झूलता स्वप्न
आकाश से उतरा एक झूला
कमरे की छत पर
उसमें एक हरा तोता
एक कव्वा
पुष्प पारिजात के
भीतर से मैंने कहा
‘ये मेरे झूला झूलने की उम्र नहीं’
बाहर से किसी ने कहा
‘मगर प्यास का क्या करें’
मैं लोटा भर शीतल जल
छत पर लाया
उठने लगा तब तक झूला ऊपर
जैसे खींच रहा हो कोई
अभ्यस्त हाथों
मेरे हाथों में लोटा था
दूर तोते और कव्वे की
पुकार से
पारिजात के पुष्प
उड़ते
गिर रहे थे मेरे सिर पर
भीतर कमरे में
झूल रही थी
मकड़ी
मुखौटे पर
अपने अंधेरों से हम
घर के हिस्से करते पिता
कागज पर
अपने हिस्से करते
सब को
समान रूप से
वितरण पश्चात
लौटते जब
सरक जाता
किसी ओर
जनम के हिस्से में
तब तक उनके हिस्से का
अंधेरा
बुला भी नहीं पाते
अपने अंधेरों से हम
उन्हें
कभी कोई था
फिर यह हुआ
साँस आखिरी
चढ़ गयी
सीढ़ी एक और
छत बन गयी
मृत होना था जहाँ मुझे
थी चारदीवारी
जाना था जिस मार्ग
कतरन सा वह अब
था लिपटा
गले आँखों पर
थी जल्दी तुम्हे
तुम गए
आकाश बताते छत को
मुझे बुलाते
कभी कोई था बीच हमारे
नहीं माना हमने
कहता है अब
था धोखा वह
ठोस
आखिरी साँस आ गयी
थम गयी
कभी तुम इतने जीवित
दिन बीते मज़ाक भूले
लिखी बहलाने को
कविता
गाई लोरी
किया शवासन
स्त्री संग यूँ सोया
कि न सोया
श्मसान में यूँ रोया
कि न रोया
अभी-अभी तुम्हारे साथ
अभी-अभी मैं नहीं रहा
कभी तुम इतने जीवित
कि तुम ही तुम नहीं
अब बहुत हुआ मज़ाक
भूले जिसे दिन बीते
लौटना चाहा तो देखा
अपनी राख
हो चुकी
ठंडी बहुत
धुँआ रहा
जिसमें एक दाँत
मज़ाक करता
उसी रात
बरसों तक न सींचा
कीड़ी नगरा
इतना कि कभी-कभी
ख़ुद को
सींचता-सा लगा
मैं नींद की मौत
नहीं मरना चाहता
किया था आर्तनाद
स्वप्न में ख़ुद को
मरते देख
बिला नागा धर्म यह
घर कर गया
मुझ में
एक ही दिन सींच न पाया
उसी रात स्वप्न में
मुझे सींचने आ गईं
सारी चींटियाँ
शब्दार्थ :
(कीड़ी नगरा : चींटियों की बाँबियाँ)
कहाँ भीमबेटका
कहाँ भीमबेटका
यह सुन
दीमकों की कतार से
बूढ़ी दीमक
हाथ पकड़ खींच लेती
कतार में
यहाँ भीमबेटका
कह गया जो आता हूँ अभी
अभी आएँगे वे
ज़रा पान की दूकान पर गए हैं
राह देखती खाली कुर्सी
कितनी चीज़ें हैं
इस घर में
आत्माएँ उनकी रोती उस क्षण को
कह गया जो आता हूँ अभी…
प्यास
आँगन में एक कुआँ
जिसका जल
हर प्यास में ऊपर उठ आता
एक दिन
घर का दरवाज़ा खुला देख
बाहर को गया
तो बरसों लौटा नहीं
एक-एक कर सभी
उतरे कुएँ में
बनाने भीतर ही दरवाज़ा
किसी की भी आवाज़
नहीं सुनाई दी फिर कभी
एक दिन भूला-भटका जल
लौट आया
और कुएँ में लगा झाँकने
पीछे से दीवारों ने उसकी गर्दन
धर-दबोची
सभी घरो के दरवाज़े बंद थे…
फ्रेम
दीवार कोई फ्रेम है
जिसमें रंग छोड़ चुकी तस्वीर वाले आदमी की
पीठ का निशान
नहीं मगर गिर कर टूटे
आईने की किसी किरच की स्मृति
हम जो देखते हैं
हमारी पीठ को जो देखते हैं
वहाँ का फ्रेम टूटा उतना नहीं
जितना धुँधला गया है
हम दीवारों पर अँगुलियाँ फिराते
हमारी पीठ पर कैसी सिहरन होती
और जो दीवार के उस पार खड़ा है
क्या ठीक-ठीक वही है
जो कभी था तस्वीर में
उसकी पीठ पीछे फिर कोई दीवार
जहाँ किसी की पीठ का निशान
पूरा घर कोई अन्तहीन आइनों का सिलसिला
जिस पर आती जाती ठिठकती हवाएँ
शहर में नहीं अब कोई दुकान
दुकान फ्रेम हो
बिखर गयी
अंतिम बार
बरसों से सूखे
कंठ के कुए में
कोई तस्वीर धुँधली सी
है फड़फड़ाती
किसी दिन
नहीं होगी
यह भी
तब क्या मुझे ही
अंतिम बार
कूदना होगा
लगाव
एक कुम्हारिन से
माँ
लगाव हुआ
बनाती नहीं
मिट्टी से बरतन
लेपती रहती मुझ पर
घुमाती रहती
चाक पर
मैं कैसा बना
तू बता
किसी काम का भी रहा
आज तो उसने
खुद को चाक पर चढ़ा लिया
लेप लिया मुझे
परेशान मरने तक
छत पर गिरते तारों की राख से
रहा परेशान
मरने तक
नहीं चाहता था
कहीं बचे रह पाएँ
नींद की प्रतीक्षा में भटकते
पैरों के निशान
क्या तारे चमक-चमक राख होते
प्रत्येक मृत्यु की प्रतीक्षा में
क्या निशानी रह जानी
सुराग बचा रह जाना
ज़रूरी है
यह सुन तारों ने
कुछ ताज़ा राख
और गिरा दी ।
मुआफ़ मत करना
मुआफ़ मत करना
ज़रा भी
कभी भी
लौटता रहा हूँ
तुम्हारे द्वार से
उलटे पाँव
अगर मैं कभी-कभी
द्वार की स्मृति से सनी
लौट आती रही है
दस्तक को जाती हथेली
सोचते उपाय
मारने के तुम मुझे
थक अभी सोए हो
तुम मुझे आलिंगनबद्ध
चुम्बन करते
डबडबाई आँखों
अपना मरना देखते
अभी जागे हो
तुम को मार मैं कहाँ जाऊँगा
मुआफ़ मत करना
खरा न उतरा
अगर मैं तुम्हारी उम्मीदों पर
मेरी उम्मीदों की बात
फिर कभी