दुश्मन को ज़द पर आ जाने दो दुश्ना मिल जाएगा
दुश्मन को ज़द पर आ जाने दो दुश्ना मिल जाएगा
ज़िंदानों को तोड़ निकलने का रस्ता मिल जाएगा
शाह-सवार के कट जाने का दुख तो हमें भी है लेकिन
तुम परचम थामे रखना सालार-सिप्पा मिल जाएगा
हमें ख़बर थी शहर-ए-पनाह पर खड़ी सिपाह मुनाफ़िक़ है
हमें यक़ीं था नक़ब-ज़नों से ये दस्ता मिल जाएगा
सोच-कमान सलामत रखनी होगी तीर-अंदाज़ बहुत
कौन हदफ़ है और कहाँ है उस का पता मिल जाएगा
बस तुम जब्र की चोटी सर करने का अहद-ए-जवाँ रखना
उस तक जाने वाले रस्तों का नक़्शा मिल जाएगा
हसन ‘रज़ा’ और क़दम आवाज़-ए-जरस पर रख वरना
शाह का सर लाने तुझ का कोई दिवाना मिल जाएगा
हम परियों के चाहने वाले ख़्वाब में देखें परियाँ
हम परियों के चाहने वाले ख़्वाब में देखें परियाँ
दूर से स्प का सदक़ा बाँटें हाथ न आएँ परियाँ
राह में हाएल क़ाफ़-पहाड़ और हाथ चराग़ से ख़ाली
क्यूँकर जुनूँ-चंगुल से हम छुड़वाएँ परियाँ
आशाओं की सोहनी सहरी सच सजाए रक्खूँ
जाने कौन घड़ी मेरे घर में आने बराजें परियाँ
सारे शहर को चाँदनी की ख़ैरात उस रोज़ में बाँटूँ
जिस दिन ख़्वाहिश के आँगन में छम से उतरें परियाँ
कच्चे घरों से आस-हवेली जाने की ख़्वाहिश में
पहरों आईने के सामने बेठ के सँवरें परियाँ
परियों की तौसीफ़ में ऐसे शेर ‘रज़ा’ मैं लिक्खूँ
जिन को सुन कर उड़ती आएँ झूमें नाचें परियाँ
हर एक चेहरे पे कुंदा हकायतें देखो
हर एक चेहरे पे कुंदा हकायतें देखो
ख़ुलूस देख चुके हो तो नफ़रतें देखो
जो अहल-ए-दिल हो तो एहसास-ए-आगही के लिए
बुझ निगाहों में तहरीर आयतें देखो
रगों में खौलते ख़ून की क़सम न खाओ कभी
गुदाज़-जिस्मों में पिन्हाँ सलाहियतें देखो
जो हो सके तो कभी तपती शाह-राहों पर
टपकते ख़ून से लिखी इबारतें देखो
नफ़स नफ़स में है एहसास-ए-यूरिश-ए-हस्ती
ख़ुद अपनी ज़ात से अपनी बगावतें देखो
लबों पे मोहर-ऐ-ख़ामोशी के बा-वजूद राजा’
गुज़र रही हैं जो अंदर क़यामतें देखो
शब की शब-ए-महफ़िल में कोई ख़ुश-कलाम आया तो क्या
शब की शब-ए-महफ़िल में कोई ख़ुश-कलाम आया तो क्या
त्याग दी जो बज़्म में मेरा नाम आया तो क्या
ज़ीनत-ए-क़िर्तास जितने हर्फ़ थे दुश्मन हुए
एक तेरा इस्म ज़ेर-ए-इंसिराम आया तो क्या
नर्ग़ा-ए-आदा में घिरते ही बदन ग़िरबान था
सब सफ़-ए-याराँ से कोई बे-नियाम आया तो क्या
कुश्तागान-ए-शब को पुर्सा देने वाले ये भी सुन
अब तेरे लहजे में रंग-ए-एहतिराम आया तो क्या
मुंतजिर आँखें फ़िराक़-ए-यार में पत्थरा गईं
सुब्ह का भूला पलट कर घर जो शाम आया तो क्या
दश्त-ए-ख़्वाहिश में बकार सैद जब मुद्दत के बाद
इक ग़ज़ाल-ए-पा बुरीदा ज़ेर-ए-दाम आया तो क्या
विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
ये कैसी रूत है ये किन अज़ाबों के सिलसिले हैं
मेरे ख़ुदा इज़्न हो की मोहर-ए-सुकूत तोड़ें
मेरे ख़ुदा अब तेरे तमाशाई थक चुके हैं
न जाने कितनी गुलाब-सुब्हें ख़िराज दे कर
रसन रसन घोर अमावसों में घिरे हुए हैं
सदाएँ देने लगी थीं हिजरत की अप्सराएँ
मगर मेरे पाँव धरती माँ ने पकड़ लिए हैं
यक़ीं कर लो की अब न पीछे क़दम हटेगा
ये आख़िरी हद थी और हम उस तक आ गए हैं