उम्र भर जुल्फ-ए-मसाऐल यूँ ही सुलझाते रहे
उम्र भर जुल्फ-ए-मसाऐल यूँ ही सुलझाते रहे
दुसरों के वास्ते हम खुद को उलझाते रहे
हादसे उनके करीब आकर पलट जाते रहे
अपनी चादर देखकर जो पाँव फैलाते रहे
जब सबक़ सीखा तो सीखा दुश्मनों की बज़्म से
दोस्तों में रहके अपने दिल को बहलाते रहे
मुस्तक़िल चलते रहे जो मंज़िलों से जा मिले
हम नजूमी ही को अपना हाथ दिखलाते रहे
बा अमल लोगों ने मुस्तक़बिल को रौशन कर लिया
और हम माज़ी के क़िस्से रोज़ दोहराते रहे
जब भी तनहाई मिली हम अपने ग़म पे रो लिये
महफिलों में तो सदा हंसते रहे गाते रहे
जंज़ीर-व-तौक या रसन-व-दार कुछ तो हो
जंज़ीर-व-तौक या रसन-व-दार कुछ तो हो
इस ज़िन्दगी की क़ैद का मेयार कुछ तो हो
यह क्या कि जंग भी न हुई सर झुका लिया
मैदान –ए-करज़ार में तक़रार कुछ तो हो
मैं सहल रास्तों का मुसाफ़िर न बन सका
मेरा सफ़र वही है जो दुशवार कुछ तो हो
ऐसा भी क्या कि कोई फरिश्तों से जा मिले
इन्सान है वही जो गुनहगार कुछ तो हो
मक़तल सजे कि बज़्म सजे या सतून-ए-दार
इस शहर जाँ में गर्मी-बाज़ार कुछ तो हो
क्या बतलाऊँ कितनी ज़ालिम होती है जज़्बात की आँच
क्या बतलाऊँ कितनी ज़ालिम होती है जज़्बात की आँच
होश भी ठन्डे कर देती है अक्सर एहसासात की आँच
कितनी अच्छी सूरत वाले अपने चेहरे भूल गये
खाते खाते खाते खाते बरसों तक सदमात की आँच
सोये तो सब चैन था लेकिन जागे तो बेचैनी थी
फर्क़ फ़क़त इतना ही पड़ा था तेज़ थी कुछ हालात की आँच
हम से पूछो हम झुल्से हैं सावन की घनघोर घटा में
तुम क्या जानों किस शिद्दत की होती है बरसात की आँच
दिन में पेड़ों के साए में ठंडक मिल जाती है
दिल वालों की रूह को अक्सर झुलसाती है रात की आँच
प्यार को सदियों के एक लम्हे की नफरत खा गई
प्यार को सदियों के एक लम्हे कि नफरत खा गई
एक इबादतगाह ये गन्दी सियासत खा गई
बुत कदों की भीड़ में तनहा जो था मीनार-ए-हक़
वह निशानी भी तअस्सुब की शरारत खा गई
मुस्तक़िल फ़ाक़ो ने चेहरों की बशाशत छीन ली
फूल से मासूम बच्चों को भी गुर्बत खा गई
ऐश कोशी बन गई वजहे ज़वाले सल्तनत
बेहिसी कितने शहन्शाहों की अज़मत खा गई
आज मैंने अपने ग़म का उससे शिकवा कर दिया
एक लग़ज़िश ज़िन्दगी भर की इबादत खा गई
झुक के वह ग़ैरों के आगे खुश तो लगता था मगर
उसकी खुद्दारी को खुद उसकी निदामत खा गई
दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा
दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा
साफ़ और शफ्फ़ाफ़ आईने में बाल आ जायेगा
भूल जायेंगी ये सारी क़हक़हों की आदतैं
तेरी खुशहाली के सर पर जब ज़वाल आ जायेगा
मुसतक़िल सुनते रहे गर दास्ताने कोह कन
बे हुनर हाथों में भी एक दिन कमाल आ जायेगा
ठोकरों पर ठोकरे बन जायेंगी दरसे हयात
एक दिन दीवाने में भी ऐतेदाल आ जायेगा
बहरे हाजत जो बढ़े हैं वो सिमट जायेंगे ख़ुद
जब भी उन हाथों से देने का सवाल आ जायेगा
गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था
गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था
फ़क़ीर ही था मगर शानदार मैं भी था
मैं दिल की बात कभी मानता नहीं फिर भी
इसी के तीर का बरसों शिकार मैं भी था
मैं सख़्त जान भी हूँ बे नेयाज़ भी लेकिन
बिछ्ड़ के उससे बहुत बेक़रार मैं भी था
तू मेरे हाल पर क्यों आज तन्ज़ करता है
इसे भी सोच कभी तेरा यार मैं भी था
ख़फ़ा तो दोनों ही एक दूसरे से थे लेकिन
निदामत उसको भी थी शर्मसार मैं भी था
पराया कौन है और कौन अपना सब भुला देंगे
पराया कौन है और कौन अपना सब भुला देंगे
मताए ज़िन्दगानी एक दिन हम भी लुटा देंगे
तुम अपने सामने की भीड़ से होकर गुज़र जाओ
कि आगे वाले तो हर गिज़ न तुम को रास्ता देंगे
जलाये हैं दिये तो फिर हवाओ पर नज़र रखो
ये झोकें एक पल में सब चिराग़ो को बुझा देंगे
कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िन्दगी क्या है
ज़मीं से एक मुठ्ठी ख़ाक लेकर हम उड़ा देंगे
गिला,शिकवा,हसद,कीना,के तोहफे मेरी किस्मत है
मेरे अहबाब अब इससे ज़ियादा और क्या देंगे
मुसलसल धूप में चलना चिराग़ो की तरह जलना
ये हंगामे तो मुझको वक़्त से पहले थका देंगे
अगर तुम आसमां पर जा रहे हो, शौक़ से जाओ
मेरे नक्शे क़दम आगे की मंज़िल का पता देंगे
चाँदनी में रात भर सारा जहाँ अच्छा लगा
चाँदनी में रात भर सारा जहाँ अच्छा लगा
धूप जब फैली तो अपना ही मकाँ अच्छा लगा
अब तो ये एहसास भी बाक़ी नहीं है दोस्तों
किस जगह हम मुज़महिल थे और कहाँ अच्छा लगा
आके अब ठहरे हुये पानी से दिलचस्पी हुई
एक मुद्दत तक हमें आबे रवाँ अच्छा लगा
लुट गये जब रास्ते में जाके तब आँखे खुली
पहले तो एख़लाक़-ए-मीर कारवाँ अच्छा लगा
जब हक़ीक़त सामने आई तो हैरत में पड़े
मुद्दतों हम को भी हुस्ने दास्ताँ अच्छा लगा
वह जिन लोगों का माज़ी से कोई रिश्ता नहीं होता
वह जिन लोगों का माज़ी से कोई रिश्ता नहीं होता
उन्हीं को अपने मुस्तक़बिल का अन्दाज़ा नहीं होता
नशीली गोलियों ने लाज रखली नौजवानों की
कि मैख़ाने जाकर अब कोई रुसवा नहीं होता
ग़लत कामों का अब माहौल आदी हो गया शायद
किसी भी वाक़ये पर कोई हंगामा नहीं होता
मेरी क़ीमत समझनी हो तो मेरे साथ साथ आओ
कि चौराहे पे ऐसे तो कोई सौदा नहीं होता
इलेक्शन दूर है उर्दू से हमदर्दी भी कुछ कम है
कि बाज़ारों में अब कहीं कोई जलसा नहीं होता
उससे बिछड़ के दिल का अजब माजरा रहा
उससे बिछड़ के दिल का अजब माजरा रहा
हर वक्त उसकी याद रही तज़किरा रहा
चाहत पे उसकी ग़ैर तो ख़ामोश थे मगर
यारों के दर्म्यान बड़ा फ़ासला रहा
मौसम के साअथ सारे मनाज़िर बदल गये
लेकिन ये दिल का ज़ख़्म हरा था हरा रहा
लड़कों ने होस्टल में फ़क़त नाविलें पढ़ीं
दीवान-ए-मीर ताक़ के ऊपर धरा रहा
वो भी तो आज मेरे हरीफ़ों से जा मिले
जिसकी तरफ़ से मुझको बड़ा आसरा रहा
सड़कों पे आके वो भी मक़ासिद में बँट गए
कमरों में जिनके बीच बड़ा मशविरा रहा
सोच रहा हूँ घर आँगन में एक लगाऊँ आम का पेड़
सोच रहा हूँ घर आँगन में एक लगाऊँ आम का पेड़
खट्टा खट्टा, मीठा मीठा यानी तेरे नाम का पेड़
एक जोगी ने बचपन और बुढ़ापे को ऐसे समझाया
वो था मेरे आग़ाज़ का पौदा ये है मेरे अंजाम का पेड़
सारे जीवन की अब इससे बेहतर होगी क्या तस्वीर
भोर की कोंपल, सुबह के मेवे, धूप की शाख़ें, शाम का पेड़
कल तक जिसकी डाल डाल पर फूल मसर्रत के खिलते थे
आज उसी को सब कहते हैं रंज-ओ-ग़म-ओ-आलाम का पेड़
इक आँधी ने सब बच्चों से उनका साया छीन लिया
छाँव में जिनकी चैन बहुत था जो था जो था बड़े आराम का पेड़
नीम हमारे घर की शोभा जामुन से बचपन का रिश्ता
हम क्या जाने किस रंगत का होता है बादाम का पेड़
मेरी बस्ती के लोगो! अब न रोको रास्ता मेरा
मेरी बस्ती के लोगो! अब न रोको रास्ता मेरा
मैं सब कुछ छोड़कर जाता हूँ देखो हौसला मेरा
मैं ख़ुदग़र्ज़ों की ऐसी भीड़ में अब जी नहीं सकता
मेरे जाने के फ़ौरन बाद पढ़ना फ़ातेहा मेरा
मैं अपने वक़्त का कोई पयम्बर तो नहीं लेकिन
मैं जैसे जी रहा हूँ इसको समझो मोजिज़ा मेरा
वो इक फल था जो अपने तोड़ने वाले से बोल उठा
अब आये हो! कहाँ थे ख़त्म है अब ज़ायक़ा मेरा
अदालत तो नहीं हाँ वक़्त देता है सज़ा सबको
यही है आज तक इस ज़िन्दगी मे तजुरबा मेरा
मैं दुनिया को समझने के लिये क्या कुछ नहीं करता
बुरे लोगों से भी रहता है अक्सर राब्ता मेरा
मैं जा रहा हूँ मेरा इन्तेज़ार मत करना
मैं जा रहा हूँ मेरा इन्तेज़ार मत करना
मेरे लिये कभी भी दिल सोगवार मत करना
मेरी जुदाई तेरे दिल की आज़माइश है
इस आइने को कभी शर्मसार मत करना
फ़क़ीर बन के मिले इस अहद के रावण
मेरे ख़याल की रेखा को पार मत करना
ज़माने वाले बज़ाहिर तो सबके हैं हमदर्द
ज़माने वालों का तुम ऐतबार मत करना
ख़रीद देना खिलौने तमाम बच्चों को
तुम उन पे मेरा आश्कार मत करना
मैं एक रोज़ बहरहाल लौट आऊँगा
तुम उँगुलियों पे मगर दिन शुमार मत करना
कभी फूलों कभी खारों से बचना
कभी फूलों कभी खारों से बचना
सभी मश्कूक़ किरदारों से बचना
हरीफ़ों से भी मिलना गाहे गाहे
जहाँ तक हो सके यारों से बचना
जो मज़हब ओढ़कर बाज़ार निकलें
हमेशा उन अदाकारों से बचना
ग़रीबों में वफ़ा ह उनसे मिलना
मगर बेरहम ज़रदारों से बचना
हसद भी एक बीमारी है प्यारे
हमेशा ऐसे बीमारों से बचना
मिलें नाक़िद करना उनकी इज़्ज़त
मगर अपने परस्तारों से बचना
कारोबार-ए-ज़ीस्त में तबतक कोई घाटा न था
कारोबार-ए-ज़ीस्त में तबतक कोई घाटा न था
जब तलक ग़म के इलावा कोई सरमाया न था
मैं भी हर उलझन से पा सकता था छुटकरा मगर
मेरे गमख़ाने में में कोई चोर दरवाज़ा न था
कर दिया था उसको इस माहौल ने ख़ानाबदोश
ख़ानदानी तौर पर वह शख़्स बनजारा न था
शहर में अब हादसों के लोग आदी हो गये
एक जगह एक लाश थी और कोई हंगामा न था
दुश्मनी और दोस्ती पहले होती थी मगर
इस क़दर माहौल का माहौल ज़हरीला न था
पहले इक सूरत में कट जाती थी सारी ज़िन्दगी
कोई कैसा हो किसी के पास दो चेहरा न था
हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है
हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है
कोई तालिब कोई मतलूब नहीं होता है
अब तो पहली सी वह तहज़ीब की क़दरें न रहीं
अब किसी से कोई मरऊब नहीं होता है
अब गरज़ चारों तरफ पाँव पसारे है खड़ी
अब किसी का कोई महबूब नहीं होता है
कितने ईसा हैं मगर अम्न-व-मुहब्बत के लिये
अब कहीं भी कोई मस्लूब नहीं होता है
पहले खा लेता है वह दिल से लड़ाई में शिकस्त
वरना यूँ ही कोई मजज़ूब नहीं होता है
ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है
ख्वाहिश मुझे जीने की ज़ियादा भी नहीं है
वैसे अभी मरने का इरादा भी नहीं है
हर चेहरा किसी नक्श के मानिन्द उभर जाए
ये दिल का वरक़ इतना तो सादा भी नहीं है
वह शख़्स मेरा साथ न दे पाऐगा जिसका
दिल साफ नहीं ज़ेहन कुशादा भी नहीं है
जलता है चेरागों में लहू उनकी रगों का
जिस्मों पे कोई जिनके लेबादा भी नहीं है
घबरा के नहीं इस लिए मैं लौट पड़ा हूँ
आगे कोई मंज़िल कोई जादा भी नहीं