ग़ज़लें
चलो ज़िन्दगी को मुहब्बत बना दें
चलो ज़िन्दगी को मुहब्बत बना दें
जहां से ज़ुलम औ’ सितम हम मिटा दें
अहम की दिवारें नहीं मीत अच्छी
बनाई हमीं ने हमीं अब गिरा दें
दिलों में अदावत जो पाली है हम ने
गले मिल चलो अब उसे हम भुला दें
न हिन्दू , मुस्लिम, न सिख, ना इसाई
नया धर्म अपना मुहब्बत चला दें
अमीरी गरीबी में दुनियां बँटी है
ये कैसी लकीरें इन्हें हम मिटा दें
जहाँ खिल न पाये कभी फूल कोई
बहारों को अब उस चमन का पता दें
चलें डाल कर हम तो’ बाहों में’ बाहें
सभी खार नफ़रत के’ चुन-चुन हटा दें
खुले नफरतों के ठिकाने जहाँ पर
वहाँ न्याय की बस्तियाँ हम बना दें
मुहब्बत ख़ुदा की नियामत अगर है
शमा प्रेम की ‘हीर’ दिल में जला दें
कौन कहता ज़िन्दगी तेरा हसीं भी रंग है
कौन कहता ज़िन्दगी तेरा हसीं भी रंग है
हर बशर[1] दिखता मुझे तुझसे यहाँ तो तंग है
मुश्किलें भी हैं कठिन, तेरे सभी रस्ते मग़र,
ज़िन्दगी की, ज़िन्दगी से, इक सुहानी जंग है
रूप नित देखे बदलते,आज़ हमने प्यार के,
बन गया व्यापार अब ये देख हम तो दंग है
प्यार हमने भी किया था,बेपना तुम से कभी ;
आपकी इस बेरुख़ी से शाम अब बेरंग है
मुस्कुरा देती तुमहारे प्यार में मैं जब कभी;
क्यों मुआ छिप छिप तभी ये देखता सारंग[2] है
कौन है जो आज नारे दे रहा कशमीर में?
मार दो गोली उसे पागल दिखे मातंग[3] है
कल मुझे जो कह रहा था ‘हीर’ तुझसे प्यार है
आज़ देखो जा रहा वो गैर बाँहों संग है
शब्द के हार से दी बिदाई तुम्हें
देख लो हमने दे दी रिहाई तुम्हें
अब देंगे कभी हम दिखाई तुम्हें
हो गये अज़नबी इक-दूजे से हम
प्रीत मेरी नहीं मीत भाई तुम्हे
तोड़ देना अजी दिल लगाकर कहीं
ये अदा मीत किसने सिखाई तुम्हें
है न कोई गिला और शिकवा कहीं
अश्क़ देंगे नहीं अब दिखाई तुम्हें
दूँ तड़पकर सदा जो कभी मीत मैं
ख़्वाब में भी नहीं दे सुनाई तुम्हें
यश फ़लक तक चले ख़ूब गुणगान हो
हर जगह में मिले रोशनाई तुम्हें
जा रही छोड़कर ‘हीर’ ख़त आख़िरी
शब्द के हार से दी बिदाई तुम्हें
बहुत है रुलाया हँसाना पड़ेगा
बहुत है रुलाया हँसाना पड़ेगा
तुझे ऐ मुहब्बत मनाना पड़ेगा
चलो फ़िर सजा लें वही ख़्वाब अपने
शिकायत, गिला सब भुलाना पड़ेगा
कभी राज़ दिल के छुपाओ न हमसे
अग़र है मुहब्बत बताना पड़ेगा
नहीं चाहती ता उमर साथ तेरा
चलूँ कुछ क़दम ये सिखाना पड़ेगा
सदा दूँ कभी जो तड़पकर तुझे मैं
वो नग्मा सबा को सुनाना पड़ेगा
बड़ी पाक है ये ख़ुदा की इबादत
दिलों में इसे फ़िर बसाना पड़ेगा
अग़र हीर से है जो सच्ची मुहब्बत
तुझे ख़ुद को राँझा बनाना पड़ेगा
ख़्वाब इन आँखों ने तो अक़्सर सजाये हैं
ख़्वाब इन आँखों ने तो अक़्सर सजाये हैं
पर कहाँ ये हो मुकम्मल यार पाये हैं
दूरियाँ रखते रहे हैं यह उजाले भी
दीप हमने आंसुओं से ही जलाये हैं
ज़िन्दगी थी लेके बैठी फूल झोली में
फूल हमने दर्द के हँसकर उठाये हैं
अब न कोई ख्याल तेरा,ख़्वाब आँखों में
लाश तेरी हम मुहब्बत दाह आये हैं
पास आके रूठ जाती है मुझीसे तू
ख़ूब नख़रे ज़िन्दगी तूने दिखाये हैं
हो गए वीरान नादाँ हैं मग़र कितने
याद उनकी आज़ भी सीने लगाये हैं
टूटकर यूँ तो उन्हें था ‘हीर’ ने चाहा
आज़ वो जो हो गए उससे पराये हैं
जाने क्यूं यूं बेबसी होने लगी
जाने क्यूं यूं बेबसी होने लगी
ख़ुश्क आंखों में नमी होने लगी
दर्द की नगरी में जब से बस गए
हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी
चिड़ियाँ अब चहकती घर में नहीं
क़तल क्या ये भी कोख में होने लगी?
जब चले हम इश्क़ का दीया जला
ज़िंदगी में रौशनी होने लगी
फूल तुमने जब हथेली पर रखा
ग़ज़लें पूरी प्यार की होने लगी
दिल धड़कने लग गया है बेवजह
जब से’ है बिटिया बड़ी होने लगी
ज़िक्र रांझे का मेरे जब-जब हुआ
हीर दिल में गुदगुदी होने लगी
कभी द्वार चाहो जो तुलसी लगाना
कभी द्वार चाहो जो’ तुलसी लगाना
सुनो नागफनियाँ उठा फैंक आना
बहुत फैलती हैं ये नफ़रत की बेलें
हटाकर मुहब्बत की’ बेलें उगाना
दिया जन्म जिसने है मानव बनाया
उन्हें मत जरा[1] में कभी छोड़ जाना
नया ज़ख्म कोई हमें फिर दिला दो
नहीं दे सुकूं ज़ख्म मुझको पुराना
चलो अब भुला दें कि इक दूजे को हम
बहुत हो गया अब ये रोना रुलाना
नहीं ज़ख्म भरते हैं हमदर्दियों से
नया मीत मरहम जरा तुम बनाना
बसा ‘हीर’ सबके दिलों में ख़ुदा है
बनाया अलग किन्तु क्यों है ठिकाना
क्यों ये रिश्ते प्रीत के निभाए न गए
ज़ख्म किसी से दिल के छुपाये न गए
सामने किसी के अश्क़ भी बहाये न गए
वक़्त के साथ चलूँ ये चाह थी मुझको
कटे हुए थे पर लेकिन, उड़ाये न गए
दर्दे-इश्क में जो आग लगी सीने में
जलते रहे ख्वाब यूँ कि बुझाए न गए
दिल न चाहा बहुत मिटा दूँ यादें उनकी
जो जलाने चले ख़त तो उठाये न गए
रूठी है हमसे किस्मत मनाये तो कैसे
पत्थर था खुदा भी फूल चढाये न गए
पूछता है दर्द ये सवाल अक्सर मुझसे
क्यों ये रिश्ते हीर प्रीत के निभाए न गए
क्यों ये रिश्ते प्रीत के निभाए न गए
ज़ख्म किसी से दिल के छुपाये न गए
सामने किसी के अश्क़ भी बहाये न गए
वक़्त के साथ चलूँ ये चाह थी मुझको
कटे हुए थे पर लेकिन, उड़ाये न गए
दर्दे-इश्क में जो आग लगी सीने में
जलते रहे ख्वाब यूँ कि बुझाए न गए
दिल न चाहा बहुत मिटा दूँ यादें उनकी
जो जलाने चले ख़त तो उठाये न गए
रूठी है हमसे किस्मत मनाये तो कैसे
पत्थर था खुदा भी फूल चढाये न गए
पूछता है दर्द ये सवाल अक्सर मुझसे
क्यों ये रिश्ते हीर प्रीत के निभाए न गए
रात कटी गिन तारा तारा
रात कटी गिन तारा तारा
कैसे कटेगा जीवन सारा
प्रेम बिना यह जीवन सूना
धन दौलत सब इसपर हारा
और न कोई दूजा तुझ बिन
सांसों में बस नाम तुम्हारा
रूठ न मुझ से मेरे हमदम
कोई तुझ सा मुझको न प्यारा
दर्द मेरा यूँ हँस कर बोला
मैं हूँ, फिर क्यों आंसू यारा?
हुई ‘हीर’ की ऐसी सूरत
राँझा राँझा किये पुकारा.
हमेशा चाहतों के सिलसिले क्यूँ छूट जाते हैं
हमेशा चाहतों के सिलसिले क्यूँ छूट जाते हैं
मुहब्बत से भरे मासूम दिल ही टूट जाते हैं
नज़र जो मुन्तज़िर होती कभी हम भी लौट भी आते
घरौंदे ये उम्मीदों के, भला क्यूँ टूट जाते हैं?
शज़र क्यों सूख वो जाते लगाते जब कभी हम तो
जहाँ करते मुहब्बत हम शहर क्यों छूट जाते हैं
जफ़ा देखी, वफ़ा देखी, जहां की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में चमन वो लूट जाते हैं
छुडाना था उन्हें दामन, न मुड़ पीछे कभी देखा
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
सदा जो मुस्कुराकर के, कभी देते सनम मुझको
बहारें लौट आतीं फिर गिले भी छूट जाते हैं
घरौंदे साहिलों पर ‘हीर’ तुम बेशक बना लेना
बने जो रेत से हों घर, वो बिखर कर टूट जाते हैं
बहल जायेगा दिल बहलते बहलते
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते-दहलते
लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते-बहलते
तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
चलें चल कहीं और टहलते-टहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी, संभलते संभलते
ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते ढलते
जवाब आया न तो मुहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते जलते
न घबरा तिरी जीत ही ‘हीर’ होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते पिघलते
ज़िन्दगी इस तरह से बिता दीजिये
ज़िन्दगी इस तरह से बिता दीजिये
फूल बंज़र ज़मीं में खिला दीजिये
ज़िन्दगी तो मिली चार दिन की हमें
खुद हँसे ग़ैर को भी हँसा दीजिये
जिस धरा ने हमें ज़िन्दगी की अता
अब लगा पेड़ कर्जा चुका दीजिये
जिसके दम पर है क़ायम ज़मीं आसमां
उस ख़ुदा को नहीं यूँ भुला दीजिये
बाद माँ के झुको तो ख़ुदा के झुको
सबके आगे न सर यूँ झुका दीजिये
हीर कीमत भी समझा करो आप ही
हर किसी पे न ख़ुद को लुटा दीजिये
क्या ख़ता हो गयी ये बता दीजिये
क्या ख़ता हो गयी ये बता दीजिये
यूँ खफ़ा हो हमें मत सजा दीजिये
हैं फ़रिश्ते नहीं हम तो इंसान हैं
गलतियाँ गर करें तो भुला दीजिये
ज़िन्दगी तुझ से है तुझ से ही रौशनी
फ़िर दिया प्रेम का वो जला दीजिये
यहाँ दामन सभी का है अश्क़ों भरा
कौन खाली है ग़म से बता दीजिये
चाहतों की मिरी है गुज़ारिश यही
आशियाँ आप दिल का बसा दीजिये
लागि कैसी अगन ये तिरे प्यार की
फासले ये दिलों के मिटा दीजिये
हीर चाहो कभी जो बुलाना हमें
बस ज़रा मुस्कुराहट बिछा दीजिये
रातभर यूँ नींद से आकर जगाता कौन है
रातभर यूँ नींद से आकर जगाता कौन है
ख्व़ाब में आकर बता ये, मुस्कुराता कौन है
प्यार का इक़रार यूँ करते नहीं तो क्या हुआ
आपकी बेचैनियाँ ये जो दिखाता कौन है?
हम नहीं, कोई नहीं, कोई कहीं या और है
है कहीं कोई, यूँ वर्ना, गुनगुनाता कौन है?
नींद जो आये दिये को तुम बुझा देना ज़रा
इस तरह इतना किसी को यूँ जलाता कौन है
इस जगह ताज़ी हवा आनी मुनासिब अब कहाँ
कट रहे जो पेड़ हैं, उनको लगाता कौन है
मत यकीं कर इन लकीरों और इस तकदीर पर
हाथ जिनके हैं नहीं, क़िस्मत लिखाता कौन है
टूटते नित देख रिश्ते हीर हैरां हो रही
प्यार का वो आशियाँ अब तो बनाता कौन है
इक पल में ज्यूँ हसीं ये संसार हो गया है
इक पल में ज्यूँ हसीं ये संसार हो गया है
वीरान दिल था मेरा, गुलज़ार हो गया है
बढ़ती ही जा रही हैं बेचैनियाँ ये दिल की
लगता मुझे किसी से अब प्यार हो गया है
देखा है जब से उनको धड़कन थमी नहीं है
गुमसुम हुआ सा दिल ये बीमार हो गया है
कैसे भला बताऊँ, दिल की ये बेकरारी
ये इंतज़ार कैसा, ग़मसार हो गया है
तकती ये ‘हीर’ रहती, हरपल उठा निगाहें
जीना बिना ज्यूँ उनके, दुश्वार हो गया है
देखा है जब से आपको दिल आशिकाना हो गया
देखा है जब से आपको दिल आशिकाना हो गया
था ख़ुश्क मौसम दिल, खिला गुल फ़िर सुहाना हो गया
ख़ामोश दिल की धड़कनें ये कह रही आ प्यार कर
पुरनूर अब इस ज़िंदगी का हर फ़साना हो गया
रूठी हँसी बरसों तलक,था शुष्क ये दिल का चमन
तुम क्या मिले अब बेवज़ह भी, मुस्कुराना हो गया
तू ही बता या रब कहाँ जाऊँ? करूं मैं क्या जतन?
लगता कहीं अब ये नहीं, दिल क्यूँ लगाना हो गया?
आँसू, गिला, गम, रंज, तम रहते जहाँ थे आज तक
घर वो मिरा अब रौशनाई का ठिकाना हो गया
ये कैसी फ़ितरत सी है, इंसानों में होती जा रही
धोखा, गबन, चोरी, दगा? कैसा ज़माना हो गया?
जिस पेड़ पर बरसों न आया ‘हीर’ कोई अब तलक
वो पक्षियों की प्रीत का, अब आशियाना हो गया
कज़ा आये मुझे जब भी फिजां खुशबू से भर जाये
कज़ा आये मुझे जब भी फिजां खुशबू से भर जाये
फ़ना हो जिस्म जब मेरा, जहां में नाम कर जाये
नहीं टूटेंगे यूँ हमको अभी कमज़ोर मत समझो
वो पत्थर हूं जो हरइक चोट से कुछ औ’ निख़र जाये
ग़मों की आँच भी तुम तक न पहुँचे ऐ मिरे यारा
बड़ी तकलीफ़ होती है अगर दिल पे गुज़र जाये
बचे भोजन घरों में बाँट उसको दो गरीबों में
कहीं ऐसा न हो दे बददुआ तुझको वो मर जाये
तिरे तल्खी भरे ये लफ्ज़ अब भाते नहीं मुझको
कभी तो बात ऐसी कर जो मेरे दिल उतर जाये
कभी तो सुन लगा दिल से मिरे ख़ामोश लफ्ज़ों को
कहीं ऐसा न हो टूटे मुहब्बत औ’ बिख़र जाये
कहाँ रहता हमारा दिल तलाशें ‘हीर’ अब कैसे
किसे है होश अब चाहे मुहब्बत ले जिधर जाये
अग़र तुम लौट आओ तो वही ख़ुशबू बिखर जाये
अग़र तुम लौट आओ तो वही ख़ुशबू बिखर जाये
खयालों में वही मीठी, हसीं मुस्कान भर जाये
इशारों से, अदाओं से, निगाहों से, बहानो से
किया इज़हार मैंने जो, ज़हे सपना सँवर जाये
मुझे तू माफ़ करना रब, कभी दर आ नहीं पाई
ख़ुदा उसको जो माना है कोई कैसे उधर जाये
दवा लिख दूँ, नवा लिख दूँ, ख़ुदा लिख दूँ , फ़िदा लिख दूँ
बता तू क्या लिखूँ जो तेरे दिल में ही उतर जाये
कहाँ तक ढूँढ कर आती नज़र कैसे बताऊँ मैं
नहीं पैग़ाम तेरा औ’ न कोई भी ख़बर आये
बसा लो धड़कनों में आज़ साँसों में समा लो तुम
बची जो ज़िंदगी है वो, न यादों में गुज़र जाये
लगी ये तिश्नगी दिल की, बुझेगी अब नहीं जानम
बना लो ‘हीर’ को अपना सकूँ दिल में ठहर जाये
दुआ में हाथ जब मेरे उठे, परवान लगते हैं
दुआ में हाथ जब मेरे उठे, परवान लगते हैं
ये पत्थर भी न जाने क्यों मुझे भगवान लगते हैं
कहीं कोई घना ग़म है, जो हँसते आप बेजा से
छिपाये दिल में कोई, दर्द का तूफ़ान लगते हैं
करें दिन रात मजदूरी नहीं घर बार फ़िर कोई
ये इनसां क्यूँ मुझे इक दर्द की मुस्कान लगते हैं
ये बिंदी, चूड़ियाँ, पायल, ये बिछुये, बालियाँ, कंगन
ये हैं पहचान भारत की, ये हिन्दुस्तान लगते हैं
कभी हँसतीं थी खुशियाँ बन बहारें दिल के गुलशन में
जुदा जब से हुए आबाद घर वीरान लगते हैं
बना रिश्ता नहीं कोई हमारे बीच तो क्या है
अभी मेरी मुहब्बत से ज़रा अनजान लगते हैं
बुझता हुया चिराग ये बता गया मुझे
बुझता हुया चिराग ये बता गया मुझे
लड़ना ही ज़िंदगी है वो सिखा गया मुझे
यादें न आज तक कभी मिटा सकी मैं क्यूँ
वो जाने किस तरह से, यूँ भुला गया मुझे
इक आरजू रही कि मिल सकूँ मैं आपसे
बस इंतज़ार आपका, थका गया मुझे
थी ग़मज़दा बड़ी ये रात बेकरार सी
लो फ़िर ख़याल आपका हँसा गया मुझे
वो करवटें, वो बेकसी, वो बेकली, सभी
बेचैनियों का राज़ दिल, बता गया मुझे
शेरोसुख़न में’ बात दिल की आप कह गये
अंदाज़ आपका यही तो भा गया मुझे
वो आके ज़िंदगी में, ‘हीर’ यूँ समा गया
यादों की कैद से रिहा करा गया मुझे
नज़्में
दीवारों के पीछे की औरत
कभी इन दीवारों के पीछे झाँककर देखना
तुम्हें औरत और मर्द का वो रिश्ता नज़र आयेगा
जहां बिस्तर पर रेंगते हुए हाथ
जेहनी गुलामी के जिस्म पर
लगाते हैं ठहाके
दर्द दोनों हाथों से बाँटता है तल्खियाँ
और
समय की क़ब्र में दबी सहमी
अपने ज़िस्म के लहू लुहान हिस्सों पर
उग आये ज़ख्मों को कुरेदने लगती है
दीवारों के पीछे की औरत
बाजुओं पर कसा हुआ हाथ
दबी ख़ामोशी के बदन पर से उतारता है कपड़े
वह अपने बल से उसकी देह पर लिखता है
अपनी जीत की कहानी
उस वक़्त वह वस्तु के सिवाय कुछ नहीं होती
सिर्फ एक जिन्दा जानदार वस्तु
ज़िन्दगी भर गुलामी की परतों में जीती है मरती है
एक अधलिखि नज़्म की तरह
ये दीवारों के पीछे की औरत
जब-जब वह टूटी है
कितने ही जलते हुए अक्षर उगे हैं उसकी देह पर
जिन्हें पढ़ते हुए मेरे लफ़्ज़ सुलगने लगते हैँ
मैं उन अक्षरों को उठा-उठाकर कागज पर रखती हूँ
बहुत लम्बी फ़ेहरिस्त दिखाई देती है
सदियों पुरानी लम्बी
जहाँ बार-बार दबाया जाता रहा है उसे
कुचला जाता रहा है उसकी संवेदनाओं को,
खेल जाता रहा है उसकी भावनाओं से
लूटी जाती रही है उसकी अस्मत
अपनी मर्जी से
एक बेटी को भी जन्म नहीं दे पाती
दीवारों के पीछे की औरत
वह देखो आसमां में
मेरी नज़्म के टुकड़े हवा मैं उड़ने लगे हैँ
घूँघट , थप्पड़ ,फुटपाथ , बाज़ार , चीख , आंसू
ये आग के रंग के अक्षर किसने रख दिए हैं मेरे कानोँ पर
अभी तो उस औरत की दास्ताँ सुननी बाकी है
जो अभी -अभी अपना गोश्त बेचकर आई है
एक बोतल शराब की खातिर अपने मर्द के लिये
अभी तो उस चाँद तारा की हँसी सुननी बाकी
है जो अभी- अभी जायका बनकर आई है
किसी अमीरजादे की बिस्तर की
तुमने कभी किसी झांझर की मौत देखी है?
कभी चूड़ियों का कहकहा सुना है?
कभी जर्द आँखों का सुर्ख राग सुना है?
कभी देखना इन दीवारों के पीछे की औरत को
जिसका हर ज़ख्म गवाही देगा
पल -पल राख़ होती उसकी देह का
अय औरत ! मैँ लिख रही हूँ
दीवारों के पार की तेरी कहानी
गजरे के फूल से लेकर पैरों की ज़ंज़ीर तक
जहाँ तड़पती कोख का दर्द भी है
और ज़मीन पे बिछी औरत की चीख भी
ताबूतों में कैद हवाओं की सिसकियाँ भी हैं
और जले कपड़ों में घूमती रात की हँसीं भी
इससे पहले कि तेरे जिस्म के अक्षरों की आग राख़ हो जाये
मैं लिख देना चाहती हूँ आसमां की छाती पर
“कि अय आसमां! औरत तेरे घर की
जागीर नहीं…!!”
बाकी बची उम्र
हर रोज घटती हैं रेखाएँ
उम्र के साथ-साथ
एक जगह से उठाकर
रख दी जाती हैं दूसरी जगह
बार-बार दोहराये जाते हैं शब्द,
तारीखें बदल जाती हैं
दर्द थपथपा कर देता है तसल्ली
पार कर लिया है उम्र का
एक पड़ाव
बंधे हुए गट्ठरों में
अब कुछ नहीं बचा बिखर जाने को
तुम चाहो तो रख सकते हो
मेरी चुप्पी के कुछ शब्द
छटपटाते हुए
ओस की बूंदों में लिपटे
उतर आयेंगे तुम्हारी हथेलियों पर
रात की बेचैनियों का खालीपन
दर्द की लहरों के संग
खड़ा मिलेगा तुम्हें
अकेला और बेचैन
तुम्हें यकीं कैसे दिलाऊँ
बेशक सांसें अभी ज़िंदा हैं
पर खुशियों की एक भी उम्र
बाकी नहीं है इनमें
जीने की कोशिश में आँखों की रेत
बहती जा रही है कोरों से
आओ
आज की रात ले जाओ
बांह पकड़कर
फ़िक्र के पानियों से दूर
बादलों इक टुकड़ा ढूँढता हुआ
आया है तुम्हारे पास
आओ कि अब
उदासियों में बाकी बची उम्र
सुकून की तलाश में
कब्रें खोदने लगी है…!!
समय की लड़की
समय की लड़की
कुछ बोलती नहीं
उसकी मुस्कान के अन्दर
उबल पड़ता है आक्रोश
समय की लड़की
हवा में छोड़ देती है
लटकते शब्दों को
ढूंढती रहती है हर जगह
खामोश नजरों से
कब्रिस्तान में तब्दील हुई
अपनी हँसी
जब-जब कविता बदलती है
समय की लड़की के भी
प्रतिमान बदल जाते हैं
नए प्रतिमानों से किया जाता है
उसका मूल्यांकन
क्रूरतम क्रूरता की दस्ताने
लिखता है दर्द रात होने तक
कष्ट सहने के बाद
पेड़ से चिपक कर
रोती हैं खामोशियाँ
गूंगे-बहरे प्रश्नों में लिपटे सवाल
भीतर ही भीतर
गुन लेते हैं एक मौन प्रसव
समय की लड़की लिखती है
सारा की ख़ुदकुशी का राज
वह दबोच लेती है शब्दों को
कविताओं में बिखरे हुए प्रेम के रंग
खारिज कर देती है
बिम्बों के साथ
मुहब्बत का लफ़्ज़
कभी-कभी सोचती हूँ
रिश्तों के फूल काटें क्योँ बन जाते हैं
औरत को दान देते वक़्त
रब्ब क्यों क़त्ल कर देता है उसके ख़्वाब
कुछ उदास आवाज़ें
मुर्दा पेड़ों के पत्तों में दम तोड़ देती हैँ
एक गुमनाम रात झूठ के ज़ुल्म पर
चुपचाप ख़ामोश बैठी है
और ज़ेहन में उठते सवाल
विधवा के लिबास में मौन खड़े हैं
मातमी परिंदे फड़फड़ा रहे हैं
सफ़ेद चादरों में क़हक़हा लगा रही है ज़िंदगी
कुछ आधा मुर्दा ख़्वाब
रस्सियाँ तोड़ते हैं
आंसू ज़मीन पर गिरकर
खोदने लगते हैं क़ब्र
धीरे-धीरे दर्द मुस्कुराता है
अगर कुछ बदलना चाहती हो तो
अपनी इबादत का अंदाज़ बदल
तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती
अँधेरे की दास्तान सुब्ह की किरण लिखती है
तुम अपनी आँगन की मिटटी को बुहार कर
बो देना फिर कोई सुर्ख़ गुलाब
इन अक्षरों में मुहब्बत का लफ़्ज़
अभी मरा नहीं है
काला गुलाब
औरत ने जब भी
मुहब्बत का गीत लिखा
इक काला गुलाब खिल उठा है उसकी देह पर
रात ज़िस्म के सफ़हों पर लिख देती है
उसके कदमों की दहलीज़
बेशक़ वह किसी ईमारत पर खड़ी होकर
लिखती रहे दर्द भरे नग़में
पर उसके ख़त कभी मुहब्बत में तर्जुमा नहीं होते
इससे पहले कि होंठों पर क़ोई शोख़ हर्फ़ उतर आये
फतवे पढ़ दिये जाते हैं उसकी ज़ुबाँ पर
कभी किसी काले गुलाब को
हाथों में लेकर गौर से देखना
रूहानी धागों से बँधी होंगी उसके संग
कोई मुहब्बत की डोर
मुहब्बत का दरवाजा
हर किसी को यही लगा था
कि कहानी खत्म हो गई
और किस्सा खत्म हो गया
पर कहानी खत्म नहीं हुई थी
शिखर पर पहुँच कर ढलान की ओर
चल पड़ी थी
जैसे कोई तरल पदार्थ चल पड़ता है
उस बहाव को न वह रोक पाई थी
न कोई और
हाँ ! पर मुहब्बत उस कहानी के साथ -साथ
चलती रही थी
कहानी थी इक दरवाजे की
जो मुहब्बत का दरवाजा भी था
और दर्द का भी
जब मुहब्बत ने सांकल खटखटाई थी
वह हथेली की राख़ में गुलाब उगाने लगी थी
वह अँधेरी रातों में नज़में लिखती
इन नज़मों में
तारों की छाव थी
बादलों की हँसी
सपनों की खिलखिलाहट
खतों के सुनहरे अक्षर
अनलिखे गीतों के सुर
ख्यालों की मुस्कुराहटें
और सफ़हों पर बिखरे थे
तमाम खूबसूरत हर्फ़
पर उस दरवाजे के बीच
एक और दरवाजा था
जिसकी ज़ंज़ीर से उसका एक पैर बंधा था
वह मुहब्बत के सारे अक्षर सफ़हे पर लिख
दरवाजे के नीचे से सरका देती
पर कागजों पर कभी फूल नहीं खिलते
इक दिन हवा का एक बुल्ला
अलविदा का पत्ता उठा लाया
दर्द में धुंध के पहाड़ सिसकने लगे
उस दिन खूब जमकर बारिश हुई
वह तड़प कर पूछती यह किस मौसम की बारिश है
हादसे काँप उठते
बेशक मुहब्बत ने दरवाजा बंद कर लिया था
पर उसके पास अभी भी वो नज़में ज़िंदा हैं
वह उन्हें सीने से लगा पढ़ती भी है
गुनगुनाती भी है.
महिला दिवस
देर रात
शराब पीकर लौटी है रात
चेहरे पर पीड़ा के गहरे निशां
मुट्ठियों में सुराख
चाँद के चेहरे पर भी
थोड़ी कालिमा है आज
उसके पाँव लड़खड़ाये
आँखों से दो बूंद हथेली पे उतर आये
भूख, गरीबी और मज़बूरी की मार ने
देह की समाधि पर ला
खड़ा कर दिया था उसे
वह आईने में देखती है
अपने जिस्म के खरोचों के निशां
और हँसकर कहती है
हुँह
आज महिला दिवस है
मैली हुई चनाब
एक सन्नाटा सा तारी है
रह-रह कर इक चीख़ उभरती है
मेरी ही नज़्मों का अट्टाहस है मेरे कानों में
ये कौन ख़रीद लाया है घुँघरू मेरे लिए
अय औरत!
तू सिर्फ़ जिस्म की भूख के सिवाय कुछ नहीं
या तो तू उतार दे देह से अपने कपड़े
या सी ले लबों में अपनी मुहब्बत
आज़ फ़िर रात रोई है
सुब्ह के गले लगकर
कहीं कोई इक पाक सा लफ़्ज़
ज़िब्ह हुआ है
आज मुहब्बत की चनाब
मैली हुई है
अस्पताल के कमरे से
वक़्त की फड़फड़ाती आग से
निकलता इक धमाका
जला जाता है हाथों के अक्षर
सपनों की तहरीरें
होंठों पर इक नाम उभरता है
रात सिसकियाँ भरती है
रह रह कर नज़रें
मुहब्बत के दरवाजे खटखटाती हैं
डराने लगता है आइना
दर्द की बेइन्तहा कराहटे
सिहर जाता है मासूम मन
जलन की असहनीय पीड़ा
फफोलों से तिलमिलाता जिस्म
देह बेंधती सुइयाँ
सफेद पोशों की चीरफाड़
ठगे से रह जाते हैं शब्द
संज्ञाशून्य हुई आँखें
एकटक निहारती हैं खामोशियों के जंगल
वक़्त धीरे धीरे मुस्कुराता है
अभी और इम्तहां बाकी है
रात लिखती है नज़्म
कोई सन्नाटा नहीं पूछता
जली लकीरों से कहानी
रह रहकर उठती टीस
रात की छाती पर लिखती है नज़्म
खामोश नज़रें टकरा कर लौट आती हैं
मुहब्बत की दीवारें से
दर्द हौले हौले सिसकता है
रात लिखती है नज़्म
सहसा देह से
इक फफोला फूटता है
कंपकँपता है जिस्म
कोरों पर कसमसाती हैं बूंदें
अँधेरा डराने लगता है
दर्द हौले हौले उतारता है लिबास
रात लिखती है नज़्म
धीरे धीरे ज़ख़्म
उतार देते हैं हाथों से पट्टियां
झुलसी लकीरों से ख़ामोशी करती है सवाल
दर्द अपनी करवट क्यों नहीं बदलता
लकीरें खामोश हैं
वक़्त ठठाकर हँसता है
रात लिखती है नज़्म
आग पर कदम
तुमने मेरे
जले हाथों में
भर दी है फिर से अगन
जब तुम
जला रहे थे
मेरे हाथों की लकीरें
उस वक़्त मैं देह के ब्रह्माण्ड से
चुन रही थी
सुलगते अक्षरों के शब्द
अब नहीं तलाशेगी मेरी क़लम
मुहब्बत का अर्थ लकीरों में
और न ही मैं इस आग की ख़ातिर
हवा से उधारी लूँगी
शीतलता
अब
जब भी रिसता है
बूँद बूँद इन हाथों से दर्द
ये कर देते हैं अपने ही ज़ख़्मों का
अनगिनत अनुवाद
इससे पहले कि
फफोले फूटकर पानी बह जाये
और मैं इस पीड़ा से मुक्त हो जाऊँ
मैं बो देना चाहती हूँ
नज़्मों की छाती में
उन तमाम सुलगते अक्षरों की
अगन
अब मैं
देखना चाहती हूँ
ख़ुद को तुमसे दूर
आग पर कदम रखकर
ज़ख़्मों का अनुवाद
रात भर मैं
करती रही ज़ख्मों का अनुवाद
रातभर घाव
बूंद-बूंद रिसते रहे
कुछ शब्द जो झुलस गए थे लकीरों से
रातभर अपना अर्थ
तलाशते रहे
अन्य रचनाएँ
मुक्तक
1
है बला क्या ये मुहब्बत थे अज़ी अनजान हम
जब लड़ी उनसे निगाहें हो गए हैरान हम
हो गए ख़ामोश वो कुछ दे न पाये फैसला
ले गए दिल भी हमारा लुट गए नादान हम
2
लिए हम दीप हाथों में ,खड़े नैना झुकाये हैं
मिलन की रात है आई, तुझे दिल ये बुलाये है
कहूँ कैसे पिया मैं अब रहा तुझबिन नहीं जाता
चले आओ कि हम बैठे सजन पलकें बिछाए हैं
3
बुलाती रही मैं नहीं पास आई
मुझे ज़िन्दगी तू नहीं रास आई
ज़रा क्या हँसी से मुलाक़ात चाही
मुहब्बत की मेरी उठा लाश लाई
4
सरेआम हमने अयाँ कर दिया है
मुहब्बत को’ अपनी बयाँ कर दिया हैै
कभी देख लेना वसीयत तू मेरी
तिरे नाम दिल का मकाँ कर दिया है
5
नही बचपन रहा मेरा कभी माँ आप पर भारी
बता फ़िर क्यों रही जाती हमेशा कोख़ में मारी
करूँ मैं काम सब घर के,सहूँ दुख-सुख सदा सँग भी
बता भैया से फ़िर भी क्यों नहीं तुझको लगी प्यारी
6
बड़ा बेदर्द है बालम न ख़ुद इज़हार करता है
कहूँ मैं बेहया होकर तो न स्वीकार करता है
बता दो रास्ता कोई, सुनो कुछ मशवरा दे दो,
कहे वो भी कभी हँसकर कि मुझसे प्यार करता है
7
छुपा दिल में रखा जो मीत वो पैग़ाम लिख़ डालो
सस्सी-पुन्नू कि राँझा-हीर, राधा-श्याम लिख डालो
बड़ी सूनी सुनो ! दिल की दिवारें, फ़िर सजा दो ना
तुम्हारा मैं लिखूँ, तुम भी हमारा नाम लिख डालो
8
क्या पता ये चाँद-तारे, ये नज़ारे हों न हों
झील-नदियाँ, ये शमा, हम-तुम, शिकारे हों न हों
प्यार उनसे है हमें, लो हीर ने है कह दिया
हो गए हम तो उन्हीं के, वो हमारे हों न हों
9
अग़र तुम लौट आओ तो वही ख़ुशबू बिखर जाये
खयालों में महक मीठी दुबारा फ़िर उतर जाये
कहाँ तक ढूँढ कर आती नज़र कैसे बताऊँ मैं
बना लो हीर को अपना ख़ुशी हँसकर ठहर जाये
10
आज़ उनसे है मुलाक़ात ख़ुदा ख़ैर करे
दिल हुआ जाये खुराफ़ात ख़ुदा ख़ैर करे
प्यार दिल का न झलक जाये कहीं आँखों से
बदले बदले से हैं हालात ख़ुदा ख़ैर करे
11
इक मुलाक़ात बनी हसीं रात ख़ुदा ख़ैर करे
बदले बदले से हैं हालात ख़ुदा ख़ैर करे
हर घड़ी निगाहों में इंतज़ार सा रहता है
दे जा प्यारी कोई सौगात ख़ुदा ख़ैर करे
12
वीरों की धरती भारत माँ , तुमको नमन करूँ मैं
सींचा जिन वीरों ने ख़ूँ से , उनको नमन करूं मैं
थर -थर-थर हिला दिया मिलकर अंग्रेजों को जिसने
जय-जय-जय ऐ अमर शहीदो तुमको नमन करूँ मैं
13
चाँद सूरज से फ़लक को प्रिय सजाकर देखिये
शाम सजदे में ख़ुदा के सर झुकाकर देखिये
खूबसूरत आपके दिल का मकाँ हो जायेगा
दिल जरा सा आप हमसे तो लगाकर देखिय
14
प्यार का इज़हार वो करते नहीं तो क्या हुआ
है पता हमको अग़र कहते नहीं तो क्या हुआ
पढ़ लिए अशआर उनके और ख़ुश हम हो लिये
नैन से ग़र नैन मिलते ही नही तो क्या हुआ
15
टीस सी इक दिल में है उठती बता कैसे कहूँ
इश्क़ में दिल की लुटी बस्ती बता कैसे कहूँ
इश्क़ के मौजूँ सभी अशआर मैंने लिख दिए
ज़िंदगी तन्हा नहीं कटती बता कैसे कहूँ
16
कभी जुर्रत कभी तेवर हरारत छोड़ दो अब तो
ख़ुदा से है नहीं डर जब इबादत छोड़ दो अब तो
लगाकर के तिलक माथे पे तुम करते हो नौटंकी
धरम के नाम पर करनी सियासत छोड़ दो अब तो
17
हटा लो तल्ख़ ये नजरें फ़राहत छोड़ दो अब तो
हमारे खूं पसीने की हक़ारत छोड़ दो अब तो
बहुत लूटा लुटेरे बन ,अभी तक देश को तुमने
धरम के नाम पर करनी सियासत छोड़ दो अब तो
18
इन्तिज़ार का आलम खिड़कियाँ समझती हैं
क्या सबब है जलने का बातियाँ समझती हैं
आप कैसे समझेंगे, आपने तो तोड़ा है
दर्द इस मुहब्बत का, हीरियाँ समझती हैं
19
आँखों ही’ आँखों’ में ज्यूँ इज़हार हो गया है
सूखा हुआ चमन फ़िर गुलज़ार हो गया है
झेले सितम हजारों हमने मुहब्बतों में
कैसे कहूँ कि तुमसे अब प्यार हो गया है
20
धूप गरमी हो या बारिश जल रहा इंसान देखो
है हमेशा ग़म बना इनका रहा महमान देखो
रोज़ फाकों में रहें ये, रोज़ तड़पे भूख से ये
हौसला फ़िर भी न टूटे, सख़्त कितनी जान देखो
21
आशिकी में कुछ नशा दमदार होना लाज़िमी है
तीर नज़रों का जिगर के पार होना लाज़िमी है
इस तरह ख़ामोश रहकर प्यार कैसे तुम करोगे
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना लाज़िमी है
22
दिल में’ कैसी लगी ग़मी सी है
ज्यूँ ये मुरझा रही कली सी है
आ कभी तो गले लगा मुझको
ज़िंदगी क्यों कटी-कटी सी है
क्षणिकाएँ
1. कैसी ज़मीं
खुदाया!
ये कैसी जमीं लिख दी
तूने लकीरों में
कोई पौधा इश्क़ का
उगता ही नहीं!?
2. ख़ामोशी
ख़याल
लिखते रहे रातभर
मुहब्बत की नज़्म
ख़ामोशी आई और सारे अक्षर
उठा ले गई
3. फ़रेबी
फ़रेबी हैं
हाथों की लकीरें
मुहब्बत के क़रीब आकर
बदल लेती हैं ये
रास्ता अपना
4. तवायफ़
ज़रा
बताना तो सही
मेरी नज़्म का कौन सा हर्फ़
अपने जिस्म की
दुकां सजाये बैठा था
जो तुम उसे
तवायफ़ समझ बैठे !?!
5. लाशें
सुनो!
ले तो लिया है तुमने
पर मत कुरेदना कभी
इसकी सतही परतों को
न जाने कितने
मुहब्बत के परिंदों की लाशें
दफ़्न हैं इस दिल की
मिट्टी में
6. तर्जुमा
सुनो!
सुना है तुम
तर्जुमा कर लेते हो शब्दों का
कभी मेरी इस अंतर मन की
ख़ामोशी का भी
तर्जुमा करना
7. ख़ामोशी का मौसम
बड़ी मशक्क़त से
इकट्ठा किये थे नज़्म ने फ़िर से
मुुहब्बत के कुछ अक्षर
ख़ामोशी का मौसम क्या गुज़रा
सब के सब पत्थर हो गए
8. नुकीले शब्द
सुनो !
अब रुख़ मोड़ लो अपना
टूटने के बाद बड़े नुकीले हो गए हैं
मेरे शब्द
कहीं तुम्हें ये चुभ न जाएं
9. इम्तहां
मैं रटती रही
प्रेम की परिभाषायें
जिंदगी ने दर्द का
इम्तहां ले लिया
10. उम्र के पत्ते
जब से नज़्म
पोर पोर मुस्कुराने लगी है
इक कुँवारी सी चाहत
राज़ दिल के बताने लगी है
चलो न कहीं से
चुरा लाएं
उम्रों के फिर वही
जवां पत्ते
11. इश्क़ की मिटटी
जब से तुमने
इश्क़ की मिटटी छिड़काई है
मेरी नज़्मों के मरे हुए शब्द
ज़िंदा होने लगे हैं
सुनो !
तुम आना आज़ की रात
हम मिलकर इन्हें
क़ब्रों से आज़ाद करेंगे
12. टूटता विश्वास
बड़ा मासूम सा यकीं था
नज़्म को अपने कहे शब्दों पर
मुस्कुराकर मुहब्बत भर देगी हामी
अब तेरी मेरी क़लम सांझी ही तो है
पगली दिनभर
अपने शब्दों को छिपाये
ख़ुद से ही नज़रें चुराती रही
13. रूह
आज़ रात खोल देना
मुहब्बत की क़ब्रों के सब द्वार
इक बेकल सी रूह जिस्म के
बारग़ाह से आज़ाद हुई है
14. इश्क़ का बीज
सुना था
बाँझ हुई मिट्टी में
कोई पौधा नहीं उगा करता
ये कौन बो गया इश्क़ का बीज
कि मिट्टी ने भी अपनी
जात बदल ली
15. मुहब्बत
रात जब
मुहब्बत के अक्षर उगे
चाँद बहुत देर
झील के पानी में नहाता रहा
नज़्म हौले हौले मुस्कुराती रही
इक हसीं सा ख़्याल
आता जाता रहा
16. पैरहन
ये कौन
दे गया दस्तक
बरसों से बंद दरवाजे पे
कि ज़िन्दगी
मुहब्बत के पैरहन
सीने लगी है
17. दीया
ये कौन जला गया
मेरी क़ब्र पर दीया आज़
कि मुहब्बत की कोख़ से फ़िर
ज़िन्दगी ने जन्म लिया है
18. सवाल
यक़ीनन
बेंधते तो होंगे
तुम्हें मेरे सवाल
ये और बात है कि हर बार
तयशुदा जवाबों से तुम
खामोश कर देते हो मेरी जुबाँ!
19. जीत
वे कोई
कमजोर से पल रहे होंगे
जब तुम्हारे तल्खियों भरे शब्द
जीत का जश्न मना मुस्कुरा उठे थे
वर्ना आज तक जीतती आई है
मेरी ही ख़ामोशी !!
20. रिश्ते
ये रिश्ते जो अब किसी
ज़ख्म की तरह कराहने लगे हैं
इससे पहले कि ये दम तोड़ दें
आओ इन्हें कांधा देकर उतार दें
और मुक्त कर दें बंधनों से
21. आह
दर्द हैरान था
ये किसने आह भरी है
जो मेरी कब्र पर से आज
फिर ये रेत उड़ी है
22. इश्क़
सीने में ये कैसा
फिर इश्क़ सा जला है
कि इस आग़ की लपट से
आज मेरा दुपट्टा जला है
23. हूक
उम्र खामोश थी
ये किसने बाँध दिए हैं
मेरे पैरों में दर्द के घुंघरू
कि रात की छाती में
यूँ हूक उठी है
24. ज़िंदगी
ये ज़िंदगी बस
तर्जुमा करती रही दर्दों का
और ज़ख्म मेरे
दास्तां लिखते रहे
25. दुआ
अय उम्मीदो !
अभी मत बाँधो रस्सी गले में
अभी तो मेरे हाथ
दुआ में उठे हैं
26. ख़ामोशी
ये किसने लिख दिया
मेरी देह की मिटटी का नसीब
कि नज़्म आज यूँ
खामोश हुए बैठी है
27. यादें
दिल की बस्ती के
बरसों पड़े बंद कमरों से
उतार लाई हूँ कुछ तस्वीरें यादों की
आज सहलाऊँगी ज़ख्मों को रात भर
दर्द फिर हरा होगा
28. कोरा सफ़्हा
बहुत कुछ
लिख लेने के बाद भी
कोरा का कोरा ही रहा
दिल का सफ़्हा
ये कौन सी विधा है
जहाँ शब्द होकर भी
नहीं होते !!
29. तुम्हारा स्पर्श
आज बरसों बाद
खोल कर बक्सा
छुआ जो दुपट्टे को
ज़िंदा था उसमें आज भी
तुम्हारा स्पर्श
30. सच
लौट आता है
हर बार शर्मिंदा होकर
दरवाजे से ही
ख़ामोशी की जुबां में लिपटा
मेरा सच
31. नासूर
छिलते-छिलते
ज़ख्म नासूर बन गया है
तुमने गाड़े भी तो थे
गहरे तक धँसने वाले
तीखे शब्द
32. ज़ख्म
मेरे पास
लिखने को
आखिरी पन्ना था
और तुम्हारे पास
शब्दों के बेहिसाब घाव
मैंने सारे ज़ख्म
दिल में उतार लिए
33. आँखों की भाषा
तुमने कभी
पढ़ा ही नहीं
मेरे अनकहे शब्दों में
छिपा प्रेम
पता नहीं कसूर
मेरी आँखों का था
या तुम ही नहीं जान पाए कभी
मेरी आँखों की भाषा
34. सीवन
बरसों बाद भी
नहीं उधड़ी है
चुप्पी की सीवन
बाबुल तेरे घर से
विदा होते वक़्त जो मैंने
सिल लिए थे अपने होंठ
35. खाली हथेलियाँ
तुम्हीं से चलकर
तुम्हीं तक खत्म होते हैं
मुहब्बत के सारे अक्षर
ये और बात है
सहेजने की कोशिश में
हर बार खाली रहीं
मेरी हथेलियाँ
36. रिश्ते
साथ रहने से किसी के संग
रिश्ते नहीं बनते
मुहब्बत खुद ब खुद बाँध लेती है
खुद को इक हसीं से
रिश्तों में
37. परिभाषा
मैं रटती रही
परिभाषाएं प्रेम की
जिंदगी दर्द का इम्तहाँ
लेती रही
38. वेश्या
कितने ही शब्द
रहस्य बने हुए हैं उसकी देह पर
जिन्हें वह भीतर ही भीतर
चबा जाती है अश्कों के साथ
39. ज़िन्दगी
पन्ने पलटने से
नहीं मिल जाती ज़िन्दगी
वह तो रुमाल पर काढ़ा एक फूल है
जो प्रेम करने वालों को
मिलता है नसीब से
40. उडारी
उड़ान की उम्मीद से
फड़फड़ाये थे अपने पंख मैंने
पर उड़ान जितनी पास थी
आसमान उतना ही दूर
अधकटे पंख उम्र के इस मोड़ पर
उडारी न भर सके
41. सिले होंठ
सिले हुए होंठ
नमी तो ले आते हैं आँखों में
पर तुम्हारा नाम
कभी होंठों से बाहर
नहीं आने देते
आजुर्दगी …..
बसंत भी है …..चांदनी भी ….कोयल की कूक भी …..नही है …..तो वो नज़र …।! पेश है ये नज़म ….
सामने खुला आसमां औ’
बे रौनक सी ये चाँदनी
जैसे कह रही हो कोई
दर्द भरी कहानी
मौन निशब्द ये तारे
हैं कवियों की सुंदर कल्पना
पर छुपी इनके रूख पर
आजुर्दगी* किसी ने न जानी
शब क्यूँ है रोती
अंधेरे की ओट में
शबनम की ये बूंदें
कहती किसके गम की कहानी ?
कौन जाने ये बुलबुल
गा रही गीत खुशी के ?
या दर्द- ए -फ़िराक* में
कह रही कथा जुबानी ?
जाने आहटें ये कैसी
रातों में हैं सबा की हैं
या किसी तड़पती रूह की
कथा है कोई पुरानी
राहत – ए-दौर को हुई मुद्दतें
सुर्ख रंग पडा अब ज़र्द है
हर एक शख्स में मुझको
नजर आती अपनी ही कहानी ….!!
१) आजुर्दगी-रंज
२)दर्द- ए -फ़िराक – वियोग का दुः
एक ख़त इमरोज़ के नाम
(२१ सितंबर २००८ मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन था। आज मुझे इमरोज जी का नज़्म रुप में खत
मिला। उसी खत का जवाब मैंने उन्हें अपनी इस नज़्म में दिया है…)
इमरोज़
यह ख़त,ख़त नहीं है तेरा
मेरी बरसों की तपस्या का फल है
बरसों पहले इक दिन
तारों से गर्म राख़ झडी़ थी
उस दिन
इक आग अमृता के सीने में लगी
और इक मेरे
जलते अक्षरों को
बरसों सीने से चिपकाये हम
कोरे कागज़ की सतरों को
शापमुक्त करती रहीं…
शायद
यह कागज़ के टुकडे़ न होते
तो दुनियाँ के कितने ही किस्से
हवा में यूँ ही बह जाते
और औरत
आँखों में दर्द का कफ़न ओढे़
चुपचाप
अर्थियों में सजती रहती…
इमरोज़
यह ख़त, ख़त नहीं है तेरा
देख मेरी इन आँखों में
इन आँखों में
मौत से पहले का वह सकूं है
जिसे बीस वर्षो से तलाशती मैं
जिंदगी को
अपने ही कंधों पर ढोती आई हूँ…
यह ख़त
उस पाक रूह से निकले अल्फाज़ हैं
जो मुहब्बत की खातिर
बरसों आग में तपी थी
आज तेरे इन लफ्जों के स्पर्श से
मैं रुई सी हल्की हो गई हूँ
देख ,मैंने आसमां की ओर
बाँहें फैला दी हैं
मैं उड़ने लगी हूँ
और वह देख
मेरी खुशी में
बादल भी छलक पडे़ हैं
मैं
बरसात में भीगी
कली से फूल बन गई हूँ
जैसे बीस बरस बाद अमृता
एक पाक रूह के स्पर्श से
कली से फूल बन गई थी…
इमरोज़!
तुमने कहा है-
कवि, कलाकार ‘हकी़र’ नहीं होते,
तुम तो खुद एक दुनियाँ हो,
शमां भी हो और रोशनी भी
तुम्हारे इन शब्दों ने आज मुझे
अर्थ दे दिया है
भले ही मैं सारी उम्र
आसमान पर
न लिख सकी
कि ज़िंदगी सुख भी है
पर आज धरती के
एक क़ब्र जितने टुकडे़ पर तो
लिख ही लूंगी
कि ज़िंदगी सुख भी थी
हाँ इमरोज़!
लो आज मैं कहती हूँ
ज़िंदगी सुख भी थी …
पत्थर होता इंसान
दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्म् है औ,
शब्द तार तार है
एक बूँद पीठ सेंककर
धुआँ-धुआँ सी उड चली
वक्त की मुरदा उम्मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं
प्रेम,स्नेह,नीर पत्तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्तक धडकनों की बेकार है
घर,बाग,ठूँठ से जंगल
सर्द-शुष्क बियाबान से हैं खडे
सँघर्षो की इस आग में
पत्थर हुए इँसान हैं
गीत चिता के
मैंने तसब्बुर में तराशकर
रंगों से था इक बुत बनाया
मुकद्दर की चिंगारी इक दिन
उसमें आग लगा बैठी
न जाने उदासी का इक दरिया
कहाँ से कश्ती में आ बैठा
खा़मोशी में कैद नज़्म
आँखों से शबनम बहा बैठी
मेरी देह के कागचों को
ये किसने शाप दे दिया
न लिखी किसी ने गजल
मैं उम्र गँवा बैठी
झाड़ती रही जिस्म से
ताउम्र दर्द के जो पत्ते
उन्हीं पत्तों से मैं
घर अपना सजा बैठी
मौत को अपनी जिंदगी के
सुनहरे टुकडे़ देकर
गीत अपनी चिता के
मैं गा बैठी !
जो जंजीरें खुलीं
रात आसमाँ के घर नज़्म मेहमाँ बनी
चाँदनी रातभर साथ जाम पीती रही
बादलों ने जिस्म़ से जँज़ीरें जो खोलीं
नज़्म सिमटकर हुई छुईमुई-छुईमुई
ख्वाबों ने नज़्मों का ज़खीरा बुना
हरफ रातभर झोली में सजते रहे
नज्म़ टाँकती रही शब्द आसमाँ में
आसमाँ जिस्म़ पे ग़ज़ल लिखता रहा
वक्त पलकों की कश्ती पे होके सवार
इश्क के रास्तों से गुज़रता रहा
तारों ने झुक के जो छुआ लबों को
नज़्म शरमा के हुई छुईमुई-छुईमुई
जख़्मों के दस्तावेज़
दस बरसों के फासले में
जिन्दगी बस अंगुलियाँ काटती रही
समूची दानवता
मेरे आंगन की मिट्टी में
गीत लिखती रही
और मैं
रेत में सरकते रिस्तों को
घूँट घूँट पीती रही
हम दोंनो की बीच की हवा का
यूँ अचानक खा़मोश हो जाना
और फिर दरारों में बदल जाना
मेरे लिए
कोई अनहोनी बात न थी
न मैं टूटी थी
बस एक और अध्याय
जुड गया था नज्म़ में
धुँए का एक गुब्बार सा उठा
और ज़हरीली परछाइयाँ सी छोड गया
पन्नों पर
कई बार हमारी बेबुनियादी बहस
मेरी सोच में पिसती रहती
देह में काँच की किरचें सी चुभती
न जाने कितने जख़्मों के पुल
मैं चुपचाप लाँघ जाती
एक अशुभ क्षण
स्मृतियों को
दहकती सलाखों सा साल जाता
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
जब बरसों पहले
उम्र के गीतों में पैरहन लगे थे
मेरा सब्र कश्तियों में डूबने लगा था
मैं ऊँचे चबूतरे पे खडी
देर रात आसमां के
टूटते तारों में
किस्मत की लकीरें ढूंढा करती
और फिर थके कदमों से लौट
सडे-गले मुल्यों और मान्यताओं की
दीवारों में टूटते
घुंघरुओं को देखती रहती
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
जब बरसों पहले
हसीं गजरे के फूलों से रूठी थी
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
शायद तब मेरे लिए यह
अनहोनी बात थी
मेरे आंगन के दरख्तों के पत्ते
सूखकर झडने लगे थे
हवा सांसों में कराहती
लफ्ज़ तालों में दम तोड देते
मैं रात गये चाँद को खत लिखती
सितारों से मोहब्बत की नेमतें माँगती
बादलों को सिसकती मिट्टी का वेरवा* देती
अक्षर बोलते मगर कलम खा़मोश रहती
दो बूंद लहू आँखों के रस्ते से चुपचाप
बह उठता,पर-
मौत पास आकर रूठ जाती
हमारे बीच की हवा
तब भी खा़मोश थी
और फिर इक दिन
तेज साँसों ने कसकर मेरा हाथ पकडा
और उतार ले गई थी सीढियाँ
मैं लाँघ आई थी दीवारें
कटघरे में खडी होकर
बँद मुठ्ठी खोल दी थी
बरसों के इतिहास में उस दिन तुम
पहली बार
मेरे लिए सुर्ख गुलाब लेकर आए थे
झुठ,फरेब और मक्कारी से सना
वह गुलाब, जिसमें तुम
अपने चेहरे का सारा खौ़फ
छिपा देना चाहते थे
कितना बेगैरत हो गया था उस दिन
मेरे लहू में क़हक़हे का
इक उबाल सा उठा
और ज़मीर ने
बगावत की कै कर दी
मैं अपनी होंद के
बचे हुए टुकडे समेटकर
जिस्म़ से रस्सियाँ खोलने लगी!
यह कैसी आजा़दी है?
अभी-अभी बम के धमाको़ से
चीख़ उठा है शहर
बच्चे, बूढे,जवान
खून से लथपथ
अनगिनत लाशों का ढेर
इस हृदय वारदात की
कहानी कह रहा है
ओह!
यह कैसी आजा़दी है
जो घोल रही है
मेरे और तुम्हारे बीच
खौ़फ, आग और विष का धुआँ?
हमारे होठों पे थिरकती हंसी को
समेटकर
दुबक गई है
किसी देशद्रोही की जेब में
और हम
चुपचाप देख रहे हैं
अपने सपनों को
अपने महलों को
अपनी आकांक्षाओं को
बारूद में जलकर
राख़ में बदलते हुए.
दुहाई है! ऐ जिस्म से खेलने वाले इंसानों…
अभी तो ताज़ा थे ज़ख्म
पिछले वर्ष के
जब इन्हीं सडकों पर निर्वस्त्र
घसीटी गई थी
घर की लाज
और आज
ठीक एक वर्ष बाद
एक और गहरा जख्म…?
एक के बाद एक
छ: मिनट में छ: धमाके
ओह! इतनी दरिंदगी…?
इतनी निर्दयता…?
रक्तरंजित सड़कों पर
बिखरी पडी़ हैं लाशें
क्षत-विक्षत अंगों का बाजार लगा है
क्रोध,आक्रोश, धुआँ,बारूद, आगज़नी
चारो ओर कैसा ये सामान सजा है…?
आह..! मन आहत है भीतर तक
क्यों मर गई हैं हमारी संवेदनाएं…?
क्यों मर गई है हमारी मानवता…?
मुझे माफ करना
ऐ दर्द में कराहते इंसानों
मुझे माफ करना
अय बारूद में जलकर तड़पते इंसानो
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने मानव रुप में जन्म लिया
मैं शर्मींदा हूँ
क्यों मैंने इस धरती पर जन्म लिया…
दुहाई है!
ऐ मानव जिस्म़ से खेलने वाले इंसानो…!
दुहाई है
ऐ रब की बनाई दुनियाँ में
आग लगाने वाले इंसानो…!
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम सिसकियों की
दुहाई है तुम्हें
उन मासूम आहों की…
जो आज तुम्हारी वजह से
यतीम कहलाये जा रहे हैं…
उदास सी इक शाम
उदास सी इक शाम
खिड़की पे उतर आई है
मौत इक कदम चल कर
कुछ और करीब आई है
चलो अच्छा है
अब न सहना होगा
लंबी रातों का दर्द
न अब देह बेवहज
दर्द के बीज बोयेगी
लो मैंने खोल दी है
आसमां की चादर
रंगीन धागों में इक किरण
कफ़न सिल लाई है
उम्मीदों के पत्ते
गम की बावली में डुबोकर
जिन्दगी
वेश्या सी मुस्कुराई है।
तुम भी पूछना चाँद से
जब तुम
लौट जाओगे
मैं पलटूँगी
मौसम के पन्ने
यादों की चिट्ठी से
भर लूँगी
मुठ्ठी में बादल…
कुछ भीगे अक्षर
तपती देह पर रखकर
मैं खोलूँगी
रंगो की चादर…
पूछूँगी उनसे
हवाओं के दोष पर
बहते बादलों का पता
सूरज वाले मंत्र
और स्पर्श के
उन एहसासों को
जो जिंदा होगें
तुम्हारे सीने पर
‘ओम’ बनकर…
तुम भी पूछना
चाँद से
ताबूतों में बंद
हवाओं ने
कफ़न ओढा़ या नहीं…
आज मोहब्बत का ‘ताज’ भी गम़जा़या होगा…
अब न जाने कितना गम़ उन्हें पीना होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्तों किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा
अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग-गुलाल होगा
खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा
गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा
रातों को हुई होगी जो सन्नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्ता उन्हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्हें निगाहें
आज मोहब्बत का ‘ताज’ भी गम़जा़या होगा
क्षणिकायें
1
ज़ख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे ज़ख्मों की
मौत न हुई…
2
दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा…
3
टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
ज़ख्मों को
जाने और कितना
रुलाएंगे…
4
शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।
5
सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा…
6
वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्ज़ों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा…
7
गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं…
8
दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
ज़ख्म…
9
तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह…
10
तुम ही कह दो…
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें…
11
किस उम्मीद में…
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां…?
अब तो रोशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है…
12
सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न
प्रत्युत्तर
हाँ;
मैं चाहती हूँ
सारे आसमां को
आलिंगन में
भर लूँ…
हाँ;
मैं चाहती हूँ
चंद खुशियाँ
कुछ दिन और
समेट लूँ…
पर;
मेरे आसमां में
न कोई तारा है
न आफ़ताब…
वह तो रिक्त है
शुन्य सा
भ्रम है
क्षितिज सा…
मेरी कल्पनाओं का
कोई इमरोज नहीं
न ही कोई अन्य
चित्रकार…
कसूर
धड़कनों का नहीं
कसूर नजरों का था
कुछ तुम्हारी
कुछ मेरी…
इन बेवजह
धड़कती धड़कनों को
समेटना तो मुझे
बखूबी आता है…
बरसों से
मदिरा के प्यालों में
डूबो-डूबो कर
इन्हें ही तो
पीती आई हूँ…
हाँ;
इतना तो सच है
आज तुम्हारे ही लिए
मैंने इन शब्दों
को बाँधा है…
किसी
उपनाम से ही सही
तुम्हारे प्रत्युत्तरों को
ढूंढा करूँगी मैं
इन्हीं पन्नों में…
ताकि
उत्तर-प्रत्युत्तर के
इन्हीं सिलसिलों में
किन्हीं और शब्दों को
बाँध पाऊँ…
पत्थर होता जिस्म़
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा..
दर्द के टुकड़े
फेंके हुए लफ़्ज
धूप की चुन्नी ओढे़
अपने हिस्से का
जाम पीते रहे
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए…
कुछ उदास सी चुप्पियाँ ….
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात…
बिजलियों के टुकडे़
बरस कर
कुछ इस तरह मुस्कुराये
जैसे हंसी की खुदकुशी पर
मनाया हो जश्न
चाँद की लावारिश सी रौशनी
झाँकती रही खिड़कियों से
सारी रात…
रात के पसरे अंधेरों में
पगलाता रहा मन
लाशें जलती रहीं
अविरूद्ध साँसों में
मन की तहों में
कहीं छिपा दर्द
खिलखिला के हंसता रहा
सारी रात…
थकी निराश आँखों में
घिघियाती रही मौत
वक्त की कब्र में सोये
कई मुर्दा सवालात
आग में नहाते रहे
सारी रात…
जिंदगी और मौत का फैसला
टिक जाता है
सुई की नोंक पर
इक घिनौनी साजि़श
रचते हैं अंधेरे
एकाएक समुन्दर की
इक भटकती लहर
रो उठती है दहाडे़ मारकर
सातवीं मंजिल से
कूद जाती हैं विखंडित
मासूम इच्छाएं
मौत झूलती रही पंखे से
सारी रात…
कुछ उदास सी चुप्पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात…
तखरीव का बादल
कोलतार सी पसरी रात
उम्मीदों के लहू में लिथडी़
बुदबुदा के कहती है
कोई दो घूंट पीला दे
दर्द का जा़म
दबोच रहा है
जैसे कोई गला
खराशें पड़ने लगीं हैं
सासों में
पथराई आँखों में है यथावत
इक मर्माहत प्यास
सूखे गलों में
अटकी पडी़ हैं
अधजली आवाजें
विश्वासों की जमीं
खिसकने लगी है
आक्रोश में पनपे
जहर के अंगारे
थिरकने लगे हैं
बाँध घुंघरू पैरों में
लील गया है सन्नाटा
स्वभाविक स्वाद
शब्द अटके पडे़ हैं
अधरों में
अवसाद और प्रताड़ना की
कातिल अभिव्यक्ति
है सडा़ध सिसकते
शयनकक्षों में
खौ़फ और दहशत
है अपने साये की
जु़म्बिश का
फूलों की ख्वाहिशें
डूब गई हैं
गिरते बुर्जों में
तखरीव का बादल
बरस रहा है
दर्द की बूँद लिए.
१.तखरीव- विनाश
कविता
हंसी की इक
फिजूल सी कोशिश में
कई बार मैं
उसके चेहरे को टटोलती
जालों को उतारने की
नाकाम कोशिश में
बादबन[1]खोलती
पर हवायें
और मुखालिफ़[2] हो जातीं
इर्द-गिर्द के घेरे
और कस जाते…
आँखें
एक लम्हे के लिए
आस की लौ में
चमक उठतीं
और दूसरे ही पल
तेज धूप की आंच लिए
बेमौसम की बरसात में
बोझल हो जातीं…
इक नक़्श उभरता
चेहरा टूटता
जख़्म हंसते
आसमां फिर एक
झूठी कहानी गढने लगता…
मैं…
पढने की कोशिश करती
मुझे यकीन था
वो लड़खडा़येगा
सख़्त चट्टानों से टकराकर
सच उसके चेहरे पर
छलक आयेगा…
मैं पूछती
तुम्हें याद है….
इक बार जब तुम गिर पडे़ थे…
ऊपरी सीढी़ से….?
उसने कहा…
नहीं..
मुझे कुछ याद नहीं..
मैं कभी नहीं गिरा..
मैं गिरना नहीं जानता
मैं निरंतर चलना जानता हूँ
आखिरी सीढी़ तक…
मैंने फिर कहा…
जानते हो यह तुम्हारे
चेहरे पर का जख़्म…..?
नहीं…….
मै किसी अतीत से नहीं बँधा
गिरना और चोट लगना
एक स्वभाविक क्रिया है
न वह अतीत है
न वर्तमान…
ज़िंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता…
मैंने
फिर एक कोशिश की…
कहा…
कुछ बोझ मुझे दे दो
हम साथ-साथ चलेंगें तो
हवायें सिसकेंगी नहीं…!
हुँह…!
तुम्हारी यही तो त्रासदी है
ज़िंदगी भर
गिरने का रोना…
खोने का रोना…
पाने का रोना…
दर्द का रोना…
रोना और सिर्फ रोना…
मैंने देखा
उसके चेहरे के निशान
कुछ और गहरे हो गए थे
अब कमरे में घुटन साँसे लेने लगी थी
मुझे अजीब सी कोफ्त होने लगी
खिड़की अगर बंद हो तो
अंधेरे और सन्नाटे
और सिमट आते हैं
मैंने उठकर
बंद खिड़की खोल दी
सामने देखा…
धूप की हल्की सी किरण में
मकडी़ इक नया जाल
बुन रही थी….!!
अतीत का कोहरा ……
ख़राशीदा[1] शाम
कंदील रोशनी में
एहसास की धरती पर
उगाती है पौधे
कसैले बीजों के…..
वक़्त की इक आह
नहीं बन पायी कभी आकाश
ज़ब्त करती रही भावनाएं,
उत्तेजनाएं,अपना प्यार
और सौन्दर्य
इक तल्ख़[2]मुस्कान लिए…..
सपनो के चाँद पर
उड़ते रहे वहशी बादल
इक खुशनुमा रंगीन जी़स्त[3]
बिनती है बीज दर्द के
मन के पानी में
तैर जाती हैं कई …
खुरदरी, पथरीली,नुकीली,
बदहवास,हताश
परछाइयाँ…..
आँखें अतीत का कोहरा लिए
छाँटती हैं अंधेरे
स्मृतियों की आकृति में
गढ़ उठते हैं
कई लंबे संवाद
कटु उक्तियाँ…..
कठोर वर्जनाएं
आँखों की बौछार में
मांगती हैं जवाब
प्रश्न लगाते हैं ठहाके
कानून उड़ने लगता है
पन्नों से…..
आदिम युग की रिवायतें[4]
स्त्री यंत्रणाएं
समाज की नीतियाँ
विद्रूपताएँ
वर्तमान युग में सन्निहित
मेरे भीतर की स्त्री को
झकझोर देती हैं…
जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे…..
बेजूबां हैं क्यूँ लोग यहाँ……
फिजां में उठ रही लपट सी क्यों है
ये भगदड़ सी क्यों शहर में मची है
ये ताज क्यूँ जला आज आग में
यहाँ इंसानियत क्यों दिलों में मरी है…..
ये किसकी साजि़श है जो सड़कों पे
खामोशी सी यूँ , पसरी पडी़ है
लगी हैं क्यूँ , कतारों में लाशें
ये खूँ की होली फिर क्यों जली है…..
ये शहर, ये गलियाँ, ये सड़कें,ये मकां
बेजूबां हैं क्यूँ , लोग यहाँ
पूछता नहीं क्यूँ कोई किसी से
ये किसकी अरथी कांधों पे उठी है…..
आदमी ही आदमी का दुश्मन बना क्यों
बीच चौराहे पे क्यूँ ये गोली चली है
रात मेरी तो कट जायेगी हकी़र सजदे में
पर तेरे घर की खिड़की भी तो खुली है……!?!
जब दर्द ने रो लेना चाहा ……..
ऐ ज़िन्दगी !
पता नहीं तू भी
क्या क्या खेल खेलती है ….
आज बरसों बाद
जब दर्द ने
ख़ुद मेरे ही कंधों पर
सर रख रो लेना चाहा है
तब
मेरी जीस्त के
तल्खियात भरे सफहों में
न प्रेम से भीगे वो शब्द हैं
न उन्स* भरे वो हाथ
अब एसे में
तुम ही कहो
मै कैसे उसे
सांत्वना दूँ ……..!?!
उन्स*= स्नेह
दर्द की दवा……
तमाम रात मैं
अधमुंदी आंखों से
तारों की लौ में
टूटे शब्दों पर टंगी
अपनी नज़म
ढूंढती रही …..
मुस्कानों का खून कर
ज़िन्दगी भी जैसे
चलते – चलते
ख़ुद अपने ही कन्धों पर
सर रख
रो लेना चाहती है ….
मैंने
रात के आगोश में डूबते
सूरज से पुछा
चाँद तारों से पुछा
अंगडाई लेती
बहारों से पुछा
सभी ने
अंधेरे में रिस्ते
मेरे ज़ख्मों को
और कुरेदना चाहा ….
मैंने अधमुंदी पलकें
खोल दीं
गर्द का गुब्बार
झाड़ दिया
और अपनी
बिखरी नज्मों को
समेटकर
सीने से लगा लिया ….
यही तो है
मेरे दर्द की दवा
मैंने उन्हें चूमा
और अपने जिस्म का
सारा सुलगता लावा
उसमें भर दिया ….!!
कफ़न में सिला ख़त …
तेरे आँगन की मिट्टी से
उड़कर
जो हवा आई है
साथ अपने
कई सवालात लाई है
अब न
अल्फाज़ हैं मेरे पास
न आवाज़ है
खामोशी
कफ़न में सिला ख़त
लाई है ……………
तेरे रहम
नोचते हैं जिस्म मेरा
तेरी दुआ
आसमाँ चीरती है
देह से बिछड़ गई है
अब रूह कहीं
तन्हाई अंधेरों का अर्थ
चुरा लाई है …………..
दरख्तों ने की है
मक्कारी किसी फूल से
कैद में जिस्म की
परछाई है
झांझर भी सिसकती है
पैरों में यहाँ
उम्मीद जले कपड़ों में
मुस्कुराई है …………
रात ने तलाक
दे दिया है सांसों को
बदन में इक ज़ंजीर सी
उतर आई है
वह देख सामने
मरी पड़ी है कोई औरत
शायद वह भी किसी हकीर की
परछाई है …………….!!
तलाश…..
अक्सर सोचती हूँ
खुद को बहलाती हूँ
कि शायद….
छुटे हुए कुछ पल
दोबारा जन्म ले लें ….
दुःख, अपमान,क्षोभ और हार
एहसासों भरे निष्कासन का द्वंद
नाउम्मीदी के बाद भी
आहिस्ता-आहिस्ता बनाते हैं
संभावनाओं के मंजर …..
पिघलते दिल के दरिया में
इक अक्स उभरता है
किसी अदृश्य और अनंत स्रोत से बंधा
इक जुगनुआयी आस का
टिमटिमाता दिया ……
बेचैन उलझनों की गिरफ्त
प्रतिपल भीतर तक धंसी
उम्मीदों को
बचाने की नाकाम कोशिश में
टकरा-टकरा जातीं हैं
एक बिन्दु से दुसरे बिन्दु तक ……
तभी…..
वादियों से आती है इक अरदास
सहेज जाती है
मेरे पैरों के निशानात
बाँहों में लेकर रखती है
ज़ख्मों पर फाहे
सहलाती है खुरंड
आहात मन की कुरेदन
तलाशने लगती है
श्मशानी रख में
दबी मुस्कान…….!!
धुआँ धुआँ है आसमाँ…
लुटी-लुटी हैं सरहदें
धुआं – धुआं है आसमां
डरी – डरी हैं बस्तियां
डरा-डरा सा है समां
फूल दीखते नहीं किसी शजर पे
ज़ख्म उगे हैं हर शाख़ पे
ये कैसी जमीं है जहां
उगती हैं फसल के बदले गोलियाँ
डरी-डरी है ………….
सहमी-सहमी सी है सबा
चाँद का भी रंग उड़ा
ये कौन लिए जा रहा है
मेरे शहर की रौशनियाँ
डरी- डरी हैं………..
धमकी , धमाके , लूट ,कत्ल ,अपहरण
है चारो ओर अम्नो-चैन की बर्बादियाँ
बेखौफ फिरते हैं आतताई लिए हाथों में खंजर
है मेरे हाथों में खूं से सनी रोटियाँ
डरी-डरी हैं………….
ज़र , ज़मीं , मज़हब, सिहासत , मस्लहत
इन मजहबों के झगड़े में
खुदा भी हुआ है लहू-लुहाँ
बता मैं कैसे मनाऊँ
ज़श्ने-आज़ादी ऐ ‘हक़ीर ‘
रोता है दिल देख …
उन लुटे घरों की तन्हाईयाँ
डरी- डरी हैं …………
लुटी-लुटी हैं …………!!!
नज़्में….
१)
ज़िन्दगी इक ज़हर थी
जिसमें खुद को घोलकर
इन नज्मों ने
हर रोज़ पिया है
जिसका रंग
जिसका स्वाद
इसके अक्षरों में
सुलगता है
(२)
ज़ख्मों पर
उभर आए थे कुछ खुरंड
जिन्हें ये हर रोज़
एक-एक कर
उतारती हैं
(३)
इक हँसी
जो बरसों से कैद थी
ताबूत के अन्दर
उसका ये मांगती हैं
मुआवजा
(४)
कटघरे में खड़ी हैं
कई सवालों के साथ
के बरसों से सीने में दबी
मोहब्बत ने
खुदकशी क्यों की ….??
(५)
कुछ फूल थे गजरे के
जो आँधियों से बिखर गए थे
उन्हें ये हर रोज़
एक-एक कर चुनती हैं
(६)
शाख़ से झड़े हुए पत्तों का
शदीद दर्द है
जो वक्त- बे -वक्त
मुस्कुरा उठता है
चोट खाकर
( शदीद -तेज )
(७)
उन कहकहों का उबाल हैं
जो चीखें नंगे पाँव दौड़ी हैं
कब्रों की ओर
(८)
इक वहशत जो
बर्दाश्त से परे थी
इन लफ्ज़ों में
घूंघट काढे बैठी है
(९)
खामोशी का लफ्ज़ हैं
जो चुपके-चुपके
बहाते हैं आंसू
ख्वाहिशों का
कफ़न ओढे
१०)
जब-जब कैद में
कुछ लफ्ज़ फड़फड़ाते हैं
कुछ कतरे लहू के
सफहों पर
टपक उठते हैं
(११)
ये नज्में …..
उम्मीद हैं ….
दास्तां हैं ….
दर्द हैं …..
हँसी हैं ….
सज़दा हैं …..
दीन हैं …..
मज़हब हैं ….
ईमान हैं ….
खुदा …..
और ….
मोहब्बत का जाम भी हैं ….!!
रखा चूम कर फूल तेरे कदमों पे…..
ऊँची सफ़ेद बर्फीली पहाडियां
धरती के स्वर्ग कश्मीर की वादियाँ
आज हैं रक्त-रंजित
तोपों के धमाकों से
थर्रा रही…..
खौफ़ और आग का धुंआ बना
इक कहानी तवारिख की ….
दुल्हन की तरह सजे शिकारे
सैलानियों को लेकर
जो डल झील थी इतराती
आज पत्ती-पत्ती, हर शाख़
है खौफज़दा …..
जो सरज़मीं कश्मीर की
जन्नत की तस्वीर थी
है वहाँ सन्नाटा
महक है चरों तरफ़
बारूद की …….
मौन, निशब्द
शालीमार और गुलमर्ग
दर्द से कराहते
कह रहे हैं दास्तां
सैकड़ों मारे गए बेगुनाह
वतन परस्तों की ….
मेरी दुआ
तेरे रख्शे करम
अए वीर जवानों
मेरे हिस्से की चंद खुशियाँ भी
तुझे मयस्सर
रखा चूम कर फूल
तेरे क़दमों पे
भुला न पाएंगे शहादत
तेरी जवानी की ……!!!!
जो देते हैं दर्द उन ग़मों से क्या सिला रखना….
जो देते हैं दर्द उन ग़मों से क्या सिला रखना
बहा दो अश्कों से न उन्हें दिल में दबा रखना
वो भला क्या समझेंगे मोहब्बत की बातें
जिनकी है अदा हर दिल को ख़फा रखना
बेच दी हो जिसने गैरत भी अपनी
क्या उनके लिए दिल में गिला रखना
आ चल चलें कहीं दिल को बहलाने
जरुरी है हर ज़ख्म को खुला रखना
मिल जायेंगे इस जहाँ में सैंकडों हमसफ़र
प्यार के फूल ‘हक़ीर’ दिल में खिला रखना
बोलते पत्थर,चार कविताएँ…
(१)
बोलते पत्थर ……..
जब कभी छूती हूँ मैं
इन बेजां पत्थरों को
बोलने लगते हैं
ज़िन्दगी की अदालत में
थके- हारे ये पत्थर
भयग्रसित
मेरी पनाह में आकर
टूटते चले गए
बोले……
कभी धर्म के नाम पर
कभी जातीयता के नाम पर
कभी प्रांतीयता के नाम पर
कभी ज़र,जोरू, जमीन के नाम पर
हम …………..
सैंकडों चीखें अपने भीतर
दबाये बैठे हैं ……..!!
(२)
मन्दिर मस्जिद विवाद ….
वह ….
कुछ कहना चाह रहा था
मैंने झुक कर
उसकी आवाज़ सुनी
वह कराहते हुए धीमें से बोला……
मैं तो बरसों से चुपचाप
इन दीवारों का बोझ
अपने कन्धों पर
ढो रहा था
फ़िर……
मुझे क्यों तोड़ा गया ….?
मैंने एक ठंडी आह भरी
और बोली, मित्र …….
अब तेरे नाम के साथ
इक और नाम जुड़ गया था
‘मन्दिर’ होने का नाम ……!!
(३)
भ्रूण हत्या ……
मन्दिर में आसन्न भगवान से
मैंने पूछा …….
तुम तो पत्थर के हो ….
फ़िर तुम्हें किस बात गम ….?
तुम क्यों यूँ मौन बैठे हो……??
वह बोला …….
जहां मैं बसता हूँ
उन कोखों में नित
न जाने कितनी बार
कत्ल किया जाता हूँ मैं …..!!
(४)
आतंक के बाद ……
सड़क के बीचो- बीच
पड़े कुछ पत्थरों ने …
मुझे हाथ के इशारे से रोका
और कराहते हुए बोले…..
हमें जरा किनारे तक छोड़ दो मित्र
मैंने देखा …..
उनके माथे से
खून रिस रहा था
मैंने पूछा ….
‘तुम्हारी ये हालत….?’
वे आह भर कर बोले …..
तुम इंसानों के किए गुनाह ही
इन माथों से बहते हैं …..!!
मोहब्बत का निग़ार है नज़्म…..
मानो तो ख़ुदा की इबादत का साज़ है नज़्म
बेबस खामोशी की आवाज है नज़्म
किसी कब्र में सिसकती मोहब्बत की निगार[1] है नज़्म
आशिकों की रूह से निकली पुकार है नज़्म
हवाओं का भी रुख मोड़ दे वो तूफ़ान है नज़्म
दिल में छुपे दर्द की ज़ुबान है नज़्म
बेंध दे सीना पत्थरों का वो औज़ार है नज़्म
शायर और आशिकों की मज़ार है नज़्म
चट्टानों पर लिखा इश्क का पैगाम है नज़्म
न भूले सदियों तक ‘हकीर’ वो इलहाम[2] है नज़्म
मैं तेरा दीवाना हूँ …..
(1)
तोहफ़ा
रात आसमां कुछ सितारे
झोली में भर कर ले आया
मैंने कहा ……
मेरा सितारा तो मेरे पास है
वह बोला ……
पर वो तुझे रौशनी नहीं देता
ये तुझे रौशनी भी देंगे ,
और रास्ता भी ….
मैंने पूछा कौन हैं ये ….?
तेरी नज्मों के दीवाने
वो मुस्कुराया ……!!
(२)
साथी
कुछ लफ्ज़ कमरे में
इधर-उधर बिखरे पड़े थे
मैंने छूकर देखा ….
सभी दम तोड़ चुके थे
सिर्फ़ एक लफ्ज़ जिंदा था
मैंने उसे पलट कर देखा
वह ‘ दर्द ‘ था …..
मैंने उसे उठाया
और सीने से लगा लिया …..!!
(३)
दर्द का शिकवा
वह इक कोने में बैठा
सिसक रहा था ….
मैंने पूछा …..
‘ क्यों रो रहे हो साथी ….? ‘
वह बोला ……
वे तुम्हें मुझसे
छीन लेना चाहते हैं …..!!
(४)
दीवाना
वह झुक कर
धीमें से बोला …..
मैं तेरा दीवाना हूँ ‘ हक़ीर ‘
और मेरे लबों को चूम लिया
मैंने पलकें खोलीं तो देखा
वह दर्द था …….!!!
इस दर्द को कैसे अलग करूँ….
नहीं ……
इस बार मैं अपने चेहरे का दर्द
नहीं पिरोऊंगी शब्दों में
मैं आईने के पास आ खड़ी होती हूँ
और फिर जोर से हंस पड़ती हूँ
तुझे तो लोगों से सिर्फ सहानुभूति चाहिए
चेहरा पूछता है …..
क्या यही सच्चाई है …?
तभी आईने में बचपन का एक
डरा , सहमा चेहरा उभर आता है
वह मासूम सी भयभीत खड़ी है
शायद तब वह बलात्कार जैसे शब्द से
परिचित नहीं थी …….
तभी वह शख्स पास आता है ….
देखो …. तुम किसी से कुछ नहीं कहोगी
नहीं कहोगी न….?
हाँ …!
मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी
मुझे किसी से सहानुभूति नहीं चाहिए
मष्तिष्क में घटनाएँ तेजी से बदलने लगतीं हैं ….
आतिशबाजी ,शोर,धुआं ,चीख जैसे
एक साथ हजारों मिसाइलें सी चलने लगीं हों ….
आँखें खौफ से फ़ैल जाती हैं
एक कंपकंपी पूरे वजूद में सरसरा जाती है
अन्दर का सच नंगा होकर बाहर आना चाहता है
पर यह सब तो संस्कारों के खिलाफ हो जायेगा
ओह …..! ये संस्कार …..! !
सुनो…..
कमजोर और ज़ज्बाती मत बनो
अपने हक के लिए लड़ना सीखो
पर वह खुद जुल्म सहते – सहते
मौत से न लड़ पाई….
वह ब्रेन कैंसर मर गई …
तभी वह जोर से चिल्लाई …..
हाँ …मैं डायन हूँ ….
मैं सब को मार डालूंगी ….
खून पी जाउंगी सब का…
लोग उसे डायन कह कर पीट रहे थे
पर वह डायन नहीं थी
वह सदमें से पागल हो गई थी
उसका पति …
रोज शराब पीकर उसी के सामने
एक नई औरत के साथ सोता था
विरोध किया तो डायन हो गई
मष्तिष्क में फिर अंधाधुंध
गोलियाँ सी चलने लगीं थीं
आँखों में दर्द नाच उठा
पुतलियाँ फ्रिज सी हो गयीं ….
धुआं-धुआं से दृश्य गुम होने लगे
सामने कुछ शब्द बिखरे पड़े थे
हजारों जालों में लिपटे
मैं साफ करने लगती हूँ ….
दीदी है ….
आग में जलती हुई ….
मैं चीखती हूँ, चिल्लाती हूँ , पूछती हूँ …
‘ दीदी ऐसा क्यों किया…? ‘
पर वह मौन है , कुछ नहीं कहती
बिलकुल मौन ,पथराई आँखों में
मेरे सारे सवालों के जवाब बंद हैं
” शब्दों का हूनर ” ,
” दर्द का ब्रांड “,” संस्कार “
मुझे वो सारी टिप्पणियाँ
स्मरण हो आती हैं ……
सोचती हूँ ….
इस दर्द को ख़ुद से कैसे अलग करूँ
कैसे अलग करूँ ….!!
वजूद तलाशती औरत …..
शीशे की दीवारों में कैद
इक मछली
धीरे-धीरे तलाशती है
अपना वजूद
उसके वजूद के बुलबुले
ऊपर उठते हैं
और ऊपर उठकर
दम तोड़ देते हैं
जानी -पहचानी
ये मछली मुझे
हर औरत के चेहरे में
नजर आती
रेगिस्तान में
मृग -मरीचिका सी
भागती-फिरती
नंगी- गीलीं
परछाइयों के बीच
अपने वजूद को तलाशती
सुनहरी,रुपहली
सुंदर मछली ….
एक्वेरियम में
बिछाई गई बजरी
समुंदरी पेड़ – पौधे
लाल,भूरे रंग के
छोटे-बड़े पत्थरों के बीच
गीले सवालों में खड़ी
अपने अस्तित्व को तलाशती
जूते की गिरफ्त में कराहती
किसी तड़पती कोख में
दम तोड़ती
हवा के बंद टुकड़े सी
कमरे में सिसकती
बाज़ारों में अपना
जिस्म नुचवाती
हँसी की कब्र में
उतर जाती है
किसी बिलबिलाते
चेहरे का
निवाला बनने …..
वह नहीं बन पाती
सीता-सावित्री
वह बनती है
खजुराहो की मैथुन मूर्ति
शीशे की दीवारों में कैद
वह आज भी
कटघरे में खड़ी है
न्याय के लिए …
आज के कवियों की
कविता की तरह
संभोग की पृष्ठभूमि पर टंगी
वह अपना वजूद तलाशती है
शिखर पर पहुँचने का वजूद
स्त्री होने का वजूद
जी भर …….
साँस ले पाने का वजूद…..
जब मैं पैदा हुई ….
धुंध के पल्ले में लिपटी
वो इक जालिम रात थी
जब मैं पैदा हुई
वो इक काली रात थी
चीखों से
तड़प उठी थी निर्जनता
हवा सनसनाती
अर्गला रही थी
अचानक मिट्टी की
कोख जली और
इक नार पैदा हुई ….
रंगों में
इक आग सी फ़ैल गई
बुलबुल कीरने[1] पाने लगी
कब्र में सोये कंकाल
फड़फड़ा उठे ….
और मेरी माँ की आंखों में
एक निराश सी मुस्कुराहट
कांप गई थी ……
जब मैंने आँखें खोलीं
सपनों की पिटारी
जंजीरों में सजी थी
सामने ज़िन्दगी
मुँह-फाड़े
अपाहिज सी
खड़ी थी ……
इक हौल
छाती में उठा
चाँद ने भी
हौका भरा
और मैं ….
मिट्टी सी
खामोश हो गई …
वो इक जालिम रात थी
जब मैं पैदा हुई
वो इक काली रात थी ….!!
वह लाल दुपट्टा…
(१)
बरसों पहले
जो तुम
इक धूप का टुकड़ा
मेरे आँगन में
रोप गए थे
अब उसमें
मुहब्बत के बीज
उगने लगे हैं
शायद अबके
नागफनी खिल उठे …….!!
(२)
आज
न जाने क्या बात हुई
छितरे बादल
आवारा टुकड़ियों में
चाँद से
अटखेलियाँ करते रहे
मैंने रोशनदान से झाँका
रात भी करवट बदल
सोने का बहाना
कर रही थी ……!!
(३)
आज ये
दोपहर की
लम्बी सांसें
न जाने क्यों
उम्मीद के धागे
बुनने लगीं है
रब्बा….!
वह लाल दुपट्टा आज भी कहीं
मेरे पास पड़ा है ….!!
कशमकश…..
इक अजीब सी
कश्मकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ
लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ….
तोड़ देती हूँ …
बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना….
चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात्
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ….
हथेली पे उगा सच…
फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है
मुट्ठी में पिघलता यथार्थ
घुसपैठी लहरों से
सीपियों सा
टूटने लगा है
फरेबी बादल
उड़ेल देता है
ढेर सारी स्याही
आकाश में ……
मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है
समय की खोह में
कहीं गुम हुआ मन
दरारों भरे आईने से
कई – कई सूरतों में
बंटकर
उड़ाता है हंसीं ……
किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़
गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ
बूढ़ा मल्लाह मुखातिब होता है
” कहाँ जाना है बीबी “
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाक़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं …..
तभी ……
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने …..
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ाता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ …….!!
रब्बा! यह कैसा सच है तेरा…..
रब्बा !
यह कैसा इंसाफ है तेरा
आज जब एक सतायी हुई औरत
मुर्दा आंखों में
अन्तिम सांसें ले रही थी
तब भी तुम वहीं
ख़ामोश खड़े थे
उसकी देह की निचुड़ी दीवारें
अपने अन्दर
दफ़्न कर ले गईं थीं
वे सारे सवालात
जो अब मेरे सीने में
धधक रहे हैं
जानती हूँ ;
धीरे-धीरे कैसे टूटी थी वो
कई बार जब हम मिलते
मैं पूछती : “…कैसी हो तुम ? “
वह हंस देती “….जैसी तुम हो ! “
हम दोनों मुस्कुरा जातीं
मुखालिफ़* स्थितियों से लड़ना
परिस्थितियों से समझौता करना
जिसमें न जाने कितनी बार
धराशायी होकर गिरी थी वह
क्रूर झोंका जब भ्रम तोड़ता
उसकी किरचें
संभाले नहीं संभलती
हर क्षण उसके अन्दर
जैसे कुछ दरक जाता
ज़िन्दगी के
कितने ही पैने रूप
देखे थे उसने
नित छलनी कर देने वाली
भाषा के सलीबों पे चढ़ती
बड़ी बड़ी इमारतों सी
ढह जाती
रात भर
करवटें बदलती
पीड़ा से कराहती
आंखों में उगी वितृष्णा
रिक्तता , अकेलापन
उसे भीतर तक
खोखला कर जाता
एक गहरी अकूबत
सीने में भरभरा उठती
और इक दिन
हथियार डाल दिए थे उसने
उसने नहीं देह ने
कभी ज्वर
कभी थकावट
कभी सर दर्द
कभी उल्टी
कभी…….!
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी
और फ़िर
एक दिन पता चला
उसे कैंसर है
ब्रेन कैंसर
वह भी अन्तिम स्टेज पर
वह खुश थी
बेहद खुश
उसकी उखड़ी सांसों में
इक सुकून सा घुल गया था
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुआं-धुआं सी
ज़बह होती रहेगीं ……!!
दर्द….
(१)
ढोलक की ताल पर
वह मटकी
पाँवों में घुंघरु
छ्नछ्नाये
उभार
थरथराये
ज़ुबां
होंठों पे फिराई
चुम्बन
उछले
दर्द हाट में
बिकने लगा …..!!
(२)
पूरी दुनियां में
जैसे उस वक्त रात थी
वह अपनी दोनों
खाली कलाइयों को
एकटक देखती है
और फ़िर सामने पड़ी
चूड़ियों को ….
तभी
वक्त आहिस्ता से
दरवाज़ा खोल बाहर आया
कहने लगा ….
नचनिया सिर्फ़ भरे हुए
बटुवे को देखतीं हैं
कलाइयों को नहीं…
दर्द ने करवट बदली
और आंखों के रस्ते
चुपचाप ….
बाहर चला गया ….!!
(३)
लालटेन की
धीमी रोशनी में
उसने वक्त से कहा –
मैं जीवन भर तेरी
सेवा करुँगी
मुझे यहाँ से ले चल
वक्त हंस पड़ा
कहने लगा –
मैं तो पहले से ही
लूला हूँ ….
आधा घर का
आधा हाट का ….!!
नज़्म, रात जुगनुओं ने इश्क का जाम भरा….
रात जुगनुओं ने इश्क़ का जाम भरा
तारे सेहरा बांधे दुल्हे से सजने लगे
सबा का इक झोंका उड़ा ले गया चुपके से
चाँदनी सपनों की पालकी में जा बैठी !
शब ने मदहोशी का आलम बुना
आसमां नीली चादर बिछाने लगा
मुहब्बत का मींह बरसाया बादलों ने
चाँद आशिकी का गीत गाने लगा !
हुश्न औ’ इश्क नशेमंद आँखों में
प्रीत की कब्रों में सजते रहे
कभी चिनवाये गए जिंदा दीवारों में
कभी चनाब के पानी में बहते रहे !
वक़्त की नफासत…..
बरसों पहले
जीवन मर्यादाएं
धूसर धुन्धल चित्र लिए
हस्तरेखाओं की तंग घाटियों में
हिचकोले खाती रहीं…..
ऊबड़-खाबड़
बीहड़ों में भटकती
गहरी निस्सारता लेकर
कैद में छटपटाती
आंखों में कातरता
भय और बेबसी की
अवांछित भीड़ लिए
इक तारीकी पूरे वजूद में
उतरती रही ……
वक्त नफ़ासत पूर्ण तरीके से
सीढ़ियों पर बैठा
तस्वीर बनाता रहा …
तारों को
छू पाने की कोशिश में
न जाने कितने लंबे समय
और संघर्षों से
गुजर जाना पड़ा …..
आज मैंने
अंधियारों को चीरकर
चाँद से बातें करना
सीख लिया है
रातों को आती है चाँदनी
दूर पुरनूर वादियों की
गहरी तलहटी से
दिखलाती है मुझे
शिलाओं का नृत्य करना
उच्छवासों से पर्वतों का थिरकना
समुंदरी लहरों के बीच
सीपी में बैठी एक बूंद का
मोती बन जाना
उड़ते हुए पन्ने में
किसी नज़्म का
चुपचाप आकर
मेरी गोद में
गिर जाना
आज जब
दूर दरख्तों से
छनकर आती धूप
थपथपाती है पीठ मेरी
धैर्य सहलाता है घाव
हवाएं शंखनाद करतीं हैं
तब मैं ….
वे तमाम तपते हर्फ़
तुम्हारी हथेली पे रख
पूछती हूँ
उन सारे सवालों के
जवाब ………..!!
वह तेरा ही नाम था जो गिर गया था हाथों से
आज फ़िर
रात के साये बहुत गहरे हैं
मन की तहों में छिपी
बेपनाह मोहब्बत ….
अपने आप को क़त्ल करती
खामोश हो गई है….
आँखें ….
एक गहरी साँस लेती हैं
इक खामोश आवाज़
कट कर गिरती है
पंखे से…..
रब्बा….!
मैं तुलसी के नीचे
जलते दीये सी पाक़
कितनी खोखली हो गई हूँ आज
कि अब ….
इन बनते- बिगड़ते लफ़्जों में
अपने ही जन्म का पल
बेमानी लगने लगा है …
आह….!
न जाने क्यों यह परिंदा
रोता है रातों में ….
कहीं यह भी किसी वहशतजदा
रूह का कज़्फ़1 तो नहीं ….?
सामने कागज़ पर
मेरा कटा बाजू पड़ा है
और वहशत है कि क़र्ज़ख्वाह2 सी
चिखती रही सीढियों से …….
आज फ़िर शब्दों ने
अपने आप को
क़त्ल किया है ….
कुछ सच्चाइयां नग्न खडी थीं
पर वहशत ने यूँ परदा डाला
के बदन ….
हैरत की गठरी बन गया …
ज़ज्बात …
भीगते रहे बूंदों में
वजूद मिट्टी के बर्तन सा
तिड़कता गया
बस …..
दर्द मुस्काता रहा आंखों में
तसल्ली देता रहा
देख कलाइयों को
जहाँ लहू का एक कतरा
अपना तवाजुन3
खो बैठा था ….
वह तुम्हीं तो थे
जो दर्द में भी
तहजीब सिखलाते रहे थे जीने की
पर खुदा से दुआ मांगते वक्त
वह तेरा नाम ही था
जो गिर गया था
हाथों से ….!!!
1 कज़्फ़ – दुराचार का आरोप लगाना
2 कर्जख्वाह -ऋण इच्छुक
3 तवाजुन -संतुलन
जन्मदिन मुबारक हो अमृता ….
रात ….
बहुत गहरी बीत चुकी है
मैं हाथों में कलम लिए
मग्मूम सी बैठी हूँ ….
जाने क्यूँ ….
हर साल …
यह तारीख़
यूँ ही …
सालती है मुझे…..
पर तू तो …
खुदा की इक इबारत थी
जिसे पढ़ना …
अपने आपको
एक सुकून देना है …
अँधेरे मन में …
बहुत कुछ तिड़कता है
मन की दीवारें
नाखून कुरेदती हैं तो…
बहुत सा गर्म लावा
रिसने लगता है …
सामने देखती हूँ
तेरे दर्द की …
बहुत सी कब्रें…
खुली पड़ी हैं…
मैं हाथ में शमा लिए
हर कब्र की …
परिक्रमा करने लगती हूँ ….
अचानक
सारा के खतों पर
निगाह पड़ती है….
वही सारा ….
जो कैद की कड़ियाँ खोलते-खोलते
कई बार मरी थी …..
जिसकी झाँझरें कई बार
तेरी गोद में टूटी थीं ……
और हर बार तू
उन्हें जोड़ने की…
नाकाम कोशिश करती…..
पर एक दिन
टूट कर…
बिखर गयी वो ….
मैं एक ख़त उठा लेती हूँ
और पढने लगती हूँ …….
“मेरे बदन पे कभी परिंदे नहीं चहचहाये
मेरी सांसों का सूरज डूब रहा है
मैं आँखों में चिन दी गई हूँ ….”
आह…..!!
कैसे जंजीरों ने चिरागों तले
मुजरा किया होगा भला ….??
एक ठहरी हुई
गर्द आलूदा साँस से तो
अच्छा था …..
वो टूट गयी …….
पर उसके टूटने से
किस्से यहीं
खत्म नहीं हो जाते अमृता …
जाने और कितनी सारायें हैं
जिनके खिलौने टूट कर
उनके ही पैरों में चुभते रहे हैं …
मन भारी सा हो गया है
मैं उठ कर खिड़की पर जा खड़ी हुई हूँ
कुछ फांसले पर कोई खड़ा है ….
शायद साहिर है .. …..
नहीं … नहीं …… .
यह तो इमरोज़ है …..
हाँ इमरोज़ ही तो है …..
कितने रंग लिए बैठा है . …
स्याह रात को …
मोहब्बत के रंग में रंगता
आज तेरे जन्मदिन पर
एक कतरन सुख की
तेरी झोली डाल रहा है …..
कुछ कतरने और भी हैं
जिन्हें सी कर तू
अपनी नज्मों में पिरो लेती है
अपने तमाम दर्द …. …
जब मरघट की राख़
प्रेम की गवाही मांगती है
तो तू…
रख देती है
अपने तमाम दर्द
उसके कंधे पर …
हमेशा-हमेशा के लिए ….
कई जन्मों के लिए …..
तभी तो इमरोज़ कहते हैं ….
तू मरी ही कहाँ है ….
तू तो जिंदा है …..
उसके सीने में….
उसकी यादों में …..
उसकी साँसों में …..
और अब तो ….
उसकी नज्मों में भी…
तू आने लगी है ….
उसने कहा है ….
अगले जन्म में
तू फ़िर आएगी ….
मोहब्बत का फूल लिए ….
जरुर आना अमृता
इमरोज़ जैसा दीवाना
कोई हुआ है भला ……!!
“जन्मदिन मुबारक हो अमृता”
आज दिल फिर शाद के फूलों से नहाया है
आज दिल फिर शाद के फूलों से नहाया है
ख़ुशबू का इक मंज़र तेरी याद बन आया है
मैंने भेजे थे कुछ पैगाम पीपल के पत्तों पर
बादल भीगी पलकों से उनके जवाब लाया है
मुआहिदा[1] किया जब-जब तेरा हवाओं से
दुपट्टा हया का आँखों तक सरक आया है
महजूज़[2] है, ममनून[3] है दिल का परिंदा
नगमा मोहब्बत का लबों पे उतर आया है
अय खुश्क लम्हों चलना जरा किनारे से
हीर की मजार पे सुर्ख़ फूल खिल आया है
सूखे पत्ते तनफ्फुर और स्याह रात
सूखे पत्ते सी ज़िन्द
टूट के गिरी यूँ….
के इक कोरी सी नज़्म
ज़िस्म में उतर गई है….
काँपा है फिर वजूद
लफ़्ज़ों की अदालत में
रात तनफ्फुर[1] के फूल
उगाये बैठी है…
इक हँसी सी उठी
दर्द की गली में…
ख़ामोशी लबों से
जिरह किये बैठी हैं….
छीना है ये किसने
पत्तों से बूंदों का लम्स[2]
वक़्त की मुट्ठी में उम्रें
गाफ़िल[3] हुई बैठी हैं…
लाँघ गया इक ख़्याल
फिर तेरी दहलीज़ आज
बोसीदा[4] सी लाशें
ज़मीं खोदती हैं….
ये कौन छोड़ गया
उँगलियों के निशाँ आज
के मुहब्बत दिल की सीढियाँ
उतरने लगी है….
अय धूप
संभल कर चलाकर
इन रास्तों पे जरा
यहाँ स्याह रात
हुस्न लिए बैठी है….!!
रफ़ाकत के रंग
मैंने घोले हैं
कई रफ़ाकत[1] के रंग
पानी में
आओ धो लें …
अपनी-अपनी अदावतें[2] इसमें
शायद
अबके खिल आए
शोख रंग गालों पे…
मुहब्बत के फूल
मैंने बीजे हैं
अबके होली में
कुछ फूल
मुहब्बत के….
इन्हें सींचना तुम
वो सुर्ख रंग
जो तलाशते थे तुम
इन्हीं में है….
कुछ तल्ख़ हवाओं से गुजारिश
जब भी
छूती हूँ
रौशनी के रंग
कुछ खंडहर हुए
उदासी के रंग
साथ हो लेते हैं….
अय तल्ख़ हवाओ!
अबके….
गुज़र जाना जरा
किनारे से….
आँखों में दफ़्न हैं
इन आँखों में
दफ़्न हैं….
हजारों रंग मुहब्बत के
कभी फ़ुर्सत मिले
तो पढना इन्हें
फ़ासले कम हो जाएंगे….
अदब की चुनरी
मैंने
रंग ली है चुनरी
अदब के रंगों से….
जब ओढती हूँ इसे
दर्द का रंग
उतर जाता है….