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मांद से बाहर 

चुप मत रह तू खौफ से

कुछ बोल
बजा वह ढोल
जिसे सुन खौल उठें सब

ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब

हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर

जो करते वार
हरामी वार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा सौ बार
निकलकर मांद से बाहर

कलम को मांज
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे

तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला

मशअलें बुझ न जाएँ
कंस खुद मर न जाएँ
तू पहले चेत
बिछा दे खेत
भले तू एकल एकल

उठा परचम
दिखा दमखम
निरर्थक न हो बेकल
यहाँ कुरुक्षेत्र सजा है
युद्ध भी एक कला है

आदमखोर

तुमने हमारे खेतों में खड़ी कर दीं चिमनियाँ
बिछा दिए हाई – वे के सर्पिल संसार
बना दिए विकास के नाम पर मानवता के आंवे
और अब चाहते हो हम लायें एक और हरित क्रांति ?

क्या तुम नहीं जानते कि हाई वे पर दनदनाते वाहन
अपने साथ उड़ा लाते हैं विकास की अंधी दौड़ की धूल
जहां नस्लें हल उठाना अपनी तौहीन समझती हैं
और दहलीज की संस्कृतियाँ भाग जाती हैं दबे पाँव
शहर की ओर उन्मुक्तता की तलाश में

शायद तुम ये भी नहीं जानते कि मजदूर तब उठाते हैं बंदूकें
जब उनका हक मारा जाता है और आवाज़ कर दी जाती है अनसुनी
तुम्हारे सपने उन्हें कुछ नहीं देते बल्कि छीन लेते हैं
खेतों की बालियाँ माटी और स्वभाव का सोंधापन
जहां आदमी की बढती जाती है प्यास और वो हो जाता है आदमखोर

कितनी दुनिया बसाओगे तुम इस छोटी सी दुनिया में
कहीं आयातित पित्ज़े लोगों के शौक
कहीं नून तेल और प्याज के भी लाले
कहीं पांचतारा स्कूल कालेज
और कहीं टाट को मोहताज हाथों में थाली लिए
बहती नाक पोंछते बच्चे
कहीं फार्मूला वन की रफ़्तार
कहीं पगडंडियों पर भी भ्रष्टाचार की मार
कब देखोगे तुम सौ आँखों और सौ चश्मों से परे की दुनिया और उसका सच
हाँ कि अब जाग रहें हैं हम धीरे ही सही
सो तुम समेटो अपनी खोखली विकास की पोटली
कि हम सुदामा नहीं और उससे बढ़कर ये कि तुम कृष्ण भी नहीं।

औरत

१.
मैंने घर बदले
दर दरवाज़े और दहलीज़ें भी बदलीं
लोग सोच और श्रृंगार भी बदले
पर नहीं बदल सकी
अपनी नियति
देहरी में कैद
आज भी मैं
एक औरत

२.
कभी छतरी सर पर लगा
कभी गर्म स्वेटर पहन
और कभी छज्जे की ओट में छुप
सबने लुत्फ़ लिया उस मौसम का
जिसे कहते हैं औरत

३.
पूजी भी गयी
लाल चुनरी में लपेट
धूप दीप दिखा
फूल नैवेद्य चढ़ा
शीश नवा
तब जब मूरत रूप में थी
हाथों में तलवार लिए
मुंह सीए
एक औरत

४.
सबका आखिरी निवाला
सबकी थाली में बची जूठन
सबके छोटे बड़े हुए
पसंद नापसंद आये
वस्त्र और आभूषण
सजते रहे मेरे तन पर
सबके बोले अबोले
ताने उपमाएं और उपमान
मेरे अलंकरण बने
और इस तरह
मैं बनती रही
एक औरत

५.
मेरी ममता
मेरा दुलार
मेरे दिए संस्कार
मुझसे ही ले
मांस अस्थि मज्जा
बनती रही पीढियां
मेरे ही अस्तित्व को नकारती
फिर भी सदियों से
सदियों की तरह ख़ामोश
आज भी मैं
एक औरत

६.
मादक सुरभित
देहयष्टि में
तह दर तह
आमंत्रित करते
मोहक मुस्कानों को
देखते रहे हम बेसुध
हमने नहीं देखी
सौ तहों में लिपटी
पीड़ा को सहेजती
जीती जागती
अपने ही आस पास की
एक औरत

७.
अपने हक़ में
नारे नहीं लगाती
मोर्चे निकाल आन्दोलन नहीं करती
तख्तियों को हाथों में ले
कभी ढोल नहीं पीटती
आज भी
लाज और शील के
हमारे ही बनाए सौ सौ
तालों में बंद है
एक औरत

देखने में सुंदर लड़कियां

 ठण्ड में सिकुड़ती नहीं
बारिश में भींगती नहीं
न ही धूप में जलती हैं सुंदर लड़कियां
सुंदर लड़कियां मोबाइल से बात करते ड्राइव करें तो भी नहीं कटता उनका चालान
सुदंर लड़कियां स्कूटी से किसी को टक्कर मार गिर जाएँ तो कराहता रह जाता है घायल
और आठ दस लोग दौड़ पड़ते हैं लड़की और उसकी बाइक को उठाने
सुंदर लड़कियों से मनमाने भाड़े की ज़िद नहीं करते ऑटो – रिक्शा वाले
बिना मोल भाव के घट जाती हैं वस्तुओं की कीमत उनके लिए
सुंदर लड़कियां बैंक में लाइन नहीं लगतीं सीधी काउंटर पर धमक जाती हैं
आपने आवाज़ उठाई तो बैंक का गार्ड आपको ही कर देता है गेट से बाहर
पुलिस भी सुनती है उन्ही की आप हवालात में पहुँच जाते हैं
सुंदर लड़कियां संवेदनशील स्थानों पर भी मुंह को स्कार्फ से ढंके जा सकती हैं
स्याह रात को भी लगा सकती हैं काले चश्मे उन्हें कोई नहीं टोकता
सुंदर लड़कियां आपको छ्लें तो भी छलिया कहे जाते हैं आप ही
सुंदर लड़कियों की एक आवाज़ पर एंटी रोमियो दल बनता है
आपकी सौ आवाज़ पर भी एंटी जूलियट स्क्वाड कभी नहीं बनता
सुंदर लड़कियां कुछ भी लिखें शाया हो जाती हैं तपाक से आलमी रिसालों में
सुंदर लड़कियों के दस नम्बर ऐसे ही बढ़ जाते हैं उदारता से
और आपकी परीक्षा और कड़ी हो जाती है
सुंदर लड़कियां दबी होती है तारीफों के पुल के नीचे
जिसकी नींव में कराह रही होती हैं सैकड़ों उम्मीदें
जिन्हें भरोसा होता है अपनी काबिलियत पर
सुंदर लड़कियां ज़िद्दी भी होती हैं चाहती हैं उनकी हर बात मानी जाए
सुंदर लड़कियां जितनी जल्दी रूठती हैं उतनी ही जल्दी मान भी जाती हैं
क्योंकि असुरक्षित भी महसूस करती करती हैं ख़ुद को सुंदर लड़कियां
वे जानती हैं वही नहीं हैं दौरे हाज़िर की आख़िरी और एकमात्र सुदर लड़की
शायद शुक्रिया की हक़दार भी होती हैं
तमाम युद्धों के मूल में रहने वाली सुंदर लड़कियां
जो छिपी रह जाती हैं इतिहासकार की नज़रों से
जिनपर कवितायेँ बनती हैं और सदियों तक पढ़ी जाती हैं पद्मावत की तरह
सच है छलावों का कोई युग नहीं होता
देवता भी छलते हैं विश्व मोहिनी रूप धरकर ही
सच यह भी है कि कोई भी प्रतिपादन सनातन नहीं होता
सच यह भी है कि दैहिक सुन्दरता स्थाई नहीं होती

यूटोपिया 

विन्ध्य की चोटियों पर खड़ा हो
अपनी दोनों बाहों को फैला
अगस्त्य सा कुछ पी सकता तो पी लेता
सारा का सारा गरल इस समष्टि का
सजी संवरी कृतियों की तह तक देख सकता तो देख लेता
हड्डियों पर चढ़ी मांस मज्जा की लिजलिजी परत
हां जिस मस्तिष्क पर गर्व है तुम्हें
वह बारीक नाड़ियों के गुच्छ के सिवाय और कुछ नहीं
ह्रदय की धमनियां तो अब बैटरी से भी चलने लगी हैं
तुम अब रिश्तों को चलाने वाली बैटरी बनाओ तो बात बने
ये नाड़ियाँ तो नख-आघात से भी लहू टपका देती हैं
नीले हरे दाग़ में तब्दील हो जाते हैं कोमल स्पर्श भी
ज्यों की त्यों चादर आज कौन धरता है
क्या सत्य क्या सनातन, न सिगरेट न धुआं
मजनू ने हज़ार पत्थर खाए उफ़ तक नहीं किया
बाज़ार प्रेम के प्रतीकों का व्यवसाय कर रहा
अफ़सोस तुम्हें ठगे जाने का अहसास तक नहीं
अच्छा है ग़ालिब ज़ुकरबर्ग के युग में नहीं हुए
वरना दीवान तो क्या कायदे के चंद अशआर के लाले पड़ जाते
बाज़ीचा ए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे, ये तो ठीक
पर इस तमाशे पर कब्ज़ा ख़लीफ़ा का है
और उसकी नीमबाज़ आँखों में बिलकुल रहम नहीं
लाल – काले पान और ईंट
यहाँ तक कि चिड़ी का गुलाम भी उसी के पास
वक़्त के इक्कों से पंखा झलती हैं बेगमात
उसके ख़ुशबूदार सरहाने हर रात जिन्नात
हर मुराद पूरी करते हैं
निरंतर उतरती रहती हैं लाल पीली तस्वीरें बाज़ार में
भूतों का डेरा तो उठ चुका कबका
गहमर है गहमरी नहीं, न गाने वाले न लिखने वाले
अय्यारी के लिए आज गुफ़ाओं की ज़रूरत नहीं
क्रूरों के नवीन ठिकाने वातानुकूलित हैं और संस्कृति अनुकूलित भी
पांच तारा कीर्तन की कुटियों में
हर रात साधना रत कान्तायें
खजुराहो की मुद्राओं का अभ्यास करती हैं
करोड़ों का है कारोबार मुहब्बत के बाज़ार का
और आप खरबूज़े की फांक कटवाकर उसका रंग देख रहे
धिक्कार है टोटल नॉन-सेन्स

जेनोसाइड

अब तक वो टहनी मेरी पहुँच से दूर है
बचपन से उचक उचक कर पकड़ना चाहा है उसे बारहा
पंजों के बल खड़े होकर
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया
वैसे वैसे और ऊंची होती गयी है वो टहनी
जिसपर खिलते हैं हर सिंगार के फूल
जहां होता है जुगनुओं का बसेरा
जिसपर हर रात कुछ पल सुस्ताता है चाँद
तारों की टोली के साथ
आसमान से नीचे उतर कर
और जुगनुओं को बांटता है रोशनी थोड़ी थोड़ी
झील मेरी पहुँच में रही है बचपन से
जब चाहा छप छप करता उतर पड़ा
पर झील में जाने क्यों कांपती सी दिखती है
हरसिंगार की परछाईं
हिलता सा दीखता है चाँद
और दोनों ही मेरी मुट्ठी में नहीं समाते
लगता है मुझसे बेहतर है जुगनुओं की किस्मत
अब तो हर रात जागता हूँ मैं झुरमुट में छुपकर
हर रात सोचता हूँ
अंजुली में भर लूं टटके खिले हर सिंगार
कुतर लूं चाँद का एक टुकडा अपने दूध के दांतों से
कुछ जुगनुओं को बंद कर लूं पारदर्शी शीशी में
पर हर सुबह नींद खुलती है अधूरे ख़ाब के साथ
बढ़ जाती है मेरी मुट्ठी की प्रतीक्षा
थोड़ी और छोटी हो जाती है हथेली पर उगी भाग्य रेखा
हर सुबह जाने क्यों मुझपर हंसता सा दीखता है
मेरे आँगन का ठूँठ

फिर ज़ुबानों पर इन्कलाब आए

फिर ज़ुबानों पर इन्कलाब आये
वक़्त इतना भी न ख़राब आये

ये रईसों की शौक़ है अब तो,
इस सियासत में भी नवाब आये

आंच में उनकी खुल गयी कलई,
वो मेरे दर पर बेनक़ाब आये

फेंक पत्थर ठहर गये हैं सब,
चाहते हैं कि अब जवाब आये

फिर से कक्षाओं में चलो बैठें,
फिर से काग़ज़ कलम किताब आये

उनकी चाहत कि कुछ लिखूँ न लिखूँ,
किन्तु हर ख़त में इक गुलाब आये

रात इस आस में कटी मेरी,
नींद आये तो उनका ख्व़ाब आये

आज फिर याद आ रही उनकी,
आज फिर सामने शराब आये

मेरे आँगन में रात रानी है,
मेरे आँगन में माहताब आये

ज़मीं को लाख जोतो वो कभी शिकवा नहीं करती

ज़मीं को लाख जोतो वो कभी शिकवा नहीं करती
लुटा धन धान अपने नाम एक पौधा नहीं करती

उसे गिर गिर के उठने का हुनर भी ख़ूब आता है
दीये की लौ हवा के ज़ोर से टूटा नहीं करती

तमाशा देखने का शौक़ है इसको बहुत लेकिन,
ये जागी कौम है सिक्के कभी फेंका नहीं करती

भला क्यों तुम यहाँ अहदे वफ़ा की बात करते हो,
तवायफ़ एक की ख़ातिर कभी मुज़रा नहीं करती

गले मिलना, किसी से खुल के मिलना, उसकी फ़ितरत है,
नदी लेकिन किनारों से कोई वादा नहीं करती

कभी लोबान की ख़ुशबू को मुट्ठी में लिया तुमने,
इबादत भी बुतों का रास्ता देखा नहीं करती

मनाने के लिए उसको कई दोनें पहुँचते हैं,
सड़क की कोई पगली रात को फ़ाका नहीं करती

समझ वालों के पत्थर जब भी उसके पास जाते हैं,
वो पगली खिलखिलाती है कोई शिकवा नहीं करती

कोई अपना दिखे तो और भी अनजान बनती है,
मुहब्बत में ज़माने के लिए किस्सा नहीं करती

नियति को मानकर गंगा सभी के पाप धोती है,
वो ख़ुद के पाक़ होने का कोई दावा नहीं करती

ठगे जाओगे तुम बाज़ार से वाक़िफ़ नहीं अभिनव,
तुम्हारे सामने वो इसलिए चेहरा नहीं करती

जो बद्दुआ भी उधर जाए तो दुआ ही लगे

जो बद्दुआ भी उधर जाए तो दुआ ही लगे
अजब दरख़्त है पतझड़ में भी हरा ही लगे

ये आगरा है इसी शह्र में है ताजमहल,
यहाँ की आबो हवा औरों से जुदा ही लगे

हरेक मोड़ पे इक मोड़ आ रहा है नया,
ये ज़ीस्त फिर भी निभाती हुई वफ़ा ही लगे

पढ़ो क़ुरआन या गीता के श्लोक को ही पढ़ो,
किसी भी चश्मे से देखो ख़ुदा ख़ुदा ही लगे

तमाम पर्दों के पहरे से कुछ गुरेज़ नहीं,
मगर ये खिड़की तो खोलो ज़रा हवा ही लगे

हरेक शख्स सिमट सा गया है ख़ुद में यहाँ,
नहीं किसी से रहा कोई वास्ता ही लगे

जो कल की शाम मिला था मुहब्बतों से बहुत,
सुबह को ऐसे वो बदला कि दूसरा ही लगे

जो सच बयानी में करता नहीं है कोई लिहाज,
मेरा वो दोस्त मेरे घर का आइना ही लगे

सभी को नींद में चलने की है बीमारी लगी,
हरेक शख्स यहाँ सोया पर जगा ही लगे

सबकी नज़रों में सुनहरी भोर होनी चाहिए

सबकी नज़रों में सुनहरी भोर होनी चाहिए,
रोज कोशिश रोशनी की ओर होनी चाहिए।

आसमां जा कर पतंगें भूल जाती हैं धरा,
आपके हाथों में उनकी डोर होनी चाहिए।

हो ग़ज़ल ऐसी कि, जैसे लुत्फ़ की परतें खुलें,
शाइरी गन्ने की मीठी पोर होनी चाहिए।

इश्क का जज़्बा इबादत से बड़ा हो जाएगा,
शर्त ये है आशिकी पुरजोर होनी चाहिए।

ज्ञान गीता का भले काम आएगा संग्राम में,
कृष्ण की नज़रें मगर चितचोर होनी चाहिए।

तोड़ सकता है अदब सौ मुश्किलों के भी कवच,
हर कलम पैनी नुकीली ठोर होनी चाहिए।

कोई पश्चाताप की बातें करे तो देखना,
आँख में उसकी ढलकती लोर होनी चाहिए।

जबकि आँखें बंद होने को हों मेरे रूबरू,
माँ तेरे आँचल की स्वर्णिम कोर होनी चाहिए।

देखना जब भी तो उसकी सीरतों को देखना,
ये न हो सूरत ही उसकी गोर होनी चाहिए।

शह्र वाली बोन्साई ख़ूब है पर ज़हन में,
गाँव के बरगद की पुख्ता सोर होनी चाहिए।

सच को अपनाने का जब ऐलान किया 

सच को अपनाने का जब ऐलान किया,
सबने मुझ पर बाणों का संधान किया।

जागो रण में नींदें भारी पड़ती हैं,
अभिमन्यू ने प्राणों का बलिदान किया।

आंसू की दो बूँदें टपकी पन्नो पर,
मैंने अपने किस्से का उन्वान किया।

सोने की अपनी अपनी लंकाएं गढ़,
हमने ख़ुद में रावण को मेहमान किया।

देश निकाला देकर सारे पेड़ों को,
हमने अपने शहरों को वीरान किया।

भूख ग़रीबी महंगाई दो दिन के हैं,
कुबड़े काने राजा ने फरमान किया।

दूषित होकर भी गंगा गंगा ही है,
बेशक हमने अपना ही नुक्सान किया।

वृद्धाश्रम में नाम लिखाकर भूल गए,
हमने अपनों का ऐसा सम्मान किया।

बाहर बाहर उन्नतशील लबादे हैं,
भीतर भीतर मूल्यों को शमशान किया।

आग नहीं कुछ पानी भी दो

आग नहीं कुछ पानी भी दो
परियों की कहानी भी दो।

छोटे होते रिश्ते नाते
मुझको आजी नानी भी दो।

दूह रहे हो सांझ-सवेरे
गाय को भूसा सानी भी दो।

कंकड पत्थर से जलती है
धरा को चूनर धानी भी दो।

रोजी रोटी की दो शिक्षा
पर कबिरा की बानी भी दो।

हाट में बिकता प्रेम दिया है
एक मीरा दीवानी भी दो।

जाति धर्म का बंधन छोडो
कुछ रिश्ते इंसानी भी दो।

बहुत हो गए लीडर अफसर
ग़ालिब मोमिन फानी भी दो।

बहुत दुश्वारियां हैं पर वहम आसानियों का है 

बहुत दुश्वारियां हैं पर वहम आसानियों का है।
जिसे कहते मुहब्बत हम वो शय हैरानियों का है।

यहाँ पग पग पे लहरें आज़माइश के लिए आतुर,
ज़रा बचकर निकलना तुम शहर ये पानियों का है।

इसी कलयुग ने राजाओं को रस्ते पर बिठा डाला,
कफ़न के वास्ते बिकते ये किस्सा दानियों का है।

सियासत ने नए इस दौर में सौ फन दिखाए हैं,
जहां राजा थे काबिज़ वो महल अब रानियों का है।

हमारे दाल रोटी उसके मुद्दे हो नहीं सकते,
सदन के वास्ते तो ये बहस बेमानियों का है।

चकल्लस के लिए शाइर मगज़मारी नहीं करता,
ये मीरों ग़ालिबों का फन तो फ़ैज़ों फ़ानियों का है।

हिमाला की हिफ़ाज़त में ख़ुदा ने अपनी जन्नत की,
जिसे कश्मीर कहते हैं वो हिन्दुस्तानियों का है।

झूठ जब भी सर उठाये वार होना चाहिए 

झूठ जब भी सर उठाये वार होना चाहिए,
सच को सिंहासन पे ही हर बार होना चाहिए।

बात की गांठें ज़रा ढीली ही रहने दो मियाँ,
हो किला मज़बूत लेकिन द्वार होना चाहिए।

फ़िक्र ऐसी हो कि हम फाके में भी सुलतान हों,
क्या ज़रूरी है कि बंगला – कार होना चहिये।

मैं कि दुनिया से मिलूँ कैफ़ी और साहिर की तरह,
पास तुम आओ तो मन गुलज़ार होना चाहिए।

घर से शाला तक मेरा बचपन कहीं गुम हो गया,
जी करे हर रोज़ ही इतवार होना चाहिए।

साफ़गोई है तो दिल चेहरे से झांकेगा ज़रूर,
आदमी लिपटा हुआ अखबार होना चाहिए।

मुल्क की खातिर फकत झंडे न फहराएँ हुजूर,
इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए।

कितने गड़बड़ झाले हैं

कितने गड़बड़ झाले हैं,
और हम बैठे ठाले हैं।

तेल खेल ताबूत तोप में,
घोटाले घोटाले हैं।

राजनीति अब शिवबरात है,
नेताजी मतवाले हैं।

कलम की पैनी धार कुंद है,
बाजारू रिसाले हैं।

बिकता नहीं साहित्य आजकल,
विज्ञापन के लाले हैं।

सुई गड़ाकर दूह रहे सब,
गोमाता को ग्वाले हैं।

क्या गाऊँ श्रृंगार की कविता,
मुंह में सच के छाले हैं।

नहीं गये अँग्रेज़ आज भी,
शासक लाठी वाले हैं।

न्याय की आँखों पर हैं पट्टी,
मुंह पर भय के ताले हैं।

द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी

द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी
आज या कल के उस दौर में मैं कहाँ कब संभाली गयी

सब्र तक मुझको मोहलत मिली कब कली अपनी मर्ज़ी खिली,
एक सिक्का निकाला गया मेरी इज्ज़त उछाली गयी

लड़का लूला या लंगड़ा हुआ गूंगा बहरा या काला हुआ,
मुझसे पूछा बताया नहीं सबको मैं ही दिखा ली गयी

दौर कैसा अजब आ गया एक सबको नशा छा गया,
सब हैं पैसे के पीछे गए सबकी होली दिवाली गयी

है न चौकी पुलिस की जहां चाय पीते रहे तुम वहाँ,
एक काली सफारी रुकी एक लड़की उठा ली गयी

दिन में जो थी बरामद हुई रात भर थाने में वो रही,
रात भर जांच उसकी हुई तुमने सोचा बचा ली गयी

चार कसमों की बाते हुईं चार वादों की रातें हुई,
चार तोह्फ़े दिखाए गए इस तरह वो मना ली गयी

बाप की सांस टूटी ही थी माँ को बंधक बनाया गया,
फिर अंगूठा लगाया गया फिर वसीयत बना ली गयी

अपने सारे पराये हुए लोग भाड़े के लाये हुए,
मौत तनहाइयों में हुई और रोने रुदाली गयी

साज़िशें नश्वर हुआ करतीं बताता आ गया

साज़िशें नश्वर हुआ करतीं बताता आ गया,
चीरकर कुहरे को सूरज मुस्कराता आ गया।

द्वार पर मंदिर के एक काली सफ़ारी क्या रुकी,
सारे भिक्षुक ख़ुश हुए जैसे विधाता आ गया।

आपके भाषण की सारी पोल पट्टी खुल गयी,
एक बच्चा बीच में जो खिलखिलाता आ गया।

घर में कानोंकान फैली बेटी होने की खबर,
और एक सैलाब जैसे दनदनाता आ गया।

आपका घर चीन की झालर से रोशन ख़ूब है,
हम कुम्हारों के घरों में दुःख से नाता आ गया।

इन समातों में अचानक आ गया भूचाल क्यों,
क्या कोई दुष्यंत की ग़ज़लें सुनाता आ गया।

मोह की लंका तुम्हारी लाह सी जलने लगी,
सत्य का हनु पूंछ से लुत्ती लगाता आ गया।

मेरी एक आवाज़ पर सच झूठ कुछ पूछे बग़ैर,
कर्ण कोई आज फिर रिश्ता निभाता आ गया।

बंद पलकों से निकल सपने थिरकने से लगे,
कौन रातों को यमन कल्याण गाता आ गया।

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