‘अतहर’ तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
‘अतहर’ तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
कोई नया एहसास मिला या सब जैसा अहवाल हुआ
एक सफ़र है वादी-ए-जाँ में तेरे दर्द-ए-हिज्र के साथ
तेरा दर्द-ए-हिज्र जो बढ़ कर लज्ज़त-ए-कैफ-ए-विसाल हुआ
राह-ए-वफ़ा में जाँ देना ही पेश-रवों का शेवा था
हम ने जब से जीना सीखा कार-ए-मिसाल हुआ
इश्क़ फ़साना था जब तक अपने भी बहुत अफ़्सानों थे
इश्क़ सदाक़त होते होते कितना कम अहवाल हुआ
राह-ए-वफ़ा दुश्वार बहुत थी तुम क्यूँ मेरे साथ आए
फूल सा चेहरा कुम्हलाया रंग-ए-हिना पामाल
दिल की मसर्रतें नई जाँ का मलाल है नया
दिल की मसर्रतें नई जाँ का मलाल है नया
मेरी ग़ज़ल में आज फिर एक सवाल है नया
अब जो खिले हैं दिल में फूल उन की बहार है नई
अब जो लगी है दिल में आग उस का जलाल है नया
उस के लिए भी ग़म-ज़ा-ए-नाज़-ओ-अदा का वक़्त है
अपने लिए भी मौसम-ए-हिज्र-ओ-विसाल है नया
उस में भी ख़ुद-नुमाई के रंग बहुत हैं इन दिनों
अपने लिए भी अर्सा-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल है नया
जाग उठा है इक चमन मेरी हुदूद-ए-ज़ात में
उस के करीब ही कहीं दश्त-ए-मलाल है नया
रूह में जल उठे हैं आज लज़्ज़त-ए-कुर्ब के चराग़
सोज़-ओ-गुदाज़-ए-हिज्र भी शामिल-ए-हाल है नया
झूम उठे हैं बर्ग-ओ-बार फूल खिले हैं बे-शुमार
ऐ मेरी रूह-ए-बे-क़रार तेरा तो हाल है नया
उस ने मेरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
फिर भी मेरी निगाह में एक सवाल है नया
इतने दिन के बाद तू आया है आज
इतने दिन के बाद तू आया है आज
सोचता हूँ किस तरह तुझे से मिलूँ
मेरे अंदर जाग उठी इक चाँदनी
मैं ज़मीं से आसमाँ तक अंग हूँ
और उजला हो गया क़ुर्बत का चाँद
और गहरा हो गया तेरा फ़ुसूँ
ऐ सरापा रंग-निकहत तू बता
किस धनक से तेरा पैराहन बनूँ
सारे गुल-बूटे तर-ओ-ताज़ा हुए
दूर तक पहुँची है मेरी मौज-ए-ख़ूँ
कर रहे हैं लम्हे लम्हे का हिसाब
मिल के फिर बैठै हैं यारान-ए-जुनूँ
दश्त-ए-ग़म की धूप में मुझ पर खुला
मैं ख़ुद अपना साया-ए-दीवार हूँ
नाज़ कर ख़ुद पर कि तू है बे-शुमार
क़द्र कर मेरी कि मैं बस एक हूँ
कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
होता रहता है यूँ की क़र्ज़ बराबर मेरा
टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में
डूब जाता है कभी मुझ में समुंदर मेरा
किसी सहरा में बिछड़ जाएँगे सब यार मेरे
किसी जंगल में भटक जाएगा लश्कर मेरा
बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा
कितने हँसते हुए मौसम अभी आते लेकिन
एक ही धूप ने कुम्हला दिया मंज़र मेरा
आख़िरी ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़ हो शायद बाक़ी
अब जो छलका तो छलक जाए गा साग़र मेरा
न शाम है न सवेरा अजब दयार में हूँ
न शाम है न सवेरा अजब दयार में हूँ
मैं एक अरसा-ए-बे-रंग के हिसार में हूँ
सिपाह-ए-ग़ैर ने कब मुझ को ज़ख़्म ज़ख़्म किया
मैं आप अपनी ही साँसों के कार-ज़ार में हूँ
कशाँ-कशाँ जिसे ले जाएँगे सर-ए-मक़्तल
मुझे ख़बर है कि मैं भी उसी क़तार में हूँ
शरफ़ मिला है कहाँ मेरी हम-रही का मुझे
तू शहसवार है और मैं तेरे ग़ुबार में हूँ
अता-पता किसी ख़ुशबू से पूछ लो मेरा
यहीं कहीं किसी मंज़र किसी बहार में हूँ
मैं ख़ुश्क पेड़ नहीं हूँ कि टूट कर गिर जाऊँ
नुमू-पज़ीर हूँ और सर्व-ए-शाख़-सार में हूँ
न जाने कौन से मौसम में फूल महकेंगे
न जाने कब से तिरी चश्म-ए-इन्तिज़ार में हूँ
हुआ हूँ क़र्या-ए-जाँ मैं कुछ इस तरह पामाल
कि सर-बुलंद तिरे शहर-ए-ज़र-निगार में हूँ
रौनक़-ए-बेश-ओ-कम किस के होने से है
रौनक़-ए-बेश-ओ-कम किस के होने से है
मौसम-ए-खुश्क-ओ-नम किस के होने से है
किस का चेहरा बनाती हैं ये साअतें
वक़्त का ज़ेर-ओ-बम किस के होने से है
कौन गुज़रा कि बनते गए रास्ते
राह का पेच-ओ-ख़म किस के होने से है
किस की ख़ातिर दरीचों से आई हवा
ये फ़ज़ा यूँ बहम किस के होने से है
किसी की ख़ातिर दरीचों से आई हवा
ये फ़ज़ा यूँ बहम किस के होने से है
शाख़-दर-शाख़ पत्तों की ये ज़िंदगी
आज भी मुश्तरम किस के होने से है
मौत बर-हक़ है किस के न होने से आज
ज़िंदगी दम-ब-दम किस के होने से है
किस की ज़ुल्फ़ों का एजाज़ है बू-ए-गुल
ये हवाओं में नम किस के होने से है
सुब्ह-ए-शादाबी-ए-जाँ का क्यूँ है मलाल
इशरत-ए-शाम-ए-ग़म किस के होने से है
वहशत-ए-दिल को किस ने सँभाला दिया
ये जुनूँ कम से कम किस के होने से है
किस से मंसूब है हर जफ़ा हर वफ़ा
ये सितम ये करम किस के होने से है
सौ रंग है किस रंग से तस्वीर बनाऊँ
सौ रंग है किस रंग से तस्वीर बनाऊँ
मेरे तो कई रूप हैं किस रूप में आऊँ
क्यूँ आ के हर इक शख़्स मेरे ज़ख़्म कुरेदे
क्यूँ मैं भी हर इक शख़्स को हाल अपना सुनाऊँ
क्यूँ लोग मुसिर हैं कि सुनें मेरी कहानी
ये हक़ मुझे हासिल है सुनाऊँ कि छुपाऊँ
इस बज़्म में अपना तो शनासा नहीं कोई
क्या कर्ब है तन्हाई का मैं किस को बताऊँ
कुछ और तो हासिल न हुआ ख़्वाबों से मुझ को
बस ये है कि यादों के दर-ओ-बाम सजाऊँ
बे-क़ीमत व बे-माया इसी ख़ाक में यारों
वो ख़ाक भी होगी जिसे आँखों से लगाऊँ
किरनों की रिफ़ाक़त कभी आए जो मयस्सर
हम-राह मैं उन के तेरी दहलीज़ पे आऊँ
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
और मैं उसी चेहरे से नए ख़्वाब सजाऊँ
रह जाएँ किसी तौर मेरे ख़्वाब सलामत
उस एक दुआ के लिए अब हाथ उठाऊँ
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
वही कानों में अब तक गूँजता है
ग़नीमत है कि अपने ग़म-ज़दों को
वो हुस्न-ए-ख़ुद नगर पहचानता है
जिसे खो कर बहुत मग़्मूम हूँ मैं
सुना है उस का ग़म मुझ से सिवा है
कुछ ऐसे ग़म भी हैं जिन से अभी तक
दिल-ए-ग़म-आशना ना-आश्ना है
बहुत छोटे हैं मुझ से मेरे दुश्मन
जो मेरा दोस्त है मुझ से बड़ा है
मुझे हर आन कुछ बनना पड़ेगा
मिरी हर साँस मेरी इब्तिदा है
वो दौर क़रीब आ रहा है
वो दौर क़रीब आ रहा है
जब दाद-ए-हुनर न मिल सकेगी
उस शब का नुज़ूल हो रहा है
जिस शब की सहर न मिल सकेगी
पूछोगे हर इक से हम कहाँ हैं
और अपनी ख़बर न मिल सकेगी
आसाँ भी न होगा घर में रहना
तौफ़िक़-ए-सफ़र न मिल सकेगी
ख़ंजर सी ज़ुबाँ का ज़ख़्म खा के
मरहम सी नज़र न मिल सकेगी
इस राह-ए-सफ़र मे साया-ए-अफ़्गन
इक शाख़-ए-शजर न मिल सकेगी
जाओगे किसी की अंजुमन में
पर उस से नज़र न मिल सकेगी
इक जिंस-ए-वफ़ा है जिस को हर-सू
ढूँढोगे मगर न मिल सकेगी
सैलाब-ए-हवस उमड़ रहा है
इक तिश्ना-नज़र न मिल सकेगी