क्षणिकाएँ
बोरसी
पुसोॅ मेॅ
कोहोॅ के आगू
रात भर
डरी-डरी जलै छै बोरसी
सोची केॅ
सब केॅ जाड़ोॅ सेॅ बचौइयै
कि खुद केॅ ।
परिवार
परिवारोॅ लेली
कुछ लोग
बेची दै छै
आँखोॅ के नींद
मनोॅ के चैन।
दोहे-1
बचपन की वो मस्तियाँ, बचपन के वो मित्र।
सबकुछ धूमिल यूँ हुआ, ज्यों कोई चलचित्र।।
संगत सच्चे साधु की, अनुभव देत महान।
बिन पोथी बिन ग्रंथ के, मिले ज्ञान की खान।।
प्रेम-विनय से जो मिले, वो समझें जागीर।
हक से कभी न माँगते, कुछ भी संत फकीर॥
ज्यों ही मैंने देख ली, बच्चों की मुस्कान।
पल भर में गायब हुई, तन में भरी थकान।।
मंदिर मस्जिद चर्च में, जाना तू भी सीख।
जाने कौन प्रसन्न हो, दे दे तुझको भीख।।
खालीहांडी देखकर, बालक हुआ उदास।
फिर भी माँ से कह रहा, भूख न मुझको प्यास।।
लख माटी की मूर्तियाँ, कह बैठे जगदीश।
मूर्तिकार के हाथ ने, किसे बनाया ईश।।
कौन यहाँ जीवित बचा, राजा रंक फकीर।
अमर यहाँ जो भी हुए, वो ही सच्चे वीर।।
तुलसी ने मानस रचा, दिखी राम की पीर।
बीजक की हर पंक्ति में, जीवित हुआ कबीर।।
डूब गई सारी फसल, उबरा नहीं किसान।
बोझ तले दबकर अमन , निकल रही है जान।।
दोहे-2
तेल और बाती जले, दोनों एक समान।
फिर भी दीपक ही बना, दोनों की पहचान।।
उसकी बोली में लगे, कोयल की आवाज़।
ज्यों कान्हाँ की बाँसुरी, तानसेन का साज़।।
बैठे थे बेकार हम, देते थे उपदेश।
वृद्धाश्रम में डालकर, बेटे गए विदेश।।
जब-जब वो देखे मुझे, करे करारे वार।
होती सबसे तेज है, नैनों की ही धार।।
मस्जिद में रहता ख़ुदा, मंदिर में भगवान।
सबका मालिक एक है, बाँट न ऐ नादान।।
अपने मुख से कीजिए, मत अपनी तारीफ़।
हमें पता है, आप हैं, कितने बड़े शरीफ़।।
माँ के छोटे शब्द का, अर्थ बड़ा अनमोल।
कौन चुका पाया भला, ममता का यह मोल।।
जब से परदेशी हुए, दिखे न फिर इक बार।
होली-ईद वहीं मनी, वहीं बसा घर-द्वार।।
नन्हें बच्चे देश के, बन बैठे मजदूर।
पापिन रोटी ने किया, उफ! कैसा मजबूर।।
उमर बिता दी याद में, प्रियतम हैं परदेश।
धरकर आते स्वप्न में, कामदेव का वेश।।
सदीं का ठहराव
मण्डेला का निधन
या फिर सदीं का ठहराव
क्या कहें इसे
एक योद्धा
जो रहा अपराजेय
जिसने जीती हर बाजी
जीवन के हर छोर पर
संघर्षों का जमावड़ा
पर विचलित नहीं हुआ
चेहरे पर बच्चों-सी मासूम मुस्कान
हर बाजी से पहले ही जीत का विश्वास
मौत भी कईयों बार आई
हारकर लौट गई
लगभग एक सदीं का विजेता
जो काफी लड़कर थका
आराम से हार नहीं मानी
मृत्यु को भी नाकों चने चबाने पड़े
आखिर एक विजेता से सामना हुआ था
मण्डेला से हुआ था
चेहरे पर छुहारे-सी झुर्रियाँ लिए हुए
जीवन में हर क्षण आई
हार को पिये हुए
मण्डेला ने हथियार डाल दिया
मृत्यु से समझौता हुआ
और मण्डेला शान के साथ
सम्पूर्ण विश्व की आँखें सजल किये हुए
मृत्यु के साथ उसके घर चले गए
अब बस मण्डेला की यादें हैं
आज एक बार फिर वो याद आये
और क्या खूब याद आये
मण्डेला तुम महान हो।
आँखें खोज रही हैं तुमको दर्शन दे दो राम।
आँखें खोज रही हैं तुमको दर्शन दे दो राम।
श्रृद्धा से नतमस्तक होकर तुम्हें पुकारा है।
इस दुनिया में सिवा तुम्हारे कौन हमारा है।।
रटते-रटते जिसे दूर होते हैं अँधियारे –
यही तुम्हारा नाम, हमारा एक सहारा है।।
पूजन करता, अर्चन करता रोज़ सुबह से शाम –
आँखें खोज रही हैं तुमको दर्शन दे दो राम।।
मनुज रूप है मिला हमें तो जीना पड़ता है।
जीवन तो है विष का प्याला पीना पड़ता है।।
सिवा तुम्हारे नहीं किसी से दुखड़ा रोयेंगे –
इसीलिए अधरों को भी अब सीना पड़ता है।।
घोर निराशा लेकर मन में, गुजरी उम्र तमाम –
आँखें खोज रही हैं तुमको दर्शन दे दो राम।।
कण-कण में है धाम तुम्हारा, मन-मन में बसते।
नाम तुम्हारा लेने वाले अधर नहीं हँसते।।
इनको हँसने का अवसर दे दो हे पूरण काम –
राम-राम कह घर के कोने रोज़ तंज कसते
मेरे कारण नाम तुम्हारा, हो न कहीं बदनाम –
आँखें खोज रही हैं तुमको दर्शन दे दो राम।।
खुशियाँ कम आयीं हिस्से में दुख ही अधिक सहे
खुशियाँ कम आयीं हिस्से में दुख ही अधिक सहे
अजब दौर है शीश झुकाकर यहाँ पड़े चलना
हम बंजारे, सीधे-सादे क्या जानें छलना
मन घंटों रोया, तब जाकर थोड़े अश्रु बहे
हमने केवल उन राहों पर छोड़े हैं पदछाप
भुगत रहीं थीं, जो सदियों से ऋषि-मुनियों के शाप
विष ही पिया उम्र भर हमने लेकिन कौन कहे
दो रोटी की चिंता में ही जीवन बीत गया
लगता है सुख का घट धीरे-धीरे रीत गया
आशा की दरकीं दीवारें, सपने सभी ढहे
ये दुनिया दर्द की मारी बहुत है
ये दुनिया दर्द की मारी बहुत है
यहाँ रहने में दुश्वारी बहुत है
बिछड़ते जा रहे हैं दोस्त सारे
सफ़र अब ज़ीस्त का भारी बहुत है
भला नादां थे कब मुफलिस के बच्चे
सदा से इनमें हुशियारी बहुत है।
तेरी डी पी को अक्सर चूमता हूँ
मेरी जाँ मुझको तू प्यारी बहुत है
उठा पाये न इसको ‘मीर’ तक भी
ये पत्थर इश्क़ का भारी बहुत है
मुखालिफ ही चली मेरे हमेशा
हवा के साथ दुश्वारी बहुत है
मिटा देता है हर नक़्शे-क़दम वो
‘अमन’ रहबर में मक्कारी बहुत है
उसके इतने क़रीब हैं हम तो
उसके इतने क़रीब हैं हम तो
अब तो ख़ुद के रक़ीब हैं हम तो
शेर कहते हैं छोड़कर सब काम
यार सचमुच अजीब हैं हम तो
ये दुआ है नवाज़ दे या रब
इल्मो-फ़न से ग़रीब हैं हम तो
इब्ने मरियम से अपना रिश्ता है
आशना-ए-सलीब है हम तो
अब तलक इश्क़ से है महरूमी
अब तलक बदनसीब हैं हम तो
हम तो शायर हैं ऐ! अमन गोया
इस सदी के अदीब हैं हम तो
मुक्तक
जीवन क्या है, समरांगण है
इसे जीतने का ही प्रण है
सुख-दुख का है महाकाव्य यह
दुख इसका मंगलाचरण है
जो भाग्य में हमारे था, आप पा रहे हैं
हम ज़हर पी रहे हैं, संताप पा रहे हैं
कैसी कुचक्र चालें, चलते हैं देवता अब
वरदान पाने वाले अभिशाप पा रहे हैं
किस जगह से कहाँ से आई हो
तुम मेरी ही हो या पराई हो
तुमको पढ़कर उछल पड़ा मैं तो
जैसे ख़ैय्याम की रुबाई हो
आँसुओं की नदी में उतरी है
ज़िन्दगी शायरी में उतरी है
मुग्ध करती है श्याम की आभा
राधा अब बाँसुरी में उतरी है
नैन में प्यास लेकर भटकते रहे
दर्श की आस लेकर भटकते रहे
प्रेम ने तुमको जोगन बना ही दिया
हम भी संन्यास लेकर भटकते रहे
काव्य की तुमसे पुष्प-माला है
मैंने कविता में तुमको ढाला है
मेरा जीवन अमावसी था जो –
उसमें हर ओर अब उजाला है
दुख प्रणय के गीत का आधार है
दुख सृजन का केंद्र है, श्रंगार है
दुख में सुख के भेद भी तो हैं छिपे
दुख रचयिता का दिया उपहार है
तप के जैसा है साधना जैसा
पूजा जैसा है अर्चना जैसा
प्यार ईश्वर है प्यार ही अल्लाह
प्यार करना है प्रार्थना जैसा
जिनमें तुम थे नहीं वे सपन व्यर्थ थे
प्रीत की सुन कथा हम मगन व्यर्थ थे
ऐसे जीवन को सार्थक कहें किस तरह –
बिन तुम्हारे तो सचमुच ‘अमन’ व्यर्थ थे
हार अब जीत जैसी लगती है
दुश्मनी-प्रीत जैसी लगती है
प्रेम के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ –
प्रेमिका मीत जैसी लगती है
कौन कहता है? आबाद हैं
कहने भर को ही आजाद हैं
जैसा चाहा था जीवन जिया –
आप लाखों में अपवाद हैं
घाव-छालों की बात क्या करते
तीर-भालों की बात क्या करते
जिनमें पौरुष न रंच-भर भी हो –
वो मशालों की बात क्या करते
व्यर्थ की बात फिर उछाली है
बाल की खाल फिर निकाली है
मौन रहना ही मेरा बेहतर है
अब तो हर दृष्टि ही सवाली है
दश्त में प्यासी भटक कर तिश्नगी मर जाएगी
दश्त में प्यासी भटक कर तिश्नगी मर जाएगी
ये हुआ तो ज़ीस्त की उम्मीद भी मर जाएगी
रोक सकते हो तो रोको मज़हबी तकरार को
ख़ून यूँ बहता रहा तो ये सदी मर जाएगी
फिर उसी कूचे में जाने के लिए मचला है दिल
फिर उसी कूचे में जाकर बेख़ुदी मर जाएगी
बोलना बेहद ज़रुरी है मगर ये सोच लो
चीख़ जब होगी अयाँ तो ख़ामुशी मर जाएगी
नफ़रतों की तीरगी फैली हुई है हर तरफ़
प्यार के दीपक जलें तो तीरगी मर जाएगी
रंज-ओ-ग़म से राब्ता मेरा न टूटे ऐ ख़ुदा
यों हुआ तो मेरी पूरी शायरी मर जाएगी
दोस्तों से बेरुखी अच्छी नहीं होती ‘अमन’
दूरियाँ ज़िन्दा रहीं तो दोस्ती मर जाएगी
उसी का नाम अम्बर पर लिखा है
उसी का नाम अम्बर पर लिखा है
जो अपने देश पर मर-मिट चुका है
डुबोया फ़स्ल को बादल ने फिर-से
हमारे पेट में सूखा पड़ा है
अभी तो मिल रहा है हर किसी से
बशर वो शह्र में शायद नया है
है जिसके पास ताक़त इस जहां में
सलामत बस यहाँ उसका गला है
बिठाया था जिसे पलकों पे मैंने
उसी ने फिर मुझे ज़ख़्मी किया है
कहोगे क्या ‘अमन’ ताज़ा ग़ज़ल में
बुज़ुर्गों ने तो सब-कुछ कह दिया है
ख़ुद को यकजा करता हूँ
ख़ुद को यकजा करता हूँ
इक मुद्दत से बिखरा हूँ
कच्चा हूँ या पक्का हूँ
तेरे घर का रस्ता हूँ
सबसे कहता रहता हूँ
उसका हूँ मैं उसका हूँ
दावेदार कई मेरे –
मैं दादी का बक्सा हूँ
सबमें होते ऐब हुनर
मैं भी सबके जैसा हूँ
लाख बुरा हूँ मैं लेकिन
तुम कह दो तो अच्छा हूँ
पहले तुम पर मरता था
अब ये सोच के हँसता हूँ
याद न आये कोई मुझे
मैं तन्हा ही अच्छा हूँ
जिस दिन से ग़म आया है
उस दिन से ख़ुश रहता हूँ
मुझको पढ़ना मुश्किल है
मैं किस्मत का लिक्खा हूँ