अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
अब के इस तरह तिरे शहर में खोए जाएँ
लोग मालूम करें हम खड़े रोए जाएँ
वरक़-ए-संग पर तहरीर करें नक़्श-ए-मुराद
और बहते हुए दरिया में डुबोए जाएँ
सूलियों को मिरे अश्कों से उजाला जाए
दाग़ मक़्तल के मिरे ख़ून से धोए जाएँ
किसी उनवान चलो ताज़ा करें ज़ुल्म करें ज़ुल्म की याद
क्यूँ न अब फूल ही नेज़ों में पिरोए जाएँ
‘राम’ देखे अदम-आबाद के रहने वाले
बे-नियाज़ ऐसे कि दिन रात ही सोए जाएँ
कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है
कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है
सिलसिला वक़्त का तलवार से जा मिलता है
मैं जहाँ भी हूँ मगर शहर में दिन ढलते ही
मेरा साया तिरी दीवार से जा मिलता है
तेरी आवाज़ कहीं रौशनी बन जाती है
तेरा लहजा कहीं महकार से जा मिलता है
चौदहवीं-रात तिरी ज़ुल्फ़ में ढल जाती है
चढ़ता सूरज तिरे रूख़्सार से जा मिलता है
गर्द फिर वुसअत-ए-सहरा में सिमट जाती है
रास्ता कूचा ओ बाज़ार से जा मिलता है
‘राम’ हरचंद कई लोग बिछ़ड जाते हैं
क़ाफ़िला क़ाफ़िला-सालार से जा मिलता है
दिल में तो बहुत कुछ है ज़बाँ तक नहीं आता
दिल में तो बहुत कुछ है ज़बाँ तक नहीं आता
मैं जितना चलूँ फिर भी यहाँ तक नहीं आता
लोगों से डरे हो तो मिरे साथ चले आओ
इस रास्ते में कोई मकाँ तक नहीं आता
इस ज़िद पे तिरा ज़ुल्म गवारा किया हम ने
देखें कि तुझे रहम कहाँ तक नहीं आता
एक एक सितारा मिरी आवाज़ पे बोला
मैं इतनी बुलंदी से वहाँ तक नहीं आता
आँसू जो बहें सुर्ख़ तो हो जाती हैं आँखें
दिल ऐसा सुलगता है धुआँ तक नहीं आता
मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले
मुझे कैफ़-ए-हिज्र अज़ीज़ है तू ज़र-ए-विसाल समेट ले
मैं जो तेरा कोई गिला करूँ मिरी क्या मजाल समेट ले
मिरे हर्फ़ ओ सौत भी छीन ले मिरे सब्र-ओ-ज़ब्त के साथ तू
मिरा कोई माल बुरा नहीं मेरा सारा माल समेट ले
ये तमाम दिन की मसाफ़तें ये तमाम रात की आफ़तें
मुझे इन दिनों से नजात दे मिरा ये वबाल समेट ले
सभी रेज़ा रेज़ा इनायतें उसी एक की हैं रिवायतें
वो जो लम्हा लम्हा बिखेर दे वो जो साल साल समेट ले
तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले
तिरे रूख़ पे चाँद भी दर्द है तिरा इस में कौन सा हर्ज है
तू अगर ये हाशिया छोड़ दे तो अगर ये बाल समेट ले
ये हमारा शौक़ था हम ने अपने गुलों में परिंदे सजा लिए
उसे इख़्तियार है ‘राम’ जब भी वो चाहे जाल समेट ले
यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो
यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो
हम लोग वही हैं कि नहीं बोल के देखो
हम ओस के क़तरे हैं कि बिखरे हुए मोती
धोक नज़ी आए तो हमें रोल के देखो
कानों में पड़ी देर तलक गूँज रहेगी
ख़ामोश चट्टानों से कभी बोल के देखो
ज़र्रे हैं मगर कम नहीं पाओगे किसी से
फिर जाँच के देखों हमें फिर तोल के देखो
सुक़रात से इंसान अभी हैं कि नहीं ‘राम’
थोड़ा सा कभी जाम में विष घोल के देखो
रूह में घोर अंधेरे को उतरने न दिया
रूह में घोर अंधेरे को उतरने न दिया
हम ने इंसान में इंसान को मरने न दिया
तेरे बाद ऐसी भी तन्हाई की मंज़िल आई
कि मिरा साथ किसी राहगुज़र ने न दिया
कौन था किस ने यहाँ धूप के बादल बरसाए
और तिरे हुस्न की चाँदी को निखरने न दिया
प्यास की आग लगी भूख की आँधी उट्ठी
हम ने फिर जिस्म का शीराज़ा बिखरने न दिया
ज़िंदगी कशमकश-ए-वक़्त में गुज़री अपनी
दिन ने जीने न दिया रात ने मरने न दिया
अश्क़ बरसाए कभी ख़ून बहाया हम ने
ग़म का दरिया किसी मौसम में उतरने न दिया