गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने का छू कर किस लिए
गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने का छू कर किस लिए
आ गया फिर आसमानों से ज़मीं पर किस लिए
आईना-ख़ानों में छुप कर रहने वाले और हैं
तुम ने हाथों में उठा रक्खे हैं पत्थर किस लिए
मैं ने अपनी हर मसर्रत दूसरों को बख़्श दी
फिर ये हंगामा बपा है घर से बाहर किस लिए
अक्स पड़ते ही मुसव्विर का क़लम थर्रा गया
नक़्श इक आब-ए-रवाँ पर है उजागर किस लिए
एक ही फ़नकार के शहकार हैं दुनिया के लोग
कोई बरतर किस लिए है कोई कम-तर किस लिए
ख़ुशबुओं को मौसमों का ज़हर पीना है अभी
अपनी साँसें कर रहे हो यूँ मोअŸार किस लिए
इतनी अहमियत के क़ाबिल तो न था मिट्टी का घर
एक नुक़्ते में सिमट आया समुंदर किस लिए
पूछता हूँ सब से अफ़ज़ल कोई बतलाता नहीं
बेबसी की मौत मरते हैं सुख़न-वर किस लिए
कर्ब के शहर से निकले तो ये मंज़र देखा
कर्ब के शहर से निकले तो ये मंज़र देखा
हम को लोगों ने बुलाया हमें छू कर देखा
वो जो बरसात में भीगा तो निगाहें उट्ठीं
यूँ लगा है कोई तुरशा हुआ पत्थर देखा
कोई साया भी न सहमे हुए घर से निकला
हम ने टूटी हुई दहलीज़ को अक्सर देखा
सोच का पेड़ जवाँ हो के बना ऐसा रफ़ीक़
ज़ेहन के क़द ने उसे अपने बराबर देखा
जब भी चाहा है कि मलबूस-ए-वफ़ा को छू लें
मिस्ल-ए-ख़ुशबू कोई उड़ता हुआ पैकर देखा
रक़्स करते हुए लम्हों की ज़बाँ गुंग हुई
अपने सीने में जो उतरा हुआ ख़ंजर देखा
ज़िंदगी इतनी परेशाँ है ये सोचा भी न था
उस के अतराफ़ में शोलों का समुंदर देखा
रात भर ख़ौफ़ से चटख़े थे सहर की ख़ातिर
सुब्ह-दम ख़ुद को बिखरते हुए दर पर देखा
वो जो उड़ती है सदा दस्त-ए-वफ़ा में ‘अफ़जल’
उसी मिट्टी में निहाँ दर्द का गौहर देखा
मैं फ़क़त इस जुर्म में दुनिया में रूस्वा हो गया
मैं फ़क़त इस जुर्म में दुनिया में रूस्वा हो गया
मैं ने जिस चेहरे को देखा तेरे जैसा हो गया
चाँद में कैसे नज़र आए तिरी सूरत मुझे
आँधियों से आसमाँ का रंग मैला हो गया
एक मैं ही रौशनी के ख़्वाब को तरसा नहीं
आज तो सूरज भी जब निकला तो अंधा हो गया
ये भी शायद ज़िंदगी की इक अदा है दोस्तों
जिस को साथी मिल गया वो और तन्हा हो गया
एक पत्थर ज़िंदगी ने ताक कर मारा मुझे
चोट वो खाई कि सारा जिस्म दोहरा हो गया
मिल गया मिट्टी में जब ‘अफ़जल’ तो ये आई सदा
गिर गई दीवार और साया अकेला हो गया