आईनों में अक्स न हों तो
आईनों में अक्स न हों तो हैरत रहती है
जैसे ख़ाली आँखों में भी वहशत रहती है
हर दम दुनिया के हँगामे घेरे रखते थे
जब से तेरे ध्यान लगे हैं फ़ुर्सत रहती है
करनी है तो खुल के करो इंकार-ए-वफ़ा की बात
बात अधूरी रह जाए तो हसरत रहती है
शहर-ए-सुख़न में ऐसा कुछ कर इज़्ज़त बन जाए
सब कुछ मिट्टी हो जाता है इज़्ज़त रहती है
बनते बनते ढह जाती है दिल की हर तामीर
ख़्वाहिश के बहरूप में शायद क़िस्मत रहती है
साए लरज़ते रहते हैं शहरों की गलियों में
रहते थे इंसान जहाँ अब दहशत रहती है
मौसम कोई ख़ुश-बू ले कर आते जाते हैं
क्या क्या हम को रात गए तक वहशत रहती है
ध्यान में मेला सा लगता है बीती यादों का
अक्सर उस के ग़म से दिल की सोहबत रहती है
फूलों की तख़्ती पर जैसे रंगों की तहरीर
लौह-ए-सुख़न पर ऐसे ‘अमजद’ शोहरत रहती है
अपने घर की खिड़की से मैं
अपने घर की खिड़की से मैं आसमान को देखूँगा
जिस पर तेरा नाम लिखा है उस तारे को ढूँढूँगा
तुम भी हर शब दिया जला कर पलकों की दहलीज़ पर रखना
मैं भी रोज़ इक ख़्वाब तुम्हारे शहर की जानिब भेजूँगा
हिज्र के दरिया में तुम पढ़ना लहरों की तहरीरें भी
पानी की हर सत्र पे मैं कुछ दिल की बातें लिखूँगा
जिस तनहा से पेड़ के नीचे हम बारिश में भीगे थे
तुम भी उस के छू के गुज़रना मैं भी उस से लिपटूँगा
ख़्वाब मुसाफ़िर लम्हों के हैं साथ कहाँ तक जाएँगे
तुम ने बिल्कुल ठीक कहा है मैं भी अब कुछ सोचूँगा
बादल ओढ़ के गुज़रूँगा मैं तेरे घर के आँगन से
क़ोस-ए-क़ुज़ा के सब रंगों में तुझ को भीगा देखूँगा
बे-मौसम बारिश की सूरत देर तलक और दूर तलक
तेरे दयार-ए-हुस्न पे मैं भी किन-मिन किन-मिन बरसूँगा
शर्म से दोहरा हो जाएगा कान पड़ा वो बुंदा भी
बाद-ए-सबा के लहजे में इक बात में ऐसी पूछूँगा
सफ़्हा सफ़्हा एक किताब-ए-हुस्न सी खुलती जाएगी
और उसी की लय में फिर मैं तुम को अज़्बर कर लूँगा
वक़्त के इक कंकर ने जिस को अक्सों में तक़्सीम किया
आब-ए-रवाँ में कैसे ‘अमजद’ अब वो चेहरा जोड़ूँगा
एक आज़ार हुई जाती है शोहरत
एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को
ख़ुद से मिलने की भी मिलती नहीं फ़ुर्सत हम को
रौशनी का ये मुसाफ़िर है रह-ए-जाँ का नहीं
अपने साए से भी होने लगी वहशत हम को
आँख अब किस से तहय्युर का तमाशा माँगे
अपने होने पे भी होती नहीं हैरत हम को
अब के उम्मीद के शोले से भी आँखें न जलीं
जाने किस मोड़ पे ले आई मोहब्बत हम को
कौन सी रुत है ज़माने हमें क्या मालूम
अपने दामन में लिए फिरती है हसरत हम को
ज़ख़्म ये वस्ल के मरहम से भी शायद ने भरे
हिज्र में ऐसी मिली अब के मसाफ़त हम को
दाग़-ए-इसयाँ तो किसी तौर न छुपते ‘अमजद’
ढाँप लेती न अगर चादर-ए-रहमत हम को
निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर
निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से जाएँ कहीं
ज़मीं के साथ न मिल जाएँ ये ख़लाएँ कहीं
सफ़र की रात है पिछली कहानिया न कहो
रुतों के साथ पलटती हैं कब हवाएँ कहीं
फ़ज़ा में तेरते रहते हैं नक़्श से क्या क्या
मुझे तलाश न करती हों ये बालाएँ कहीं
हवा है तेज़ चराग़-ए-वफ़ा का ज़िक्र तो किया
तनाबें ख़ेमा-ए-जाँ की न टूट जाएँ कहीं
मैं ओस बन के गुल-ए-हर्फ़ पर चमकता हूँ
निकलने वाला है सूरज मुझे छुपाएँ कहीं
मेरे वजूद पे उतरी हैं लफ़्ज़ की सूरत
भटक रही थीं ख़लाओं में ये सदाएँ कहीं
हवा का लम्स है पाँव में बेड़ियों की तरह
शफ़क़ की आँच से आँखें पिघल न जाएँ कहीं
रुका हुआ है सितारों का कारवाँ ‘अमजद’
चराग़ अपने लहू से ही अब जलाएँ कहीं
मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ
मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ
फिर रहा हूँ आज तक भटका हुआ
देखता रहता है मुझको रात दिन
कोई अपने तख़्त पर बैठा हुआ
चाँद तारे दूर पीछे रह गए
मैं कहाँ पर आ गया उड़ता हुआ
बंद खिड़की से हवा आती रही
एक शीशा था कहीं टूटा हुआ
खिडकियों में, कागजों में, मेज़ पर
सारे कमरे में है वो फैला हुआ
अपने माजी का इक समुंदर चाहिए
इक खजाना है यहाँ डूबा हुआ
दोस्तों ने कुछ सबक ऐसे दिए
अपने साये से भी हूँ सहमा हुआ
किसी कि आहट आते आते रुक गयी
किस ने मेरा साँस है रोका हुआ
ज़िंदगी के मेले में
ज़िंदगी के मेले में
ख्वाहिशों के रेले में
तुम से क्या कहें जाना
इस क़दर झमेले में
वक़्त की रवानी है
बख्त की गिरानी है
सख्त बेज़मीनी है
सख्त लामकानी है
हिज्र के समंदर में
तख़्त और तख्ते की
एक ही कहानी है
तुम को जो सुनानी है
बात गो ज़रा सी है
बात उम्र भर की है
उम्र भर की बातें कब
दो घड़ी में होती हैं
दर्द के समंदर में
अनगिनत जजीरें हैं
बेशुमार मोटी हैं
आँख के दरीचे में
तुम ने जो सजाया था
बात उस दिए की है
बात उस गिले की है
जो लहू की खिलवत में
चोर बन के आता है
लफ्ज़ के फ़ासीलों पर
टूट टूट जाता है
ज़िंदगी से लम्बी है
बात रत-जगे की है
रास्ते में कैसे हो
बात तखालिये की है
तखालिये की बातों में
गुफ्तगू इजाफी है
प्यार करने वालों को
इक निगाह काफी है
हो सके तो सुन जाओ
एक दिन अकेले में
तुम से क्या कहें जानां
इस क़दर झमेले में
दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी
दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी
रोका तो बहुत दिल ने मगर एक न मानी
मैं भीगती आँखों से उसे कैसे हटाऊ
मुश्किल है बहुत अब्र में दीवार उठानी
निकला था तुझे ढूंढ़ने इक हिज्र का तारा
फिर उसके ताआकुब में गयी सारी जवानी
कहने को नई बात हो तो सुनाए
सौ बार ज़माने ने सुनी है ये कहानी
किस तरह मुझे होता गुमा तर्के-वफ़ा का
आवाज़ में ठहराव था, लहजे में रवानी
अब मैं उसे कातिल कहूँ ‘अमज़द’ कि मसीहा
क्या ज़ख्मे-हुनर छोड़ गया अपनी निशानी
खुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
खुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन
भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल में
दुनिया ने दिया वक़्त तो लिक्खेंगे किसी दिन
हिल जायेंगे इक बार तो अर्शों के दर-ओ-बाम
ये खाकनशीं लोग जो बोलेंगे किसी दिन
आपस की किसी बात का मिलता ही नहीं वक़्त
हर बात ये कहे हैं के बैठेंगे किसी दिन
ऐ जान तेरी याद के बे-नाम परिंदे
शाखों पे मेरे दर्द की उतरेंगे किसी दिन
जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब के देखेंगे किसी दिन
खुशबू से भरी शाम में जुगनू के कलम से
इक नज़्म तेरे वास्ते लिक्खेंगे किसी दिन
सोयेंगे तेरी आंख की खल्वत में किसी रात
साये में तेरी ज़ुल्फ़ के जागेंगे किसी दिन
खुशबू की तरह, असल-ए-सबा खाक नुमा से
गलियों से तेरे शहर की गुजरेंगे किसी दिन
‘अमजद’ है यही अब के कफ़न बांध के सर से
उस शहर-ए-सितमगर में जायेंगे किसी दिन
न आसमाँ से न दुश्मन के ज़ोर
न आसमाँ से न दुश्मन के ज़ोर ओ ज़र से हुआ
ये मोजज़ा तो मेरे दस्त-ए-बे-हुनर से हुआ
क़दम उठा है तो पाँव तले ज़मीं ही नहीं
सफ़र का रंज हमें ख़्वाहिश-ए-सफ़र हुआ
मैं भीग भीग गया आरज़ू की बारिश में
वो अक्स अक्स में तक़्सीम चश्म-ए-तर से हुआ
सियाही शब की न चेहरों पे आ गई हो कहीं
सहर का ख़ौफ़ हमें आईनों के दर से हुआ
कोई चले तो ज़मीं साथ साथ चलती है
ये राज़ हम पे अयाँ गर्द-ए-रह-गुज़र से हुआ
तेरे बदन की महक ही न थी तो क्या रुकते
गुज़र हमारा कई बार यूँ तो घर से हुआ
कहाँ पे सोए थे ‘अमजद’ कहाँ खुलीं आँखें
गुमाँ क़फ़स का हमें अपने बाम ओ दर से हुआ