अज़दवाजी ज़िन्दगी भी और तिजारत भी अदब भी
अज़दवाजी ज़िन्दगी भी और तिजारत भी अदब भी
कितना कार-आमद है सब कुछ और कैसा बे-सबब भी
जिसके एक इक हर्फ़-ए-शीरीं का असर है ज़हर-आगीं
क्या हिकायत लिख गए मेरे लबों पर उसके लब भी
उम्रभर तार-ए-नफ़स इक हिज्र ही का सिलसिला है
वो न मिल पाए अगर तो और अगर मिल जाए तब भी
लोग अच्छे ज़िन्दगी प्यारी है दुनिया ख़ूबसूरत
आह कैसी ख़ुश-कलामी कर रही है रूह-ए-शब भी
लफ़्ज़ पर मफ़्हूम उस लम्हे कुछ ऐसा मुल्तफ़ित है
जैसे अज़-ख़ुद हो इनायत बोसा-ए-लब बे-तलब भी
ना-तवाँ कम-ज़र्फ़ इस्याँ कार-ए-जाहिल और क्या क्या
प्यार से मुझ को बुलाता है वो मेरा ख़ुश-लक़ब भी
हम भी हैं पाबन्दी-ए-इज़हार से बेज़ार लेकिन
कुछ सलीक़ा तो सुख़न का हो हुनर का कोई ढब भी
नाम निस्बत मिल्किय्यत कुछ भी नहीं बाक़ी अगरचे
‘साज़’ उस कूचे में मेरा घर हुआ करता है अब भी
ख़राब-ए-दर्द हुए ग़म-परस्तियों में रहे
ख़राब-ए-दर्द हुए ग़म-परस्तियों में रहे
ख़ुशी की खोज बहाना थी मस्तियों में रहे
हुआ हुसूल ज़र-ए-फ़न बड़ी कशाकश है
हम एक उम्र अजब तंग-दस्तियों में रहे
हर इक से झुक के मिले यूँ के सरफ़राज़ हुए
चटान जैसे ख़मीदा सी पस्तियों में रहे
चुभन की नाव में पुर की ख़लीज रिश्तों की
अजब मज़ाक़ से हम घर गृहस्तियों में रहे
किताबें चेहरे मनाज़िर तमाम बादा-कदे
बताएँ क्या के बड़ी मै-परस्तियों में रहे
मसाफ़तें थीं शब-ए-फ़िक्र किन ज़मानों की
कहाँ कहाँ गए हम कैसी हस्तियों में रहे
ख़ुलूस-ए-फ़िक्र की गलियों में घूमते तन्हा
हम अपने शेर की आबाद बस्तियों में रहे
खिले हैं फूल की सूरत तेरे विसाल के दिन
खिले हैं फूल की सूरत तेरे विसाल के दिन
तेरे जमाल की रातें तेरे ख़याल के दिन
नफ़स नफ़स नई तह-दारियों में ज़ात की खोज
अजब हैं तेरे बदन तेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल के दिन
ब-ज़ौक़-ए-शेर ये जब्र-ए-मआश यक-जा हैं
मेरे उरूज की रातें मेरे ज़वाल के दिन
ख़रीद बैठे हैं धोके में जिंस-ए-उम्र-ए-दराज़
हमें दिखाए थे मकतब ने कुछ मिसाल के दिन
न हादसे न तसलसुल न रब्त-ए-उम्र कहीं
बिखर के रह गए लम्हों में माह ओ साल के दिन
मैं बढ़ते बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
के गिन के रख दिए तू ने मेरी मजाल के दिन
ये तजर्बात की वुसअत ये क़ैद-ए-सौत-ओ-सदा
न पूछ कैसे कड़े हैं ये अर्ज़-ए-हाल के दिन
जागती रात अकेली-सी लगे
जागती रात अकेली-सी लगे
ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे
रुप का रंग-महल, ये दुनिया
एक दिन सूनी हवेली-सी लगे
हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे
शायरी तेरी सहेली-सी लगे
मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल
मुझ को हर रात नवेली-सी लगे
रातरानी सी वो महके ख़ामोशी
मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे
फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची
ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे
दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है
दूर से शहरे-फ़िक्र[1] सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है
साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल[2] चुकाना लगता है
बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है
उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन[3] को इक झटका रोज़ाना लगता है
बे-मक़सद[4] चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है
क्या असलूब[5] चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है
होंट के ख़म[6] से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे
मिज़ाज-ए-सहल-तलब अपना रुख़्सतें माँगे
सबात-ए-फ़न मगर ऐ दिल अज़ीमतें माँगे
उफ़ुक़ पे हुस्न-ए-अदा के तुलु-ए-मेहर-ए-ख़याल
फ़ज़ा-ए-शेर सहर की लताफ़तें माँगे
मुसिर है अक़्ल के मंतिक़ में आए उक़्दा-ए-जाँ
क़दम क़दम पे मगर दिल बशारतें माँगे
नई उड़ान को कम हैं ये ज़ौक़ के शहपर
नई हवाओं का हर ख़म ज़िहानतें माँगे
शुऊर के क़द ओ क़ामत पे है नज़र किस की
ये फ़र्बा-चश्म ज़माना जसामतें माँगे
नफ़ीस ओ सहल नहीं वज़ा-ए-शेर की तदवीज
हर एक सोच दिगर-गूँ सी हालतें माँगे
सुकून-ए-तूल-ए-वफ़ा है तलब की कोताही
के लम्स-ए-याद धड़कती जसारतें माँगे
शुआ-ए-मेहर से धुल जाएँ जैसे माह ओ नज्म
तेरा ख़याल अनोखी तहारतें माँगे
न पूछ ‘साज़’ को वो तो सराब वालों से
फिरे है कासा-ए-दिल में हक़ीक़तें माँगे”
मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
छोटी छोटी बातों में दिल-चस्पी लेना
नर्म नज़र से छूना मंज़र की सख़्ती को
तुंद हवा से चेहरे की शादाबी लेना
जज़्बों के दो घूँट अक़ीदों के दो लुक़्मे
आगे सोच का सहरा है कुछ खा पी लेना
महँगे सस्ते दाम हज़ारों नाम ये जीवन
सोच समझ कर चीज़ कोई अच्छी सी लेना
आवाज़ों के शहर से बाबा क्या मिलना है
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी लेना
दिल पर सौ राहें खोलीं इंकार ने जिस के
‘साज़’ अब उस का नाम तशक्कुर से ही लेना
हम अपने ज़ख़्म कुरेदते हैं वो ज़ख़्म
हम अपने ज़ख़्म कुरेदते हैं वो ज़ख़्म पराए धोते थे
जो हम से ज़्यादा जानते थे वो हम से ज़्यादा रोते थे
अच्छों को जहाँ से उट्ठे हुए अब कितनी दहाइयाँ बीत चुकीं
आख़िर में उधर जो गुज़रे हैं शायद उन के पर-पोते थे
इन पेड़ों और पहाड़ों से इन झीलों इन मैदानों से
किस मोड़ पे जाने छूट गए कैसे याराने होते थे
जो शब्द उड़ानें भरते थे आज़ाद फ़ज़ा-ए-मानी में
यूँ शेर की बंदिश में सिमटे गोया पिंजरों के तोते थे
वो भीगे लम्हे सोच भरे वो जज़्बों के चक़माक़ कहाँ
जो मिस्रा-ए-तर दे जाते थे लफ़्ज़ों में आग पिरोते थे
ये ख़ुश्क क़लम बंजर काग़ज़ दिखलाएँ किसे समझाएँ क्या
हम फ़स्ल निराली काटते थे हम बीज अनोखे बोते थे
अब ‘साज़’ नशेबों में दिल के बस कीचड़ काली दलदल है
याँ शौक़ के ढलते झरने थे याँ ग़म के उबलते सोते थे
जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है
जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है
रूदाद एक लम्हा-ए-वहशत-असर की है
फिर धड़कनों में गुज़रे हुओं के क़दम की चाप
साँसों में इक अजीब हवा फिर उधर की है
फिर दूर मंज़रों से नज़र को है वास्ता
फिर इन दिनों फ़ज़ा में हिकायत सफ़र की है
पहली किरन की धार से कट जाएँगे ये पर
इज़हार की उड़ान फ़क़त रात भर की है
इदराक के ये दुख ये अज़ाब आगही के, दोस्त !
किस से कहें ख़ता निगह-ए-ख़ुद-ए-निगर की है
वो अन-कही सी बात सुख़न को जो पुर करे
‘साज़’ अपनी शायरी में कमी उस कसर की है
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
मिरे आगे सराब-ए-आगही है
ज़मानों को मिला है सोज़-ए-इज़हार
वो साअत जब ख़मोशी बोल उठी है
हंसी सी इक लब-ए-ज़ौक़-ए-नज़र पर
शफ़क़-ज़ार-ए-तहय्युर बन गई है
ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे
ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है
पिघलता जा रहा है सारा मंज़र
नज़र तहलील होती जा रही है
धुन्दलकों को अन्धेरे चाट लेंगे
कि आगे अहद-ए-मर्ग-ए-रौशनी है
बिखरते कारवाँ ये इर्तिक़ा के
सरासीमा सा ज़ौक़-ए-ज़िन्दगी है
मैं देखूँ तो दिखा दूँगा तुम्हें ‘साज़’
अभी मुझ में बसीरत की कमी है
ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िन्दानी करें
ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िन्दानी करें
फ़िक्र को तख़्त-ए-सुलैमानी करें
देर तक बैठ के सोचें ख़ुद को
आज फिर घर में बयाबानी करें
अपने कमरे में सजाएँ आफ़ाक़
जल्सा-ए-बे-सर-ओ-सामानी करें
उम्र भर शेर कहें ख़ूँ थूकें
मुन्तख़ब रास्ता नुक़सानी करें
ख़ुद के सर मोल लें इज़हार का क़र्ज़
दूसरों के लिए आसानी करें
शेर के लब पे ख़मोशी लिक्खें
हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता को ला-फ़ानी करें
कीमिया-कारी है फ़न अपना ‘साज़’
आग को बैठे हुए पानी करें
हिसार-ए-दीद में जागा तिलिस्म-ए-बीनाई
हिसार-ए-दीद में जागा तिलिस्म-ए-बीनाई
ज़रा जो लौ तिरी शम-ए-बदन की थर्राई
न जाने किस से बिछड़ने के राग-रंग हैं सब
ये ज़िन्दगी है कि फ़ुर्क़त की बज़्म-आराई
सुकूत-ए-बहर में किस ग़म का राज़ पिन्हाँ था
बस एक मौज उठी और आँख भर आई
ये सम्त सम्त तख़ातुब उफ़ुक़ उफ़ुक़ तक़रीर
तिरा कलाम है मेरा रफ़ीक़-ए-तन्हाई
ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा
अज़ीज़-ए-मन ब-सलामत-रवी ओ बाज़-आई
उठाए सूर सराफ़ील देखता ही रहा
बशर के हाथ निज़ाम-ए-क़यामत-आराई
किया था जी का ज़ियाँ हम ने इक ग़ज़ल भर को
हज़ार शेर कहे हो सकी न भरपाई
जब तक शब्द के दीप जलेंगे सब आएँगे तब तक यार
जब तक शब्द के दीप जलेंगे सब आएँगे तब तक यार
कौन उतरेगा दिल के अंधे भाओं के मतलब तक यार
चन्द बरस की राह में कितने साथी जीवन छोड़ गए
जाने कितने घाव लगेंगे उम्र कटेगी जब तक यार
पूछ न क्या थी पिछले पहर की दर्द भरी अनजानी चीख़
जो मन के पाताल से उट्ठी रह गई आ के लब तक यार
कब बाजेगा गाँव के मरघट के परे मन्दिर के सँख
कब काला जादू टूटेगा रात ढलेगी कब तक यार
‘साज़’ ये शेरों की सरगोशी तिरी मिरी अन्दर की बात
रुस्वा हो कर रह जाएगी पहुँच गई गर सब तक यार
घुल सी गई रूह में उदासी
घुल सी गई रूह में उदासी
रास आई न हम को ख़ुद-शनासी
हर मोड़ पे बे-कशिश खड़ी है
इक ख़ुश-बदनी ओ कम-लिबासी
लालच में परों के पैर छूटे
अब रख़्त-ए-सफ़र है बे-असासी
नफ़्स-ए-मज़मूँ इसी में है गो
मज़मून-ए-नफ़स है इक़तिबासी
आई भी तो क्या निगार-ए-ताबीर
ओढ़े हुए ख़्वाब की रिदा सी
जादू सा अलम का कर गई ‘साज़’
उन आँखों की मुल्तफ़ित उदासी
बातिन से सदफ़ के दुर-ए-नायाब खुलेंगे
बातिन से सदफ़ के दुर-ए-नायाब खुलेंगे
लेकिन ये मनाज़िर भी तह-ए-आब खुलेंगे
दीवार नहीं पर्दा-ए-फ़न बन्द-ए-क़बा है
इक जुम्बिश-ए-अंगुश्त कि महताब खुलेंगे
कुछ नोक-पलक और तहय्युर की सँवर जाए
हर जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ में नए बाब खुलेंगे
आईना-दर-आईना खुलेगा चमन-ए-अक्स
ताबीर के दर ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब खुलेंगे
हो जाएँगे जब ग़र्क़ सदाओं के सफ़ीने
सुनते हैं ख़मोशी के ये गिर्दाब खुलेंगे
क्या उन से समाअत भी गुज़र पाएगी ऐ ‘साज़’
वो दर जो तह-ए-जुम्बिश-ए-मिज़राब खुलेंगे
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
मैं ने लौटाया उसे इक नज़्म की तकनीक में
बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में
फ़ैसले महफ़ूज़ हैं और फ़ासले हैं बरक़रार
गर्द उड़ती है यक़ीं की वादी-ए-तश्कीक में
सी के फैला दूँ बिसात-ए-फ़न पे मैं दामान-ए-चाक
डोर तो गुज़रे नज़र की सोज़न-ए-बारीक में
मैं ज़ियारत-गाह-ए-आगाही से लौट आया हूँ दोस्त
फूल लाया हूँ अलम के हदिया-ए-तबरीक में
बोल मेरे सुर को छूते छूते रह जाते हैं ‘साज़’
आह ये कैसी कसर है दर्द की तहरीक में
मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो
मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो
ये इस्तिदलाली तर्क करो बस इस्तिफ़हामी रहने दो
ये तेज़-रवी ये तुर्श-रुई चलने की नहीं है दूर तलक
शबनम-नज़री शीरीं-सुख़नी आसूदा-गामी रहने दो
सौ दश्त समुन्दर छानो पर आते रहो क़र्या-ए-दिल तक भी
बैरूनी हवा के झोंकों में इक मौज-ए-मक़ामी रहने दो
अब तंज़ पे क्यूँ मजबूर करो हम ग़ैर मुलव्विस लोगों को
फ़न पेश करो ये फ़हरिस्त-ए-असमा-ए-गिरामी रहने दो
रफ़्तार पर इतनी दाद न दो मंज़िल न मिरी छीनो मुझ से
अज़-राह-ए-हुनर मिरे हिस्से की थोड़ी नाकामी रहने दो
जतलाते फिरो गर क़द अपना पैमाइश की मोहलत तो न दो
इस क़ामत-ए-बाला के सदक़े ये ज़ूद-क़यामी रहने दो
अब हम से परेशाँ-हालाँ को क्या अम्न-ओ-सुकूँ रास आएगा
यूँही बोहरानी चलने दो सारा हंगामी रहने दो
ऐ ‘साज़’ वगर्ना लोग तुम्हें ठहराएँगे साँपों का मस्कन
इस शहर-ए-अक्स-गज़ीदा में आईना-फ़ामी रहने दो