शिक्षा का परचम
तू पढ़ महाभारत
न बन कुन्ती, न द्रोपदी।
पढ़ रामायण
न बन सीता, न कैकेयी।
पढ़ मनुस्मृति
उलट महाभारत, पलट रामायण।
पढ़ कानून
मिटा तिमिर, लगा हलकार।
पढ़ समाजशास्त्र, बन जावित्री
फहरा शिक्षा का परचम।
जीवन बदलेगा अवश्य
दूसरे की रात
अपने जीवन का
सपना न बनाओ,
उन्हें न सजाओ
अपनी आँखों में।
वीरानी रात,
कभी सुख न देगी
अपना जीवन अपना
गाओ, नाचो, ख़ुशी मनाओ
जीवन को आज़ाद होने दो
सूरज निकलेगा अवश्य
जीवन बदलेगा अवश्य।
प्यार
सोचा था
प्यार की दुनिया
बड़ी हसीन होगी
’उसके’ साथ ज़िन्दगी
रंगीन होगी
पाया एक अनुभव
प्यार एक पदार्थ
थकावट भरी नींद
विवाह की कल्पना थी
मृदुल शान्त
प्यार की छत
अहसासों की दीवारें
परन्तु वह निकली
एक रसोई और बिस्तर
और आकाओं का हुक़्म
औरत
औरत
एक जिस्म होती है
रात की नीरवता
बन्द ख़ामोश कमरे में
उपभोग की वस्तु होती है।
खुले नीले आकाश तले
हर सुबह
वो रुह समेत दीखती है।
पर डोर होती है
किसी आका के हाथों।
जिस्म वो ख़ुद ढोए फिरती है।
साँकल
चारदीवारी की घुटन
घूँघट की ओट
सहना ही नारीत्व तो
बदलनी चाहिए परिभाषा।
परम्पराओं का पर्याय
बन चौखट की साँकल
है जीवन-सार
तो बदलना होगा जीवन-सार।
तुम्हारे चीख़ने से
तुम्हारे चीख़ने-चिल्लाने से
मेरा मॉरल थोड़ा डाउन ज़रूर हुआ था
मैं बिख़रने लगी
मेरी आँखें नहीं दिल रोया था
मैंने थोड़ा सोचा फिर
मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया
छोटी समझकर
तुम्हारी नज़रों में नाराज़गी नहीं,
बेअदबी देखी
तुम्हारे अन्दर घुटन नहीं,
बिलबिलाती महत्वाकाँक्षा देखी
अपने प्रति प्यार नहीं, ईर्ष्या देखी
रिश्ते में लगी दीमक देखी
लो अब गुज़रो जिस भी डगर से
मैंने वापसी ले ली
करो प्रतिस्पर्धा मुझसे, ईर्ष्या नहीं
तुम्हारे लिए राह छोड़ दी
करना है कुछ जीवन में
पहले अपना उत्सर्ग करना पड़ता है।
किसी पर आरोप लगाने से पहले
अपना अक्स भी झाँककर देख लो
पाने के लिए दुनिया है
अपना भी कुछ लुटाना पड़ता है
तुम्हारे रूठने झगड़े से
मुझे आपत्ति नहीं थी
तुम्हारे तेवर से मुझे आपत्ति है
टूटकर बिखर गए रिश्ते
अपने अहम देखो
अपनी शौहरत के लिए
मुझे दागदार बनाया
तुम्हें आगे बढ़ना है
शान से आगे बढ़ो
तुम मुक्त हो आजाद हो
दुनिया तुम्हारी है
अपनी आँचल का छोर तो बढ़ाओ ।
मीठी अनुभूतियों को
हमने मधुर स्मृतियों
और मीठी अनुभूतियों को
इन कठोर हाथों से, तुम्हारे लिए
हृदय से खींच बिखेरा है
हमारे लहू के एक-एक क़तरे ने
तुम्हारे खेत की बंजर भूमि को सींचा है
हमारे पसीने की एक-एक बून्द
तुम्हारी खानों की गहराई में टपकी है
हमने तुम्हारे खेत उपजाए
तुमने हमारे पेट पुलों से ढाँप दिए
हमने तुम्हारे बाग लहराए
तुमने काँटों से मार्ग भर दिया
हमने तुम्हारी अट्टालिकाएँ चिनीं
तुमने सूरज भी उनमें क़ैद किया
हमने अपने खुरदुरे हाथों से
पीट-पीट लोहा, कुदाल गढ़ा
तुमने हमारी कला को
हमारे हृदयों में झोंक दिया ।
1984 की लपटें.
सिक्ख समाज के साथ
जो हुआ
वह देखकर मन तड़प उठा
आँखों में अभी तक अजीब बेचैनी है
रुक-रुक मुट्ठी भिंचती है
वे नृशंस दृश्य सताते हैं
हर क्षण आँखों में उभरते हैं !
उस दिन
क्या गुज़री दिल्ली में,
कैसे सुनाऊँ ?
रात अभी कुछ शुरू होने को थी
’आई’ की लाश अभी ताज़ा थी
दीये भी जलने को आतुर थे
अँगीठी-चूल्हे गर्माने को थे ।
एक बवण्डर आया ज़ोरों से
यह कोई प्राकृतिक आँधी-तूफ़ान न था
बल्कि झुण्ड के झुण्ड दरिया से उमड़ते
कहते हैं लोग जिन्हें इनसान थे ।
कब लाठी चली, कब तीली घिसी
क्षण भर में
दिखीं सिर्फ़ होलिका-सी लपटें
और धू-धू करता धुआँ उठा !
लपटों और धुएँ में
करुण दारुण चीत्कारें उठीं
बिलखते बच्चे, जीवनदान माँगती औरतें
फूट-फूटकर रोते सिक्ख भाई !
यह कैसी थी आई आँधी
जिसने उखाड़ दिया मन-मानस को !
पीर वह कैसे हुई बेगानी ?
देश, संस्कृति, राष्ट्रीय एकता का नारा
अपने ही घर में हम हुए बेगाने
गुण्डों के सामने बेबस ।