ग़ालिब
ग़ालिब पर सोचते हुए
वह दिल्ली याद आई
जिसके गली-कूचे अब वैसे न थे
आसमान में परिंदों के लिए कम थी जगह
उड़कर जाते कि लौट आते हैं अभी
शब–ओ-रोज़ होने वाले बाजीच:-ए-अत्फ़ाल में
मसरूफ़ थी हर सुबह
इब्न–ए–मरियम थे
दुःख की दवा न थी
इस शोर में
एक आवाज़ थी बल्लीमारान से उठती हुई
लेते थे जिसमें अदब के आदमक़द बुत
गहरी-गहरी साँसे
हिंदुस्तान की नब्ज़ में पिघलने लगता था पारा, सीसा, आबनूस
दीद–ए-तर से टपकता था लहू
उस ख़स्ता के ‘अंदाज़–ए-बयाँ और’ में वह क्या था
कि हिलने लगती थी बूढ़े बादशाह की दाढ़ी
थकी सल्तनत की सीढ़ियाँ उतरते उसकी फीकी हँसी के
न मालूम कितने अर्थ थे
उसने देखा था
तमाशा देखने वालों का तमाशा
उसकी करुणा में डूबी आँखों में हिज़्र का लम्बा रेगिस्तान था
जिसके विसाल के लिए उम्र भी कम ठहरी
दिल्ली और कलकत्ता के बीच कहीं खो गई थी
उसकी रोटी
टपकती हुई छत और ढहे हुए महलसरे को
क़लम की नोक से संभाले
वह ज़िद्दी शायर ताउम्र जद्दोजहद करता रहा कि
निकल आए
फ़िरदौस और दोज़ख को मिलाकर भी
ज़िन्दगी के लिए थोड़ी और गुंजाइश .
मित्रता
देह पर एक जैसी शर्ट
एक उसके पास
चाहे उड़ जाए रंग
घिसकर कमजोर पड़ जाए धागा
फट जाए जेब
और दिखे कपड़े के पीछे का बदरंग चेहरा
पर जिद कि आत्मा की उसी रौशनी में झिलमिलाए मन
बढ़ा कर छू लें
नदियोँ.पहाड़ों और रेगिस्तानों के पार
उसके जीवन के वे हिस्से
जिसमें सघनता से रहते हैं दो प्राण
ईर्ष्या मोह में डूबे दो अलग संसार को
जोड़ने वाला
हिलता हुआ यह पुल.
जीवन
क़लम उठाकर उसने पहला शब्द लिखा
जीवन
तपते पठार थे झाड़ियाँ थीं
था कुम्हलाया हरा-सा रंग
चीड़ के पत्तों पर पहाड़ों की उदासी
बर्फ़ की तरह रुकी थी
उसमें डोल रहे थे चमकीली सुबह के उदग्र छौने
नदियों के जल में बसी हवा पीने चला आया था सूरज
मछलियों के गलफ़ड़े में बचा था फिर भी जीवन
असफलताओं के बीच यह अन्तिम विश्वास की तरह था ।
दाँत का टूटना
जहाँ से टूटा था दाँत
जीभ बार बार वहीं जाती सहलाती
बछड़े को जैसे माँ चाटती है
वह जगह ख़ाली रही
होंठ बन्द रहते
नहीं तो उजाड़ सा लगता वहाँ कुछ
गर्म ज़्यादा गर्म यही हाल ठण्डे का भी रहा
स्वाद जीभ पर बेस्वाद फिरता
कौर कौन गूँथे ?
जहाँ से टूटा था दाँत वहाँ एहसास के धागे अभी बचे थे
मशीन से उन्हें कुचलकर तोड़ दिया गया
दाँत लग तो गए हैं पर
जीभ अभी भी वहीं जाती है
क्या पता स्पर्श से यह जी उठे
दाँतों के बीच उन्हीं जैसा एक दाँत है, पर सुन्न
जैसे कोई कोई होते हैं आदमियों के बीच ।
बाएँ बाजू का टूटना
दाएँ हाथ में बायाँ अदृश्य रहता था
दायाँ ही जैसे हाथ हो
वही लिखता था वही दरवाज़ा खोलता था वही हाथ मिलाता था
विदा के लिए वही हिलता था
हमेशा वही उठता था
भाई दोनों जुड़वा थे पर बाएँ ने कभी शिकायत नहीं की
यहाँ तक कि अपने लिए गिलास का पानी तक नहीं उठाया
न तोड़ा कभी टुकड़ा रोटी का
सुख के स्पर्श और अतिरेक में भी चुप ही रहता
शोक मैं मौन
सब दाएँ का, बाएँ का क्या ?
बायाँ टूटा और कुछ दिन लटका रहा गले से बेबस
तब दाएँ को पता चला कि बायाँ भी था
सबका एक बायाँ होता ज़रूर है ।
आओ, आत्महत्या करें
१)
इतिहास में उन्होंने कभी मुझे मारा था
सताया था
जबरन थोपे थे अपने क़ायदे
आज मुझे भी यही सब करना है
आओ हम सब मिलकर लौटते हैं अतीत में ।
२)
अतीत की धूल में मुझे नहीं दीखते चेहरे
मुझे साफ़ साफ़ कुछ सुनाई भी नहीं पड़ता
चलो मेरे साथ नरमेध पर
जो चेहरा सामने दिखे वही है वह ।
३)
मुझे नापसन्द हैं तुम्हारे क़ायदे
सख़्त नफ़रत करता हूँ तुम्हारी नफ़रतों से
मैं तुम्हारी तरह बन गया हूँ धीरे-धीरे ।
४)
दरअसल मैं तुम्हें सबक़ सिखाना चाहता हूँ
डर
भय
कातरता
देखो ब्लडप्रेशर से कँपकँपाते मेरे ज़िस्म को
मैं सामूहिक ह्रदयघात हूँ ।
५)
यह जो उजली सी आज़ादी हमें मिली
और उस पर जो यह स्याह धब्बा था
अब फैलकर महाद्वीप बन गया है
ज़हर से भरा है इसका जल
६)
तुम्हें ख़ुशहाली नहीं
तुम्हें प्रतिशोध चाहिए ।
७)
जब घृणा का अंकुरण होता है
सूखते हैं पहले रसीले फल
गिर जाती हैं हरी पत्तियाँ
जब घर जलाने को बढ़ाते हो हाथ
तब तक राख हो चुका होता है मन का आँगन
हत्या के लिए जो छुरी तुमने उठाई है
उस पर तुम्हारी मासूमियत का लहू है
तुम फिर कभी वैसे नहीं लौटोगे
तुम्हारे बच्चे
नृशंस हो चुके होंगे ।
८)
आग में जो सबसे कोमल है
पहले वह झुलसता है
जैसे बच्चे
जो सुन्दर हैं जलते हैं फिर
जैसे स्त्रियाँ
घिर जाते है
वृद्ध आसक्त
धुआँ उठता है कविता की किताब से
तुम्हारे अन्दर जो सुलग रहा है
वह फिर पलटकर तुम्हें डसेगा ।
९)
तुम लज्जित करने के कोई भी अवसर नहीं चूकते
तुम हत्या के लिए तलाशते हो बहाने
तुम जीने का सलीका भूल गए हो ।
१०)
यह धरती फिर भी रहेगी
तुम्हारे रोते, बिलखते, कुपोषित बच्चों से आबाद ।
ततैया का घर
घरों में कहीं किसी जगह वह अपना घर बनाती हैं
छत्ते जहाँ उनके अण्डे पलते हैं
उनके पीताभ की कोई आभा नहीं
वे बेवजह डंक नहीं मारतीं
आदमी आदमी के विष का इतना अभ्यस्त है कि
डर में रहता है
स्त्रियों के भय को समझा जा सकता है
उनके ऊपर तो वैसे ही चुभे हुए डंक हैं
छत्ते जो दीवार में कहीं लटके रहते हैं
गिरा दिए जाते हैं
छिड़क कर मिट्टी का तेल जला दिया जाता है
उनके नवजात मर जाते हैं
घर में कोई और घर कैसे ?
वे इधर उधर उड़ती हैं
जगह खोजती हैं
फिर बनाती हैं अपना घर अब और आड़ में
विष तो है
कहाँ है वह ?
झीनी चदरिया
चादर को मैली होने से बचाने के
कितने जतन थे सहाय बाबू के पास
देह पर बोझ न रहे यह सोच कर
मैल न जमने दिया मन में
कभी हबक कर नही बोला
कभी ठबक कर नही चले
गेह की देहरी से उठाते रहे प्यास से भरा लोटा
जब भी गए भूख से भरी थाली के पास
श्रम का पसीना पोंछ कर गए
कभी-कभी निकल आते ईर्ष्या-द्वेष के कील-काँटे
पैंट की जेब मे चला आता स्वार्थ
अहं की टाई को बार-बार ढीला करते
अधिकार के पेन को बहकने नही दिया
चादर को जस का तस लौटने का स्मरण था सहाय बाबू को
हालाँकि हबक कर बोले बिना कोई सुनता न था
ठबक कर न चलने में पीछे रह जाने का अपमान था
सहाय बाबू छड़ी से ओस की बूँदों को छूते
जैसे वह गोरख और कबीर के आँसू हों।
बहु मत
यह राजनीतिक कविता नहीं है / है / शायद
कच्चे रास्ते हैं
धूल और कीचड़ से भरे टूटे-फूटे ऊँचे-नीचे
मुख्य सड़क के बग़ल से फूटते हुए
आठ लेन की चमचमाती सड़क से कटकर कहीं खो जाते हैं
कभी उनपर बैलगाड़ी दिखती है
बुग्गी, भैंसे पर लुढ़कती हुई
ताँगा जिसे खींच रही है भूरे रँग की घोड़ी
गाभिन है
वह एक खच्चर की माँ बनेगी
मेहनती खच्चर जिसकी यौन आवश्यकताएँ शून्य होंगी
मुख्यधारा के लिए ढोएगा गाँवों से गुड़, सब्ज़ वगैरह
मुख्य पर जब कोई पहुँचता है पार कर उप की जकड़बन्दी
रपट जाता है
सोलह पहियों पर दौड़ता ट्रक ढो रहा है
पहाड़ों के करीने से कटे मांस के बड़े-बड़े टुकड़े
पीछे-पीछे पेड़ों के शव हैं उनकी उम्र कच्ची है
बत्तीस पहियों पर लेटे हैं एक दूसरे पर
इस विश्वात्मा में ही अब उसे रहना है
इसी वसुधैवकुटुम्ब में उसे अपनी मड़ईया डालनी है
इतना बड़ा विश्वास मत
और कहाँ वह कु-मति
बिसरा देनी है बोली बानी
परब उपपूजाएँ
सह संस्कृतियों के लिए कोई जगह नहीं है
इस भूमण्डलीकृत वैश्वीकरण में
जो अलग हैं वे दुर्घटनाओं के सम्भावित प्रक्षेत्र हैं
जब इतना विशाल बहुमत
तो शोर और चमक भी बहुमत
बातें भी बहुमत
विवाद बहुमत
खाना पहनना चलना बैठना पढ़ना सुनना सोना देखना लिखना छपना
बहुमत
चुप अल्पमत
बहुमत में इस तरह घुसते चले आते हैं अल्पमत
विराट में शून्य शून्य और शून्य
हम बहुमत का सम्मान करते हैं
अल्पमत कृपया बहुमत आने तक शान्त रहें
बहु मत
बहु मत
बहु मत ।
मैं बीमार हूँ
रस्ते में एक मासूम से लड़के को कुछ लोग
रस्सियों से बाँध मारे जा रहे थे
वह बार-बार कह रहा था मेरा कसूर तो बताया जाए
मैंने सुबह ही बी०पी० चेक किया था नार्मल निकला
एक बच्ची भागी-भागी आई लिपट गई मेरे पैरों से
रिस रहा था उससे ख़ून
गहरी लकीरें थीं उसके चेहरे पर
उसका पीछा करने वाले दिख नहीं रहे थे
वह किसी अदृश्य से डर रही थी
और काँप रही थी
उसका चाचा उसे घसीटते हुए ले गया
कुछ दिन पहले ब्लड टेस्ट करवाया था लौह तत्व भरपूर है ख़ून में
बिखर से गए घर के दरवाज़े पर झिलगी खटिया पर जर्जर वृद्ध ने
तरल-सी सब्ज़ी में रोटी तोड़ते हुए कहा
बेटा, आओ, खा लो
फिर वह कहीं डूब गया अपने में
मेरा पाचनतन्त्र ठीक है, जो कुछ भी खाता हूँ, पच जाता है
नुक्कड़ पर एक बड़े से चमकदार झूठ के आसपास
तमाम सच्चाईयों के कन्धे झुके हुए मुझे मिले
बन्धे थे उनके हाथ ख़ुद से
शुगर ठीक है मेरा, इसे कण्ट्रोल में रखना है
भागा जा रहा था एक युवा
उसके पीठ पर कोड़े की मार के उभार दिख रहे थे
छिल गई थी पूरी पीठ रक्त बह कर वहीँ जम गया था
उसे कोई नौकरी चाहिये होगी
मैंने देख लिए उसके गुम चोट
मेरी आँखों का लेंस उम्र के हिसाब से ठीक है
पर दूरदृष्टि ख़राब हो चली है
यह कोई बड़ी बात नहीं, क्या कीजिएगा दूर तक देखकर
— डॉक्टर ने कहा
पैथालोजी में कोलेस्ट्राल के टेस्ट की रिपोर्ट देख रहा था
एक फीकी-सी युवा स्त्री
पूछ रही थी कि उसके पति के हर्ट अटैक की आशंका चेकअप में क्यों नहीं दिखी थी
जब बचना असम्भव था
क्यों आई०सी०यू० में उन्हें इतने दिनों तक रखा गया
कहाँ से भरेगी वह यह कर्ज़
एच०डी०एल० सही निकला एल०डी०एल० कम हो रहा है
सगीर ने कहा भाईजान अब घूमने टहलने की हिम्मत न रही
क्या रखा है मेल मुलकात में
मैंने अपने घुटने देखे ठीक हैं दोनों
पर इधर रीढ़ झुकती जा रही है
और तनकर कर खड़े होने की हिम्मत छूटती जा रही है
अब तो किसी पर तमतमाता भी नहीं हूँ
ठीक हूँ मैं
वैसे
तो ।
चाँद, पानी और सीता
स्त्रियाँ अर्घ्य दे रही हैं चन्द्रमा को
पृथ्वी ने चन्द्रमा को स्त्रियों के हाथों जल भेजा है
कि नर्म मुलायम रहे उसकी मिट्टी
कि उसके अमावस में भी पूर्णिमा का अंकुरण होता रहे
लोटे से धीरे-धीरे गिरते जल से होकर आ रहीं हैं चन्द्रमा की किरणें
जल छू रहा है उजाले को
उजाला जल से बाहर आकर कुछ और ही हो गया है
बीज भी तो धरती से खिलकर कुछ और हो जाता है
घुटनों तक जल में डूबी स्त्रियों को
धान रोपते हुए, भविष्य उगाते हुए सूर्य देखता है
देखता है चन्द्रमा
स्त्रियाँ सूरज को भी देती हैं जल, जल में बैठ कर
कि हर रात के बात वह लौटे अपने प्रकाश के साथ
धरती पर पौधे को पहला जल किसी स्त्री ने ही दिया होगा
तभी तो अभी भी हरी-भरी है पृथ्वी
स्त्रियाँ पृथ्वी हैं
रत्न की तरह नहीं निकली वें
न ही थी किसी मटके में जनक के लिए
अगर और लज्जित करोगे
लौट जाएँगी अपने घर
हे राम !
क्या करोगे तब…
पर्यायवाची
गुलमोहर आज लाल होकर दहक रहा है
उसके पत्तों में तुम्हारी निर्वस्त्र-देह की आग
मेरे अंदर जल उठी है
उसके कुछ मुरझाए फूल नीचे गिरे हैं
उनमें सुवास है तुम्हारी
मुझे प्रतीक्षा की जलती दोपहर में सुलगाती हुई
यह गुलमोहर आज मेरे मन में खिला है
आओ की आज हम दोनों एक साथ दहक उठें
कि भीग उठें एक साथ, कि एक साथ उठें और
फिर गिर जाएँ साथ साथ
मेरी हथेली पर तुम्हारे नाम से निकल कर एक अक्षर आ बैठा है
और तबसे वह ज़िद्द में है कि पूरा करूँ तुम्हारा नाम
शेष तो तुम्हारे होठों से झरेंगे
जब आवाज़ दोगी अपने होठों से मुझे मेरी पीठ पर
उन्हें ढूँढ़ता हूँ तुम्हारे मुलायम पहाड़ों के आस-पास
वहाँ मेरे होठों के उदग्र निशान तुम्हें मिलेंगे
तुम्हारे नाभि-कुण्ड से उनकी तेज़ गंध आ रही है
मैं कहाँ ढूँढूँ उन्हें जब कि मैं ही अब
मैं नहीं रहा
तुम्हारे नाम के बीच एक-एक एक करके रखूँ अपने नाम का एक-एक अक्षर
कि जब आवाज़ दे कोई तुम्हें
मेरा नाम तुम्हे जगा दे कि उठो कोई पुकार रहा है
अगर कहीं गिरो तो गिरने से पहले बन जाए टेक
और अगर कहीं घिरो तो पाओ उसे एक मजबूत लाठी की तरह अपने पास
कि अपने अकलेपन में उन्हें सुन सको
कि जब उड़ो ऊँचे आकाश में वह काट दे डोर तेज़ काटने वालो की
वैसे दोनों मिलकर पर्यायवाची हो जाएँ तो भी
चलेगा
अर्थ के बराबर सामर्थ्य व वाले दो शब्द
एक साथ
आटे की चक्की
पम्पसेट की धक-धक पर उठते गिरते कल-पुर्जों के सामने
वह औरत खड़ी है
पिस रहा है गेहूँ
ताज़े पिसे आटे की ख़ुशबू के बीच मैं ठिठका
देख रहा हूँ गेहूँ का आटे में बदलना
इस आटे को पानी और आग से गूँथ कर
एक औरत बदलेगी फिर इसे रोटी में
दो उँगलियों के बीच फिसल रहा है आटा
कहीं दरदरा न रह जाए
नहीं तो उलझन में पड़ जाएगी वह औरत
और करेगी शिकायत आटे की
जो शिकायत है एक औरत की औरत से
वह कब तक छुपेगी कल-पुर्जों के पीछे
इस बीच पिसने आ गया कहीं से गेहूँ
तराजू के दूसरे पलड़े पर रखना था बाट
उसने मुझे देखा छिन्तार
और उठा कर रख दिया २० किलो का बाट एक झटके में
पलड़ा बहुत भारी हो गया था उसमें शामिल हो गई थी यह औरत भी
उस धक-धक और ताज़े पिसे आटे की ख़ुशबू के बीच
यह इल्हाम ही था मेरे लिए
की यह दुनिया बिना पुरुषों के सहारे भी चलेगी बदस्तूर
ढोल
उस दिन
शाम ढलने को थी
कि कहीं से आने लगी थापों की आवाज़
कई दिनों से ढोल कुछ कह रहा था
थप-थप में रुद्धा गला
शोर में उसकी पुकार अनसुनी रह जाती
इस लकदक समय में
जहां बिक रहा है अध्यात्म और
हर खुशी के पीछे दिख जाता है कोई प्रायोजक
ढोल न जाने कब से
शोर के चुप हो जाने की राह देख रहा था
पर शोर था कि अनेक रूपों में
विचित्र ध्वनियों के साथ बढ़ता ही जाता
आज जरा सी दरार दिखी थी
वहीं से झर रहा था प्रकाश की तरह
मनुष्य की खुशी का आदिम उद्घोष
अपनी थापों में लिखता हुआ मांगलिक संदेश
जिसे लेकर हवाएं पहुंच जाती हैं घर-घर
और देखते ही देखते
धरती के नए आये मेहमान की किलकारी के साथ
जुट जाते हैं कंठ
अब ढोल और उसका विनोद
हर थाप पर और ऊंचा होता जाता नाद
सुरीला होता जाता कंठ
ढोल दुभाषिया है
किसी शाम जब जुटती हैं परित्यक्त स्त्रियां
वह करता अनुवाद उनके दुःख का
अपने छंद में
उसे याद है पंद्रहवीं शताब्दी की वह कोई रात
जब हाथ में लुकाठी लिए कबीर जैसा कोई
खड़ा हो गया था बाज़ार में
मशाल की रौशनी में चमकते उस जुलूस से आ रही थी
पुकारती हुई आवाज
क्या करे ढोल अपनी उस आवाज़ का .