नहीं है जो लुटाते हो अनुबंधों पर
तुम तब तक ही जीवित हो बंधु, हो जब तक अपने कंधों पर
जैसे भी हो संभव
बोझ अपना स्वंयं ही ढो

बोलेंगे एक दिन

अपनी जुबान खोलेंगे एक दिन
ये पत्थर भी बोलेंगे एक दिन।

शोख प्रियतमा है नदी, धारा भुजाएं हैं
आलिंगन में जिनके मीलों बहते आए हैं
रेत-रेत होकर पथरीला तन बिखर गया है
समर्पण का अल्हड़ अध्याय पर निखर गया है

टुकड़ा-टुकड़ा हो लेंगे एक दिन
ये पत्थर भी बोलेंगे एक दिन।

ये माना कि ये बोलने के काबिल नहीं होते
ये पत्थर तो हैं मगर पत्थरदिल नहीं होते
इनके होंठों पर चुप्पी का पहरा होता है
दिखता नहीं है जो वह घाव गहरा होता है

पर हँसकर ही डोलेंगे एक दिन
ये पत्थर भी बोलेंगे एक दिन।

ना होगा।

वक्त कहाँ से लाएं

जीवित संवेदनाओं को बचाना ही दुष्कर है
मुर्दा संबंधों के लिए वक्त कहाँ से लाएं।

कहाँ तक जोतूं-निराऊं
दम तोड़ते संबंधों का
बंजर सारा ही खेत है
आँखों का पानी जाने कहाँ छन गया
पलकों की कोरों में
बची अब सिर्फ रेत है

बहुत भीड़ है दूर तक हर किसी को रौंदती हुई
फिर टूटते कंधों के लिए वक्त कहाँ से लाएं।

जाने कब आया जलजला
जाने कब पड़ गई
दादालाही इमारत में दरार
धूपछाँही मौसमी रिश्तों में अब
अपनेपन की
सोंधी सोंधी हवा है फरार

अब तो बस खूनी शिकंजे ही पहचानते हैं लोग
स्नेही भुजबंधों के लिए

पैरों तले जमीन कहाँ

आजकल ये जितने भी बड़े हैं
दूसरों के पाँवों पर खड़े हैं
आपके पैरों तले भी जमीन कहाँ।

कभी खुद फँस गए, कभी इन जालों ने फाँसा है
ये हँसना-मुस्काना, अपने आप को झाँसा है
आप भी बड़े गुर्दे वाले हैं
पाप सर्प है, आप पाले हैं
हो विश्वास जिसपर वो आस्तीन कहाँ।

ये जितने रंगमहलों के बड़े बड़े खिलौने हैं
सच पूछिए तो ये मन के उतने ही बौने हैं
दर्पण तक को तिलांजलि दी है
तब जाकर ये जिंदगी जी है
अपनी शक्ल पर भी इनको यकीन कहाँ।

वक्त कहाँ से लाएं।

टुकड़ा टुकड़ा सच

वक्त की दौड़ में वही सफल माने गए
अजनवी होकर भी जो पहचाने गए।

सब कुछ देखने का दावा किया जिसने
घोषित हुआ वही सबसे पहले अंधा
एक आदमी का बोझ न उठा जिससे
जाने कितने शव ढो चुका है वह कंधा

बाँस की दीवारें और छतें पुआल की
हर सावन को चाय की तरह छाने गए।

हो न जाए बौना कहीं आदमकद आपका
यही सोचकर रहा हूँ अब तक मैं छोटा
अंधे को नहीं तो नैनसुख को मिलेगा
सिक्का सिक्का है, खरा हो या खोटा

न्याय बंदरों से जब भी कराने गए
मुँह के कौर गए, हाथों के दाने गए।

रद्दी अखबार से हम

अभावों की बंजारिन झोली में
रद्दी अखबार-से हम
बिकते रहे बेमौसम ।

लेकर इरादों के स्वेाटर में
जगह-जगह झोल
ऐसे पिटे कि जैसे बहरों की बस्तीं में ढोल

सिरफिरे वक्तज की ठिठोली में
गरीब के त्योजहार-से हम
रहे हर बार मुहर्रम ।

बंटते रहे-साझे की रखैल
जमीनों की तरह
व्यनर्थ ही बहे-मजदूर के विधुर पसीनों की तरह

पड़े रहे मेहनतकश की खोली में
उघड़े प्यार-से हम
लेकर परदों के भ्रम ।

तुम बचकर रहना

अब तक सच ने बाजा़र देखे थे
अब सपने होंगे नीलाम
शयन, तुम बचकर रहना।

जाने कब उभर आई अनजाने ही
आंगनों में दरार विभाजन की
सूद-दर-सूद वसूलती चले
जिंदगी:कूर बही महाजन की
चढ़ता ब्या ज छोड़ चला विरासत में
अगली पुश्तों के नाम
नन्द न, तुम बचकर रहना।,

बस दो आंसू ही मिले विरासत में
और कुछ हमदर्द दर्दों का साथ
वरना तो भरी दोपहरी में भी
साए तक कर गए विश्वामसघात
आंखो का खारा अनुदान चखा होंठों ने
कह किशमिशी जाम,
नयन, तुम बचकर रहना।

चाहे जितनी भी दे दो आहुति
झोंक दो वेदी में कितनी हा-हा
घाती सुख हों या अनुगामी दु:ख
अन्त त: होना है सब कुछ स्वांहा
यज्ञवेदी के मुंह लग गया है
रक्तवरंजित प्रणाम,
हवन, तुम बचकर रहना।

लापता हैं मुस्काहनें

लापता है मुस्कानें
आंसुओं के
इश्तओहार हैं
दर्द के महाजन के दोस्तोै हम कर्जदार हैं।
वक्त के थपेड़ों में
फंस गया होगा
सिर से पांव तक शायद धंस गया होगा

हो सकता है ये मौसम
आपको खुशगवार लगे
सच पूछिए तो भंयकर तूफान के आसार हैं।
दर्द के महाजन के दोस्तो हम कर्जदार हैं।

आंसुओं में
जीना भी मजबूरी है
आंसुओं को पीना भी मजबूरी है
बार-बार उन्हींर जख्मोंद को उधेड़कर
बार-बार सीना भी जरूरी है

नहीं पा सकते आप
मेरी घुटन का शतांश भी
आपके तो साहब तहखाने तक हवादार हैं।
दर्द के महाजन के दोस्‍तो हम कर्जदार हैं।

दर्द का दस्ताकवेज

दम तोड़ देता है एक पूरा दिन
खुशनुमा सुबह और ढलती हुई शाम के बीच,
भटकती है इसी तरह ये जिंदगी
आरम्भिहक रूदन और अन्तिकम विराम के बीच।

मानता हूँ न बदले हों कभी, ऐसा कोई क्षण नहीं है
क्यों कि इंसानी रिश्तों की मानक व्यांकरण नहीं है
आप मिले भी तो ठहरे हुए पोखरी पानी की तरह
दर्द का दस्ता वेज था, पढ़ गए आप कहानी की तरह
मैं मैं हूं मित्र कोई विज्ञान नहीं
जो भटकें आप कारण और परिणाम के बीच।

आप व्येर्थ ही त्रेता के धोबी-सा संशय पाले हुए हैं
भगत हो सकते हैं पर बगुले भी कहीं काले हुए हैं

अपराध हमारा यही था, न बगुले हो सके, न भगत हम
आकर यहीं टूट जाता है आपकी व्याकरण का क्रम
एक ही तुला पर मत तोलिए सबको
बहुत अन्तार है गंगाजल और जाम के बीच।

नदी तानाशाह थी

धरती के हर सूखे टुकड़े को
तबाह करने की चाह थी
एक समय था जब नदी तानाशाह थी।

फिर परिधियों में
बांध दिए गए विस्तार
बांधों ने दे दिए किनारों को आकार
मगर अपनी सीमाओं में ही रहे
तो भला फिर नदी उसको कौन कहे

यूं तो शीतल-शीतल लगे मगर
निश्चि त ही भीतर दबी एक दाह थी
एक समय था जब नदी तानाशाह थी।

सदियों की मौन पीड़ा से
विद्रोही बनी होगी
खूब खौली होगी तब जाकर कहीं उफनी होगी
चाहे घटी कभी, चाहे बढ़ती रही
बांधों से नदी हमेशा लड़ती रही

अपने उफान, अपने तूफान
अपनी नाव और अपनी मल्लानह थी,
एक समय था जब नदी तानाशाह थी।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.